Monday 3 November 2008

काहे को दीजे दहेज...




बिदेस जाना था, ज्यादा सामान नही देना पर माँ नही मानी थी। कम-कम करने पर भी शगुन और नेग की तुर्प चाल फैंक उसकी और पापा की हर दलील को हरा देती, बर्तन और बिस्तर तो शगुन के होते हैं, जोड़े के लिये शनील की रजाई और सास- ससुर, जेठ- जेठानी, ननद-नन्दोई के लिये गर्म और ठंडे बिस्तर, दूतई और खेस तो माँ के देहेज़ के रखे थे। जब वो फ्राक पहनती थी और ऊँची हो जाने पर खींच- खींच कर लंबा करने की कोशिश में उन्हें फाड़ डालती, तबसे माँ ने उसके लिये बर्तन जोड़े थे। बाज़ार से खरीदे नही थे, अपनी जरी की रेशमी साड़ी, शनील का शाल, पापा की घिसी कमीज़, पुरानी पतलून, पुराने जूते, दादी का पुरानी गर्म चादर, मेरी बिना फटी फ्राक, भाई की घुटने से फटी नई पेंट, सब के बदले मिल जाते थे चमकते स्टील के नए बर्तन, कभी बारह थाल तो कभी छ कटोरी, कभी किनारी वाले छ ग्लास, परात, पानी का जग, छोटे बड़े सब साइज़ के कटोरदान, डोंगे और गोल चकोर छ -छ तश्तरी। हर बर्तन पर उसका नही तो पापा का नाम खुदा होता, वह बड़े ध्यान से बर्तन बेचने वाले के हाथों कील और हथोडी का कमाल देखती और भाई को चीढाती... मेरा नाम लिखा है तेरा नही... प्रेशर कूकर और स्टील की पानी की टंकी माँ ने पापा से जिद कर शादी से सप्ताह भर पहले खरीदवाई थी। सास ने कहा था घर में पहले ही मुझे इतने सारे बर्तन और बिस्तर संभालने पड़ते हैं जो जरूरत हो साथ लेजाना नहीं तो यहाँ तेरा समान ऐसे हे रखा है ट्रंक में..... बीस किलो तो साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज का वज़न हो गया था एक चम्मच की भी जगह न थी.....जब भी सास गाँव जाती, आकर बताती बिस्तर धुंप में सुखा कर फिनाइल की गोली दाल दी हैं बर्तनों को भी हवा लगा दी....


अब दस साल से जयादा हो चुके थे उन्हें धुंप और हवा लगे......वो भूल चुकी थी ट्रंक को और फिनाइल की गोलियों को ..... बड़ी भाभी ने इस बार लौट कर कहा मैं अपना सामान ले आई हुं, तुम जाओगी तो चाबी लेजाना, अपना सामान गाँव से ले आना...


माँ बड़े-बड़े बैग दो, छोटों में नही आयेगा ...देहरादून से मेरठ का सफर, सुबह जाकर शाम तक वापस लौटना था.... गाँव का घर पहचान में नही आया, पहले सड़क पर दूर से दिखाई देता था... स्टोर में अपना ट्रंक भी नही पहचान सकी...चार जन जुटे हैं गुच्छे की चाबियों को ट्रंक के तालों में फिट करने, कभी मिटटी का तेल तो कभी सरसों का तेल...कभी ईंट तो कभी हथोड़ा...बारी-बारी कर के सारे ट्रंक खुल गए .... जिनकी तली पर सिर्फ़ फिनाइल की गोलियां लुढ़क रही थी ..... उसे शर्म महसूस हुई उन लोगों से जिन्होंने अगस्त की उमस में, धूल भरे कमरे में, चार घंटे पसीना बहा सारे ट्रंक खोले ....

बीस साल पुराने बर्तनों की चमक आज भी आखों को चुन्ध्याती है जिन पर आंखों ने सिर्फ़ एक बार नाम पढा था ....

9 comments:

Pratyaksha said...

ऐसा ही होता है ..स्मृतियाँ बरसों बरसों बाद भी चटक चमकदार रहती हैं ..

संगीता-जीवन सफ़र said...

स्मृति की चमक तो हमेशा ही बनी रहेगी/ब्लाग जगत में स्वागत है आपका/

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

yad chahe kisi kee ho, zindgi ko khubsurat banati hai
narayan narayan

अभिषेक मिश्र said...

ऐसी ही होती है माँ और ऐसी ही होती हैं यादें. शुभकामनाएं और स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.

डॉ .अनुराग said...

सीधा सादा गुजरा वक़्त भी आपने दिलचस्प बना दिया ......

Amit K Sagar said...

ब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है. खूब लिखें, खूब पढ़ें, स्वच्छ समाज का रूप धरें, बुराई को मिटायें, अच्छाई जगत को सिखाएं...खूब लिखें-लिखायें...
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आप मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रित हैं.
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अमित के. सागर
(उल्टा तीर)

Anonymous said...

khoobsurat yado ko aise hi batte rahiye

-------------------"Vishal"

Unknown said...

wahhh ji waah vichar ko shabdo main pirona koi aap se sheekhe....
bahut achha likha hai....

mere blog par bhi aana ...pratiksha main...


Jai Ho Magalmay Ho...

के सी said...

बारी-बारी कर के सारे ट्रंक खुल गए .... जिनकी तली पर सिर्फ़ फिनाइल की गोलियां लुढ़क रही थी ..... उसे शर्म महसूस हुई उन लोगों से जिन्होंने अगस्त की उमस में, धूल भरे कमरे में, चार घंटे पसीना बहा सारे ट्रंक खोले .... वो सब कहा गया जिनकी रक्षा के प्रयोजनार्थ फिनाईल की गोलियां रखी गई थी ? कहीं ये कथा का मर्म तो नहीं?