Wednesday 2 December 2009

पचास गुलाब की खुशबू उसे काँटों सहित याद आएगी ...



घर वालों के साथ, गत्ते के तीन फीट ऊँचे डिब्बे में बंद, पचास लाल गुलाब भी बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहे थे.. घर में घुसते ही वह गाड़ी कि चाबी और पर्स टेबल पर फेंक डिब्बा खोलने बैठ गई ...उसने उन्हे डिब्बे से  बाहर निकाला, पानी से भरी थेली में बंधे और गोल्डन टिशु से लिपटे गुलाब की लाली पचास गुनी खुशबू के साथ उसके चेहरे पर खिल गई...

"पहली बार जिंदगी में मुझे किसी ने फूल भेजे हैं" ..."जन्मदिन मुबारक हो काश मैं भी तुम्हारे पास होता"... उसने बड़े उत्साह से भेजने वाले का नोट पढ़ा .. ... "अरे! सिंक ऊपर तक भर गई है पत्तियों के ढेर से" ..." लो दस्ताने पहन लो नहीं तो कांटे चुभ जायेंगे ..".... "यह क्या आपने सारी पत्तियां तोड़ डाली .."हरा धनिया थोड़ी ना है ऊपर की तो थोड़ी रखनी थी " ... " यह इस गुलदस्ते में नहीं आ रहे बड़ा गुलदस्ता लाओ ना..."  उसकी आवाज़ और पैर आसमान में थे .. हवा में चारों तरफ ख़ुशी तैर रही थी....वो फूल पचास राजदूत कि तरह एक राजकुमार का पैगाम एक राजकुमारी के लिए लेकर आये थे ....जिस हाँ का वो कई दिन से इंतजार कर रहे थे आज उसके बिना कहे उन्होंने उसकी आँखों में पढ़ ली...
गुलाब कि खुशबू ने कमरे के चारों कोनो, दीवार, छत, परदे, पेंटिंग, सोफा, टेबल, लेम्प, फ्रेम, केंडल स्टेंड, बुद्धा कि मूर्ति, क्रिस्टल बोअल, कुशन, कालीन हर खाली और भरी जगह पर अपने वहां होने का ऐलान कर दिया, उनके लाल रंग कि अलग पहचान थी जैसे तारों के बीच चाँद की होती है... कमरे में बैठते - उठते गुज़रते वो आखों को बुलावा देते और नाक को चढ़ावा...
अगले दिन जब पूछने पर उसने अपना फैसला सुनाया तो पचास गुलाब के कांटे एक साथ उनके दिल और शरीर में चुभे ... उसके फैसले के आगे सर झुका लेना मज़बूरी थी और ऐसे वक्त में उसे गले लगा लेना कर्तव्य... पर उसके प्रति उनका क्या कर्तव्य था जिसने यह गुलाब भेजे थे और जो कुछ दिन पहले उसकी एक पुकार सुन कई बागीचों के फूलों को अनदेखा कर, पहाड़ों की आवाज़ को अनसुना कर, सात समुन्दर पार, धरती के एक कोने से दुसरे कोने में दिल लेने और देने आया था ....

गुलाब को घर वालों के हवाले कर वह तो लौट गई अपने शहर.. कमरे मैं घुसते ही गुलाब को देखते ही आँखों में अजीब सा सूनापन घिर आता.. कांटो की चुभन साँसों में भर, दिल के भीतर एंठ्ती  ...जो ना किसी के साथ बाँट कर कम होती और न ही भीतर दफ़न होती ... रोज उन्हे देखा ...किस तरह एक-एक कली फूल बनी और धीरे - धीरे पंखुड़ी गहरी होने लगी, अपने में सिकुड़ने लगी ...खिड़की से झांकती धुप उन्हे सुखा रही थी, पर्दा खींचने से सोते से जागती नाज़ुक हवा अनजाने में ही उन्हे फूल से अलग कर देती .. रोज़ सुबह पंखुड़ियां टीक फ्लोर पर ऐसे चमकती जैसे आने वालों के स्वागत में बिछी हों .. जब भी उन्हे उठा आँगन की मिटटी के हवाले किया ऐसा लगता जैसे दोनों के लिए देखे सपनों पर मिट्टी डाल रही हो ... सपने देखने वालों में बहुत लोग थे... विश्व के कोने - कोने में...पर उन्हे फ्लोर से उठा मिट्टी के हवाले करने को वो अकेली थी ...
फूलों पर गिनी- चुनी पंखुड़ी रह गई .. उन्हे मटमैले पानी से निकाला और आँखे फाड़, मुह पर हाथ रख एक कदम पीछे हट गई ... गुलाब कि हर टहनी से नन्ही - नन्ही हरे रंग कि चमकदार नरम पत्तियां फूट आई थी उन पत्तियों में एक भी काँटा नहीं था... प्रक्रति, स्रष्टि और भगवान् भी उन दोनों के लिए सपने देखने से नहीं चूके...

उसकी भरी आँखे देख रही है समय के उस पार, एक अंतराल, एक काल चक्र... आँगन कि कली जो हवा में बिखरी पचास गुलाब की सज्जनता, सहीष्णुता, अधीरता, और चाह अभी देख ना सकी.. एक दिन वो उम्र कि सीढ़ी पार कर जब सफेद बालो में रंग लगाएगी... पचास गुलाब की खुशबू उसे काँटों सहित याद आएगी ...

Thursday 19 November 2009

तड़ाक की आवाज़ सारे गावं पर बिजली की तरह गिरी....



गोरा चिट्टा रंग, लंबी काठी, गुलाब की पंखुड़ी जैसे होंठ, दिए की लौ जैसी आँखें, कमर से नीचे तक लम्बे बाल.... कोई उसका नाम जाने बगैर बता सकता था परमजीत कौर यूपी के ज़मींदार परिवार से नहीं बल्कि, अमृतसर के गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी के मालिक की बेटी है. पैदा भले ही अमृतसर में हुई थी पर पली- बढ़ी अफ्रीका में, पिता कि गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी भारत कि सड़कों को छोड़ अफ्रीका की सड़कों पर दौड़ने लगी थी... गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी के पास पचपन ट्रक, साठ ड्राइवर और आठ लोग दफ्तर में काम करते थे ... घर मैं तीन नौकर थे उनके बच्चों के साथ वह कंचे खेला करती थी... घर में अनाज, चीनी, आलू, प्याज बोरियों में और सब्जी फल टोकरों के हिसाब से आते थे... आठ भाई बहनों में वह सबसे बड़ी थी...

सोलहवें साल में कदम रखा ही था मां को उसकी भरी छाती और गिलहरी जैसी कूद- फांद बिलकुल ना भाती थी...उन दिनों सिख लड़कों का अफ्रीका में बड़ा अकाल था ...पंजाब से एक बुलाया भी था जिसने आते ही घोटाला किया और ट्रक का आधा माल हड़प लिया. ...यू पी का ओमकार वहीं पर काम करता था ट्रांसपोर्ट कम्पनी का हिसाब - किताब संभालता था- निहायत ईमानदार और कर्मठ और उसके पिता सरदार सुरजीत सिंह का विश्वासपात्र. ओमकार का ब्याह सोलह साल की उम्र में हो गया था और गौने से पहले ही वह कॉलेज पूरा कर उन्नीस साल की उम्र में रोज़ी रोटी कि तलाश में अफ्रीका पहुँच गया... पहले छः सालों में वह दो बार पत्नी को लाने अपनी ससुराल गया किन्तु उसने ओमकार के साथ अफ्रीका आने से साफ़ इनकार कर दिया क्योंकि परदेस में पति का तो धर्म भ्रष्ट हो चुका था वह अपने देश और माता - पिता के घर में अपना धर्म सुरक्षित रखना चाहती थी... ओमकार ने अब पत्नी से सभी उम्मीद छोड़ दी थी और अपने को अकेला मान लिया था और पिछले पांच वर्ष से वह घर नहीं गया था... सरदार सुरजीत सिंह को ओमकार की नीयत और शराफत पर बड़ा यकीन था. उन्हें मालूम था कि सब छड़े आदमी तो इधर -उधर मुह मारते रहते हैं किन्तु ओमकार ऐसा नहीं था... तभी तो उन्हे परमजीत कौर का लगन उससे उम्र में पंद्रह साल बड़े ओमकार से करने में उन्हे कोई संकोच नहीं हुआ .... माँ को तो वैसे भी वो एक आँख ना सुहाती थी... शनील का सुनहरा गोटा लगा सलवार कमीज़, सिल्क का जरीदार दुपट्टा और सुहाग का लाल चूडा पहन कर परमजीत भी बहुत खुश थी, कम से कम माँ की डांट और गालियों से तो छूटकारा मिलेगा... पर बाउजी ...वो तो उसे बहुत प्यार करते हैं... ओमकार ने लगन मंडप अपने हाथों से, परमजीत के आँगन में खुद तैयार किया था... वहीं पर खिड़की से परमजीत ने ओमकार को पहली बार देखा था उसे वो भला लगा था... ओमकार ने जब सुहागरात को परमजीत को ठीक से देखा तो एकटक देखता रह गया... वह पलंग पर बैठी गोटियाँ खेल रही थी और गोटियों के उछलने के साथ उसकी आखें ऊपर नीचे इस तरह हो रही थी जैसे अंधरे में लालटेन हिलती है उसे देखते ही परमजीत ने गोटियों को तकिये के नीचे छुपा दिया और वह माथे से खिसक आया टीका ठीक करने लगी और हडबडाहट में बिस्तर से उतर मेज़ से चाकू उठा कर बोली "तुस्सी सेब खावोगे ... " वो चाकू उसके हाथ में बंधे कलीचड़े खोलने के काम आया था... कलाई पकड़ते ही स्पर्श कि गुदगुदी से इतना हंस और हिल रही थी उसे डर था कहीं उसे चाकू ना चुभ जाए.. रात गहरी होने के साथ -साथ .. ज्यों ज्यों नजदीकियों की पकड़ मजबूत होती गई उसकी हँसी मंदी होती गई ...

ओमकार ने सरदारजी की नौकरी छोड़ रेलवे में नौकरी ले ली... वो रेलवे क्वाटर में रहने लगे कभी मुम्बासा, तो कभी गिलगिल तो कभी...कम्पाला .. एक दिन जब वो घर लौटा तो वह पेड़ पर चढ़ी पड़ोस के बच्चों के साथ नाशपाती तौड़ रही थी... उसे बहुत डांट पड़ी, ओमकार ने उसपर घर से बाहर निकलने के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया .... कई बार जब वह जल्दी घर लौटता, दबे पाँव छत पर चढ़, चुपचाप देखता वह क्या कर रही है कभी वह पड़ोस में जाती तो पीछे - पीछे उसे बुलाने पहुँच जाता....शाम को आकर वह रोज पूछता वह कहाँ -कहाँ गई और क्यों गई ... परमजीत को लगता ओमकार घर से निकलने के बाद भी अपनी आँखे घर छोड़ जाता है जो उसका हर समय पीछा करती हैं बाईस साल कि उम्र में वह चार बच्चों कि माँ बन गई उसकी गिलहरी वाली चाल कब में गुम हो गई उसे खुद को पता ना चला लेकिन उसके गालों की लाली और आँखों में मासूमियत उसी तरह बरकरार रही...

ओमकार का परिवार ईदी अमीन के कहर से बच अपने महाद्वीप, देश, गाँव, घर और घेर लौट आये ...तब उन्हे नहीं मालूम था कुटुंब का कहर उनका इंतज़ार कर रहा है परमजीत ने धीरे - धीरे वो सभी काम सीख लिए थे जो उसने दो बीघा ज़मीन और मदर इंडिया में औरतों को करते देखा था, वह सुबह चार बजे उठती, गावं कि औरतों के साथ लोटे में पानी लेकर अँधेरे में जंगल जाती, लौट कर चक्की पर गेहूं और चने पीसती, दही बिलों कर मक्खन निकालती, घर और आँगन बुहारती, गोबर हटा बैल और गाय को चारा देती, हैण्ड पम्प से पानी खींच कर भरती, नौकरों के लिए मिस्सी रोटी, बच्चों के लिए परांठे चूल्हे पर बनाती, फिर पानी गर्म कर, बच्चों को नहला- धुला कर स्कूल भेजती. फिर बिटोडे पर गोबर भी पाथने जाती....खेत पर कभी वह रोटी देने नहीं गई, ओमकार अक्सर सवेरे ही साथ ले जाया करता था, रेलवे कि नौकरी में रोज टिफिन ले जाने कि उसकी आदत यहाँ भी बरकरार रही...

दोपहर में यदि वो थक - थका कर लेट जाती तो जेठानी कभी चारा काटने कि मशीन चालू कर देती या रेडियो उंचा सुनने लगती, शाम को वह खाना बनाने बैठती तो जेठानी छाछ को उछाल - उछाल कर गेहूं और दालें साफ़ करने लगती और वह भिगोना और परात को उड़ती धुल से बचाने कि कोशिश में जुट जाती... जेठानी खाना अलग बनाती क्योंकि जब कभी ओमकार शहर जाता बच्चों के लिए अंडे लाता जिन्हें वह उबाल कर बच्चों को दिया करती थी ... वह कितना भी अंडे के छिलके छुपा ले किन्तु वो सफ़ेद दुकड़े जेठानी की नज़रों को ढूंढ लेते थे ... वो आस -पड़ोस की औरतों के लिए कभी अंडे के छिलके मुर्गी की हड्डी तो कभी गाय की हड्डी बन जाते... गाँव के बड़े- बूढे, नौजवान, ब्याही, बिन ब्याही औरतें, मेहमान और बच्चे सभी में वह " पंजाबन " के नाम से जानी जाती... यहाँ तक कि उसके चारों बच्चों के नाम भी एक हो गए वे स्कूल और स्कूल से बाहर वो चारों " पंजाबन के" कहलाने लगे ... क्योंकि वह गावं वालों से अच्छा पहनते थे... अच्छा खाते थे इसलिए वह "पंजाबन के" भी ज्यादा कहलाते थे...


जेठ को उसका पका खाना बहुत पसंद था कभी बेंगन का भरता, भरवा टिंडे, भुनी भिन्डी, दम आलू, घिया के कोफ्ते, पालक का साग, आलू- बड़ी, मसाला चना, गाजर-मेथी, खीरे का रायता, पुलाव और रोज नयी दाल, अक्सर वो बच्चों को भेज कर दाल और सब्जी मगाते और जेठानी को कोसते " कुछ सीख ले बहू से... आलू टमाटर का घोल बनाते - खिलाते जी ना भरा तेरा.. " दीवाली पर एक बार परमजीत की देखा देखी जेठानी ने भी गुलाब जामुन बनाये जब वह मुह में अखरोट तरह चबे तो सवेरे गाय को खिलाने के काम आये .. परमजीत ने जो कटोरदान भर बच्चों के हाथ भिजवाये थे उन्हे जेठानी ने अपने हाथ के बने कह कर जेठ को खिलाये ....

परमजीत अब सिर्फ सूती साड़ी पहनती थी, जिसे ओमकार दिवाली और होली पर लाकर देता, रेशमी सलवार कमीज़ बक्से में बंद हो गए, हर साल बरसात के बाद उन्हे बक्से से निकाल कर धूप में सुखाती, जेठानी हमेशा सलाह देती दे-दिवा क्यों नहीं देती? क्या करेगी इन्हें संगवा कर? जेठानी की लड़कियों के बड़े हो जाने पर परमजीत ने अपने सलवार कमीज़ उन्हे पहने को दे दिए... परमजीत घर से बहुत कम निकलती थी, जब कभी वह पहन ओढ़ कर बाहर निकलती तो घेर, दालान, हुक्का, छतें, सडकें, कुँए, खेत, टोकरे, पेड़, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, हरियाली, कबूतर उसे पीछे मुड़ - मुड़ कर देखते..

पड़ोस में कुनबे में लड़के की शादी हुई है, दोपहर से ढोलक और गीत गाने की आवाज़ आ रही है... वह घर का काम निपटा कर बनारसी साड़ी पहन कर तैयार हुई, बालों को बाँध कर जूड़ा बनाया, हाथ के नाखूनो में पिन से खुरच कर राख और मिट्टी निकाली, फटे पैरों कि एड़ियाँ रग ड़ी और नाखूनों पर नेल पालिश लगाईं, गले में मां का दिया सोने का हार और कानो में सास की दी हुई झुमकियाँ पहनी , लाल रंग का कश्मीरी कढाई का शाल खोल कर कधों पर डाल लिया.. छः साल की बेटी को नयी फ्रॉक पहनाई, उसकी दो चोटी बना गुलाबी रिबन बाँध दिया.. उसकी अंगुली पकड़ वह ढोलक की थाप की और मुड़ ली .... आँगन खचाखच भरा था .... दुल्हा - दुल्हन कंगना खेल चुके थे ....उनके आगे रखी परात में दूध और उस पर दूब तैर रही थी ... वह बेटी का हाथ पकड़े... बैठी औरतों के बीच दरी का टुकडा ढूंढ पाँव बचा - बचा कर रख रही ... शगुन देने के लिए धीरे - धीरे दुल्हन की और बढ़ रही थी... ढोलक और चम्मच की थाप पर औरतें बधाई गा रही थी.... जैसे ही बधाई समाप्त हुई. ढोलक कि थाप बंद हुई ... " आ गई तू पंजाबन... " उसने पीछे से सुना ... कुछ औरतें हे हे करके हंसने लगी.... परमजीत पीछे मुड़ी और आँगन में तड़ाक की आवाज़ गूंज गई ...और एक मुर्दाई खामोशी छा गई ... जिसको परमजीत की आवाज़ ने तोड़ा ...वो औरतों कि तरफ इशारा कर बोली .. बन्ना गाओ ...चुप क्यों हो गई .... ढोलक फिर से शुरू हो गई और गाना भी ... बन्ने तेरी दुल्हन चाँद सी रे ..... और सभी ने साथ आवाज़ मिलाई ...

परमजीत दुल्हन का घूंघट हटा मुंह देख, शगुन देकर उसके पास बैठ गई और सभी के साथ मिलकर गाने लगी- बन्ने तेरी दुल्हन चाँद सी रे... उसे अपना दुल्हन वाला चेहरा याद आया, गोटियाँ याद आई, चाक़ू याद आया, वह अपने आप से शर्मा गई ....उसके गरम खून कि लाली उसके गालों पर दमकने लगी ...
तड़ाक की आवाज़ सारे गावं पर बिजली की तरह गिरी और उस दिन के बाद किसी ने उसे पंजाबन और उसके बच्चों को पंजाबन का नहीं कहा ..
 
पेंटिंग - गूगल सर्च इंजन से   

Thursday 5 November 2009

कहीं तुम उन्हे मसीहा और दोस्त ना समझ लो....




कैसी हो? जब कोई अचानक बस इतना सा पूछ बैठे तो कई बार ऐसा क्यों होता हैं ऐसे सरल प्रश्न का उत्तर "ठीक हूँ" कहने के बाद भी वो जान लेते हैं कुछ भी ठीक नहीं है वो  सब कुछ जो तुमने नहीं कहा, उन्होंने सुन लिया .... उन्हें तुम्हारे आस-पास उड़ता धुँआ तुमसे भी अधिक साफ़ दीखता है... उस "ठीक हूँ" में उन्हें एक ही वेवलेंथ पर सिग्नल टकराने की संभावना दिखाई देती है... उनके पूछने के ढंग में ऐसा क्या है कि " कैसी हो" सुनते ही मन और आत्मा अपनी जगह से उछल कर हवा में तैरने लगते हैं और वो उन्हे बिना मुखोटे के और निर्वस्त्र देख लेते हैं .. ऐसा क्यों लगता है वह तुम्हारे साथ डिब्बे में सफ़र करना चाहते हैं, खिड़की वाली सीट तुम्हें दे तुम्हारी किताब मांग कर पढ़ना चाहते हैं,... तुम्हारे पाँव की यात्रा कि लम्बाई जानना चाहते हैं... तुम्हारे दर्द की गठरी खुलवा उसमें मुसे पड़े दर्द को इस्त्री कर, जिससे की वो दिल और आँखों को कम से कम चुभे, करीने से लगाना चाहते हैं , .... वो धरकनो के पन्ने पलट, प्यार में मिले जिंदा पलों कि खुशबू सुंघ और उसमे मिले आंसू को गिन तुम्हे पाब्लो नरूदा की कविता सुना, प्यार में खोया विशवास लौटाना चाहते हैं ...वो तुम्हारे नैन- नक्ष पर फितरे कस माथे के बलों की जगह तुम्हारे चेहरे पर हंसी की खेती करना चाहते हैं ... वो तुमसे तुम्हारे गुनाह उगलवा उन्हें तराजू में रख तुम्हारा पलड़ा अपने से हल्का बता डंडी मारना चाहते हैं... वो तुम्हारे बचपन में लगी चोट के निशाँ की कहानी कोरी किताबों के पन्नो को सुनना चाहते हैं ... वो जिन्दगी और दुनिया से मिली ठोकरों का बेंक बेलेंस जानकार तुम्हारा अकाउंट खाली करना चाहते हैं... वो गुमी खुशियों कि चाबी ढूढना छोड़ तुम्हारे अंतर्मन का ताला पतझड़ और पर्वतों से तोड़ना चाहते हैं... वो सपनो की ताबीर को नींद से बाहर निकाल तारों से उनकी सिफारिश करना चाहते हैं... वो तुम्हे घर की खिड़की से सुरज कि दस्तक और चांद की चाशनी चखाना चाहते हैं ... वो तुम्हारी जिंदगी में हवा के झोंके कि तरह आकर, शाम की घूप की तरह सिमटना चाहते हैं वो तुम्हारे खामोशी को सरगम दे तुम्हारा साज़ बनना चाहते हैं, वो तुम्हारा आकाश ढूंड, वहां पर लिखा तुम्हारा नाम  पढ़वा उसका कोना तुम्हारी अंगुली से बाँधना चाहते हैं वो दराज और सपनो में कैद कुलबुलाहट को पंखो में बदलने का नुस्खा तुमसे बाँटना चाहते हैं ...

कहीं तुम उन्हे मसीहा और दोस्त ना समझ लो, उनके दिए-लिए पर अपना हक़ ना मान लो ... वो तुम्हे ढूंढ कर तुम्हे वापस लौटा, रूमी और हाफिज़ को तुम्हारा सगा बना, वर्तमान और भविष्य को तुम्हारे हवाले कर, मुस्कुराते हुए तुमसे विदा ले, तुमसे दूर जाना चाहते हैं ...

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Tuesday 20 October 2009

नीले आसमान से स्लेटी बादल घुमड़- घुमड़ कर उसकी ओर आ रहे थे....



धूली धुप की तरह पीली, शीशे की तरह पारदर्शी, बरसात के टपकते पानी की तरह साफ़, अभी- अभी गिरी बरफ की तरह सफ़ेद, बिना बादलों के आकाश की तरह नीला, बिजली की रौशनी पहले और गड़गडाहट बाद, होटों से कही हाँ और ना, पन्नो पर पुते तथ्यों का आगाज़ ... वो जिंदगी को ऐसे ही देखता है ब्लेक एंड व्हाइट में.. पिछले तीन सालों से आजतक वृंदा को नहीं मालुम पुष्कर बीच के रगों को देखने में सच में ही असमर्थ है या वो उन्हें देख कर अनदेखा करना उसकी फितरत है ...
"तुम्हे कभी चिंता नहीं होती लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे.. कल रात तुमने फोन अपनी माँ को पकड़ा दिया " से हाय तो पुष्कर माँ ... तुम्हे मालुम है रात का एक बजा था उस समय!"
"तुम मुझे इतना देर से फोन क्यों करते हो? मेरी माँ बहुत साफ़ और खुले दिल की औरत है उसके पास तुम्हारी तरह फालतू बातें सोचने का वक्त नहीं .. क्यों अपना दीमाग खराब करते हो दुनिया के बारे में सोच कर?"
"तुम लड़की हो मुझे तुम्हारी बदनामी की चिंता होती है.."
"तुम्हे मेरी चिंता करने की कोई ज़रुरत नहीं है आई कन् लुक आफ्टर माइसेल्फ़... तुम अपने माता - पिता के आदर्श बेटे, कालेज के आदर्श विधार्थी और मेरे आदर्श दोस्त बने रहो.. यही तुम्हे सूट करता है"

वो किसी तरह से भी डाक्टर बनना चाहता है , यह उसके अलावा उसके माता - पिता का भी सपना है.. . ग्रेजुएशन के बाद भी लगा रहा, जब देश में दाखला नहीं मिला तो विदेश चला गया... जाने से पहले पुष्कर ने वृंदा के जन्मदिन पर उसकी ख़ुशी के लिए बहूत कुछ करना चाहा..वृंदा को उसकी दी ख़ुशी स्वीकार करने में कोई आपति ना थी लेकिन पुष्कर ख़ुशी बटोर कर उसके कदमो में डालना चाहता था और दुनिया के डर से उस ख़ुशी में शामिल होने से उसे एतराज़ था... व्रंदा ने जब उसकी दी ख़ुशी को स्वीकार करने से मना कर दिया तो उनकी अहम् की लड़ाई में दोस्ती कुर्बान हुई ... उस शख्स का क्या करे जो जिंदगी की दस्तक को अनसुना कर दुनिया के दिल टटोलता फिरता है ... फिर भी इंसानियत और शिष्टाचार की इज्ज़त रखना दोनी ने अपना धर्म समझा, जन्मदिन और नए साल पर वो एक दुसरे को शुभ कामनाएं भेजते रहे..

आर्किटेक्ट का लंबा कोर्स समाप्त कर व्रंदा एक प्रतिष्टित फर्म में नौकरी करने लगी ...
वृंदा ने भरपूर जिंदगी जी, उसने कभी अपनेआप को अकेला महसूस नहीं किया.. किसी से मिलने और अपनी जिंदगी में शामिल करने का कभी कोई अवसर नहीं गवाया... वह हर उन अवसरों और पार्टी में मोजूद होती... जहाँ किसी से मिलने की गुंजाइश होती, हर उस उम्मीदवार से मिली जिसको उसकी माँ ने चुना, आफिस की केन्टीन में आसपास मंडराने वालों पर भी वह उदार रही और कोई भी डेटिंग के किसी अवसर को उसने नहीं खोया... वो अलग बात है ... कुछ उसके कंधे तक आते थे, कुछ उसके आत्मविश्वास से घबराए, कुछ उसके फेमिनिस्ट विचारों से दूर भाग गए, कुछ ने उसकी आँखों की गहराई से ज्यादा पे पेकेट में दिलचस्पी ली, कुछ उसे फर्नीचर की तरह अपने घर में सजा कर रखना चाहते थे, कुछ एक दुसरे को जानने से पहले अपनाने को आतुर थे, तो कुछ सिर्फ गुड टाइम के लिए साथी बने , कुछ उसके सुंदर चहरे और कमसिन देह को छोड़ बाकी सब कुछ बदलना चाहते थे... उन सब की वह परिचित बनी, अच्छी दोस्त बनी, और कभी दूसरो ने उसे अजनबी बना दिया या कभी अनजाने में उसने...

पुष्कर को वापस लौटे साल हो चला है ... दोनों अपनी जिंदगी में मशगूल हैं ... वृंदा ने सोशलाइज़िन्ग के अलावा कई और शौक पाल लिए हैं जैसे हर तीन महीने बाद छुट्टियों पर जाना , हफ्ते में एक बार सालसा क्लास के लिए जाना, जन्मदिन और शुभ अवसरों पर दोस्तों और घरवालों के लिए खुद हाथ से ग्रीटिंग कार्ड बना कर देना, इतवार को ब्लाइंड स्कूल में जाकर अंधे बच्चो के साथ खेलना, शनिवार को कोचिंग स्कूल में पढ़ाना, इसके अलावा जो समय बचा फेसबुक और किताबों में मुह दे लेना .... उसके चेहरे की ताजगी और मन की चंचंलता समय के साथ निखरती रही, खुश रहने का तो उसे वरदान मिला था... वो जहाँ जाती जाने के बाद भी उसकी हंसी हवा में गूंजती ... जिंदगी का कोई ऐसा पल नहीं छोड़ा जो उसने जीया ना हो... जिन्दा पलों की चाबी उसकी अँगुलियों में हर समय झूलती...

कभी कालेज के दोस्त पुष्कर को लेकर मज़ाक करते तो वृंदा मुस्कुरा कर कहती "मैं चाहती हूँ उसकी खूबसारी गर्ल फ्रेंड हो जो उसके दिमाग से दुनिया का डर निकाल सके, वो मिस्टर सेक्रिफाईस से मिस्टर सक्सेसफुल बने... पार्टी में सबसे शर्मीली लड़की का हाथ थाम उसे डांस फ्लोर पर ला सके, अपनेआप को आईने में देख कर मुस्कुरा सके, आँखों से काला चश्मा उतार आसमान को देख सके, वो मुझे कहीं मिले तो कहे आई डोंट लाईक यौर मिस्टर राइट " ... और वह खिलखिला कर हंस देती ..

माँ कभी उदास होती तो वह गले में बाहें डाल, आखों में आँखे गडा कहती " अरे माँ तुम चिंता ना करो तुम अपने नातियों को अगले साल गोद में खिलाओगी ... वैसे तुम मेरे साथ कब रहना शुरू करोगी मेरी पलटन को कौन देखेगा जब मैं आफिस जाउंगी ..." दोनों की हँसी दीवारों से टकराती ...
उसके मोबाइल फोन पर दोस्त का एस एम् एस है ... पुष्कर मिला था, बरिस्ता में, तुम्हे जानकार ख़ुशी होगी वह अभी भी सिंगल है और उसकी कोई गर्लफ्रेंड भी नहीं है...
उसने खिड़की से बाहर फैले अँधेरे को देखा... आखों के रास्ते वो उसके भीतर और आस-पास उतरने लगा ... क्या अभी भी वो ब्लेक एंड व्हाइट जिंदगी जीता है? जीवन के रगों के प्रति कलर ब्लाइंड है ?... अपनी इच्छा को दराज में बंद कर दुनिया की ख्वाइशों में जीता है? ..इर्द -गिर्द बिखरे जिंदा पलों को अनदेखा कर पलकें मूंद लेता है ... धरकनो की आवाज़ में भी ट्रेफिक का शोर सुनता है, आज और अभी को ठुकरा कर कल और परसों में जीता है... इस अँधेरे से निकल भी ना पाई थी की सोचते-सोचते दुसरे अंधरे ने आँखों को घेर लिया और पता ही चला कब पहला अँधेरा उसे अकेला छोड़ खिसक गया ...
सुबह जब आँख खुली तो उसके मोबाइल फोन पर अनजान नंबर से दो मिस काल थे और एक अस ऍम अस ... मैं कल तुम्हारे शहर आ रहा हूँ तुम्हे डेट पर ले जाने... अपनी सभी डेट्स केंसल कर दो... पहुँच कर फोन करता हूँ ..पुष्कर
व्रंदा ने खिड़की से बाहर देखा नीले आसमान से स्लेटी बादल घुमड़- घुमड़ कर उसकी ओर आ रहे थे....
 
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Wednesday 30 September 2009

एक शाम की भूख और पचास हजार की रोटी..



पता नहीं क्यों उसे लगने लगा है परिवार में उसका अस्तित्व ऐसा ही है जैसे शेल्फ पर रखी किताब का है, दीवार पर लगी घड़ी का है, मेज पर रखी चाबी का है, धुप में काले चश्में का है, बरसात में छाते का है, जाड़े में गर्म कोट का है ...वो सभी अमूर्त और अद्रश्य रहते हैं जब तक उनकी ज़रूरत नहीं पड़ती ... पर उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है परिवार के सपने पूरे करने के लिए उसने अपने सपनों का साथ तो उसी दिन छोड़ दिया था जब कालेज की नौकरी छोड़, पत्नी के भाई के साथ बिजनेस शुरू किया था.. किसी के दबाव में आकर नहीं .... यह सब कुछ उसने स्वेच्छा से किया था...अपनों को खुश रखने और उनकी ख्वाइशे पूरी करने कि कोशिश में वह रेल के इंजन की तरह हो गया है उसमें खुद को झोंकता है और गाड़ी उसी और चलती है जहाँ पसिंजर जाना चाहते हैं ...उसके लिए यह सब अपनी पटरी, दिशा और स्टेशन की ओर चलने से कहीं अधिक आसान है ...


वह एक सप्ताह बाद बिजनेस टूर से लौटा है...घर के लोग उसके आगे- पीछे घूम रहे हैं पत्नी को याद करने कि फुर्सत उसे नहीं मिली थी किन्तु आज उसका अपनापन देख ग्लानी हो रही है... वह फोन पर भी कितना रुखा और उदासीन था ... ऐसा बहुत समय बाद हुआ है वह घर लौट कर अपनों के बीच खुश है आज ऐसा लग रहा है वह अपने घर नहीं किसी और के घर सात वर्ष बाद लौटा है... आज एक और विशेष बात है उसकी प्लेट में नौकर के हाथ कि नहीं बेटी के हाथ कि बनी रोटियां उड़न तश्तरी की तरह उतर रही हैं है, गोल नहीं है, अलग-अलग प्रान्तों के नक्शे हैं यह कश्मीर का नक्शा है सफ़ेद और मुलायम, यह उतरांचल का है थोड़ा उबड़- खाबड़ , यह पंजाब का लगता है कुछ ज्यादा करारा किनारों से थोड़ी मोटा, तोड़ने में सख्त है पर स्वाद में वाह ! आज बेटी इतनी बड़ी हो गई है और सबसे बड़ी बात यह कि वो रसोई कि तरफ मुडी है ओर पिता को गरम रोटी खिला रही है ... वो तीन रोटी खाता है किन्तु बेटी के आग्रह पर आज चार रोटी खाई हैं और रोटी के रंग, रूप और स्वाद की तारीफ़ वो खाना ख़त्म करने बाद भी करता रहा...

वो जेब में हाथ डाल रहा था.. फिर अचानक पूछ बैठा...

"बरखा बेटा! कुछ देना चाहता हूँ?"

"नहीं पापा! कुछ नहीं चाहिए! "

उसके जवाब से वह और उदार हो गया और बोला "तुम्हारा मोबाइल ठीक से चार्ज नहीं होता, जन्मदिन से पहले ही तुम्हें नया मोबाइल दिला दूंगा "

बरखा का चेहरा और आँखे चमक उठी "पापा मैंने पांच हजार तो जमा कर रखे हैं बाकी आप दे देना .. मुझे आई-फोन चाहिए, बिजनेस टूर पर आप जब सीन्गापुर जायेंगे तो वहां से लेकर आना "

"ठीक है ... मुझे तुम्हारे हाथ कि रोटी पहली और आखरी बार तो नहीं मिल रही न?" दोनों जोरों से हंस दिए..


सोने से पहले उसका सेल फोन बजा.. उसे ख़ुशी हुई उदित का फोन है.. नहीं तो वह मोबाइल का बिल बचाने की वजह से वह घर वालों से ही उम्मीद करता है ...
"बेटा कालेज कैसा चला रहा है ?"

"पापा फर्स्ट क्लास "

"कालेज के अलावा क्या हो रहा है?"

"पापा मैं आजकल रोटियां बनाना सीख रहा हूँ जब छुट्टियों में घर आउंगा तो आपको अपने हाथ कि रोटी खिलाउंगा .."
"तू फ़िक्र मत कर मैं तेरे हाथ कि रोटी बिना खाए ही तेरे अकाउंट में रुपये डाल दूंगा... " उसने हंस कर कहा ...

"पापा दस हज़ार चाहिए....मुझे कालेज के फंक्शन....." .

"कल ही डाल दूंगा उसने बात काटते हुए कहा...ज्यादा कि ज़रूरत हो तो बताना.."

"नहीं पापा काफी होंगे.. पर मैं आपको अपने हाथों से रोटी बना कर जरुर खिलाउंगा.. "

दोनों हंसते हुए एक दुसरे को बाय कहते हैं ....  


"अरे यह क्या?" पास बैठी पत्नी बोली? उसने हैरानी से उसकी तरफ देखा...

"मैंने तुम्हारे लिए बीस साल तक रोटियां बनाई ... तुमने मुझे क्या दिया?"

"अरे! सब कुछ तुम्हारा ही तो है...."

"बस! हमेशा कि तरह हवा में बात! ...."

"ठीक है तुम्हें क्या चाहिए? "

"सिर्फ एक हीरे कि अंगूठी "

"बीस साल के सिर्फ बीस हज़ार... कल केश ला देना"

वह हंस कर बोली उसके चेहरे कि फीकी सी मुस्कान ने पत्नी की हंसी का साथ दिया...


उसे यकीन हो गया वह होटल से अपने घर लौट आया है...

अब उसे किसी के हाथ की रोटी खाने कि इच्छा नहीं होती ... नौकर के हाथ की रोटी अच्छी लगती है क्योंकि उनमें नोटों की महक थोड़ी कम आती है...

फोटो- गूगल सर्च इंजन से   

Thursday 17 September 2009

उनकी नीली आँखों में अनगिनत किरणों की रौशनी....



समुद्र कि लहरें उनके पाँव को चारों तरफ से चूमती हैं..उनकी घुटनों तक मुडी जींस को छू कर लौट जाती हैं उन्हें दोबारा भिगोने के लिए ... समुद्र ने सूरज को अपने भीतर छुपाने से पहले हाथों में ऊपर उठा रखा है ताकि सब उसे गौर से देख लें...आज की तारीख का सूरज देखने का यह आखरी मौका है... उसका रंग पीले से नारंगी हो चला है .. पर्यटक अपनी चटाई, तौलिये, फ्लास्क, छतरी, सेंडविच बॉक्स समेट रहे हैं ... घोड़ेवाला बच्चों को घोड़े पर आखरी सवारी दे रहा है ... आइसक्रीम वाले के पास अब सिर्फ वेनीला और मिंट फ्लेवर की आइसक्रीम बची है, तट पर चार पांच साल का लड़का रेत का महल पेरों तले रोंद कर खुश हो रहा है और उसकी बड़ी बहन उसकी दीवारें और छत बचाने कि कोशिश में उसे धक्का दे रही है.... उनकी माँ चिल्ला रही है उसे रोंद लेने दो वैसे भी लहरें बहा ले जायेंगी यह महल... तट पर हलचल कम होने लगी है तो सामने सड़क पर बढ़ गई है और सड़क के उस पार दुकानों पर दिवाली जैसी जगमगाहट है ... 
 

रेचल पहली बार अपने गाँव से बाहर निकली है उसका गाँव यहाँ से अस्सी किलोमीटर कि दूरी पर है, इससे पहले उसने चहल- पहल गाँव में हर रविवार लगने वाले बाज़ार में देखी है यहाँ पहली बार उसने समुद्र और शहर कि जगमगाहट देखी है गाँव में एक ही बेकरी है रेचल उसमें काम करती है जहाँ पर हर रोज राबर्ट लंच टाइम में सेंडविच और केक खर्रेदने आता था ... रॉबर्ट गाँव से बाहर एक ऊन की फेक्ट्री बन रही है उसमें क्रेन चलाने का काम करता है उसे पढाई छोड़ देनी पड़ी क्योंकि सोलह वर्ष के होते ही उसके पिता ने खर्चा देने से इनकार कर दिया ...


रेचल को जो भी सीपी नज़र आती है वो उठा लेती है और उसे रॉबर्ट कि कमीज़ की जेब में डाल देती है... उसके क़दमों के साथ सीपियाँ छनक रही हैं पार्श्व में लहरों का संगीत सातवें स्वर में उनका साथ दे रहा है ढेर सारा जीवन बिखरा पड़ा है गिले रेत पर पाँव के निशाँ में, लहरों में उबलते बुलबुलों में, हवा के साथ डोलते जहाजों में, नीले पानी में घुलती किरणों कि लाली में, आकाश में उड़ते परिंदों कि कतारों में, सड़क पर झिलमिलाती रौशनी में, केफे से उड़ती मछली कि महक में, एमुज्मेंट की मशीनों से आते शोर में .... वे समेट रहे हैं यह जीवन रेत में पड़ी सीपियों के साथ अपने ख़्वाबों में ....


दोनों थक कर बेंच पर बैठ जाते हैं .... रेचल का गुलाबी रंग नारंगी रौशनी में चमक रहा है दोनों की नीली आँखे डूबते सूरज की अनगिनत किरणों को सोख रही हैं .... रेचल ने अपना सर रॉबर्ट के कन्धों पर टिका लिया है दोनों की उम्र उनीस वर्ष है यह उनके हनीमून का आखरी दिन है... उनकी आँखों में वो सभी ख्वाब दस्तक दे रहे हैं जो प्यार के समुद्र में गोता लगाने आसमान से उतर कर आते हैं फिर नींद में बस जाते हैं ... उन्होंने फैसला किया है उनके कुछ ख्वाब नींद से ज़मीन पर उतरेंगे ... वह शादी कि पच्चीसवी सालगिरह यहीं मनाएंगे इसी तट पर, इसी बेंच पर, यहीं सूरज के सामने ... वह दो बच्चे अगले दो वर्ष में पैदा करेंगे...उन्हे एक साथ पाल-पोस कर बड़ा कर... वह रेचल का दुनिया घुमने का सपना पूरा करेगा ... वहां से लौट कर वह यूनिवेर्सिटी में दाखला लेगा और डिग्री की पढ़ाई पूरी करेगा ....



आज वो दोबारा से उसी बेंच पर बैठे हैं राबर्ट के माथे के ऊपर से सर से कुछ बाल उड़ गए हैं और रेचल के बाल कुछ ज्यादा सुनहरे हो गए हैं एक वर्ष पहले उनका तेईस वर्षीय बेटा माइकल इराक़ कि लड़ाई में मारा गया.. वह पेट्रोल से भरी लारी चला रहा था जिस पर किसी ने हेंड ग्रेनेड फेंक दिया...बेटे कि जगह उन्हे सरकार से कुछ पैसे, उसका सूटकेस और उसके दोस्तों से आखिर के दिनों में खींचे फोटो मिले ... उसकी गर्भवती पत्नी एलिक्स को गहरा सदमा लगा छ महीने  बाद बेटे के जन्म के समय उसे ब्रेन हेमरेज हो गया.... उनकी बेटी लिज़ जो माइकल से एक साल बड़ी है बचपन में दादा के फार्म पर जाकर रहा करती, उसके दादा ने उसका यौन शोषण किया, उस दर्द से छुटकारा पाने के लिए उसने हिरोइन का सहारा लिया, जब वो माँ बनी उसे बच्ची के पिता का नाम तक ना मालुम था... अपनी बच्ची को वह बहुत प्यार करती थी .. अपने आप को काबिल माँ बनाने के लिए वह एक वर्ष रिहाब में रही....फिर भी सोशल सर्विस ने बेटी को चिल्ड्रेन होम से माँ के पास नहीं लौटने दिया .. लिज़ वर्तमान से दूर भागने के लिए फिर से जाने- पहचाने पुराने रास्तों की तरह मुड़ ली ... राबर्ट और रेचल को नातिन की कस्टडी के लिए कोर्ट में केस करना पड़ा जिसे वह दो साल बाद जीत गए....



आज भी चारों तरह बहुत सारा जीवन बिखरा पड़ा है राबर्ट कि गोदी में एक जीवन आँखे मूंदे दाये हाथ का अंगूठा चूस रहा है और दुसरा जीवन रेचल और रॉबर्ट के बीच बैठा बाये हाथ की अंगुली उठा -उठा कर मुश्किल से मुश्किल सवाल पूछ रहा है जिसका वो बारी - बारी मुस्कुरा कर जवाब दे रहे हैं ... आज भी समुन्द्र उनके पेरों को चूम रहा है, सूरज को उसने हाथों में उठा रखा है ... राबर्ट के हाथ रेचल के कंधे पर है उनके सपने भले ही फिर से पचीस साल के लिए सूरज के साथ समुद्र में छिप गए हैं किन्तु पचीस साल पहले किया सूरज और समुद्र से इस बेंच पर मिलने का वादा उन्होंने निभाया है... आज भी उनकी नीली आँखों में अनगिनत किरणों की रौशनी है जो उन्होंने दशकों पहले सोखी थी .. 
 
फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Thursday 3 September 2009

"आई हेड ए वेरी लांग डे!....."


उसकी आँख खुली और घड़ी की और मुड़ गई... कमरे के भीतर अँधेरा वैसा ही बिखरा पड़ा था जैसे सोने से पहले था... इस मौसम में सूरज का अलार्म बजने से कोई लेना-देना नहीं है और ना ही सूरज ने रौशनी देने की गारंटी दी है की वह स्कूल और आफिस बंद होने तक रौशनी देता रहेगा... बिना चमक के, बिना पीले रंग के, बिना ऊष्मा के वह बादलों के पीछे छुप कर भी अपने होने का अहसास दिला देता है ताकि दिन और रात पर उसका विश्वास कायम रहे.. ...

उसके दिमाग का अलार्म अक्सर घड़ी के अलार्म को हरा देता है और आज भी यही हुआ... शरीर रजाई से बाहर निकालने कि इजाज़त मांग रहा है जो उसे रोज़ कि तरह नहीं मिलती...हाथ पैरों को दीमाग का आदेश जरूर मिल जाता है जिसे वो कभी नहीं ठुकराते... एक झटके से रजाई पलंग के दूसरी तरफ फेंक... बैठ जाती है उसके पाँव स्लीपर तलाशते हैं वो गाउन लपेटती हुई दुसरे कमरे में झाकती है... रजाई का ढेर ज़मीन पर कुंडली मारे बैठा है.. उसके ऊपर स्पाइडर मेंन सो रहा है और सुपरमेन घुटने पेट में दिए , पलंग के किनारे बिस्तर की चादर के नीचे सिमटा पड़ा है यदि वो जरा सा भी हिला तो बेचारा स्पाइडर मेंन उसके भार तले दब जाएगा ...वो अपने कमरे से गर्म रजाई ला उसके पाँव, कमर, पेट और कन्धों के नीचे दबा देती है ...चार वर्ष के सीखियाँ पहलवान, सुपरमेन की हड्डियों के नीचे रजाई टेंट कि तरह तन गई.. उसके ठंडे नर्म गाल पर अपनी गर्म हथेली रख दुसरे हाथ से स्पाइडर मेंन उठा वही पास के स्टूल पर टिका देती है .. उसकी नज़र सुपरमेन के मासूम चेहरे पर टिकी है बाल काटने के बाद उसके कान कितने बड़े लगते हैं सुपरमेन का विरासत में मिला नाम इसके कान के अनुरूप है "कपिल"...

रात दोनों तय करके सोये थे सुबह क्या करना है समझोता मज़बूत करने के लिए उसने बकायदा रिश्वत दी है... सोने से पहले दो कहानी ज्यादा सुनाई थी... वापस लौटने के बाद मेक्डोनाल्ड में बर्गर और शाम को "हल्क" फिल्म ... और इस नेगोसिअशन के दौरान उसके नन्हे से मुख से निकले शब्द ... परहेप्स... इनडीड... ..फॉर एक्साम्पल....एब्सोलुत्ली.. बट... बिकाज़.... लेट मी थिंक... इट्स नाट फेयर....लेट मी पुट दिस वे.... . नींद आने के बाद तक भी उसके कानों में तैरते रहे... उसने डेढ़ घंटे के भीतर पंद्रह वर्ष अनुभवी बेटियों की माँ कि वो सभी धारणाएं और ग़लतफ़हमीयाँ दूर कर दी जो उसने बेटों के पालने के बारे में पाल रखी थी. .

किताब और तौलिया उठा वह बाथरूम में घुस गई ... जब गीले सर बाहर निकली तो पर्दों के बीच से छनती रौशनी अंदर और बाहर से मिटते अँधेरे का ऐलान कर रही थी...अँगुलियों ने परदे का कोना पकड़ा और जोर से खींच दिया ...परदों कि रेलिंग और रिंग्स के बीच बजती खनक के साथ उसने कमरे में झाँका.. रजाई के टेंट में कोई हलचल नहीं हुई ...सुपरमेन के कमरे में आकर भी यही किया... कमरे में बिखरे उजाले और परदों के खिसकते से सोने वाले कि आँखों का कोई सरोकार ना था ...उसने खिड़की से बाहर झांका ... सूरज बिना दिखे भी आकाश का रंग बदल रहा है ...घास ने स्लेटी रंग कि चादर ओढी है ....मोर पंखी के पेड़ सावधान कि स्थिति में खड़े हैं पेड़ पर चिड़िया सेव कुतर रही है पेड़ के नीचे ऐसे ही कुतरे हुए कुछ सेव पड़े हैं.. पीछे के घरों की कतार में एक घर के भीतर बती जल रही है और उस घर के सामने से एक बस गुजर रही है उस बस के अलावा सुबह कि शान्ति अपनी पूरी तरंग से विराजमान है जिसे वह हेयर ड्रायर लगा बड़ी बेहरहमी से कुचल देती है.... वारड्रोब का दरवाजा खोलने और आज कि डायरी के पन्ने का आपस में गहरा सम्बन्ध है उसने काली गर्म पतलून, सफेद और काली बारीक धारी का पूरी आस्तीन का ब्लाउज और पतलून के साथ की मेचिंग जेकेट... मौसम के साथ-साथ कलर और कलर कोर्डिनेशन बोर्ड रूम की मांग भी है...

ड्रेसिंग टेबल के सामने मोस्चराइजर की ट्यूब दबाते हुए वह आवाज़ लगाना शुरू करती है .. उसके हाथ रजाई के टेंट को आगे पीछे हिला रहे हैं और चार-पांच बार हिलने के बाद सुपरमेन का मासूम सा चेहरा बिना आँखे खोले तकिया छोड़ हवा में झूल रहा है उसकी छाती पर चिपका सुपरमेन टी शर्ट की सिलवटों से निकलने कि कोशिश कर रहा है अचानक उसकी आँखें खुली दो बल्ब टिमटिमाये .. जैसे वो कभी सोये नहीं थे .. "बुआ आई फाउंड माई मिंटू" ... "मिंटू कौन?"... " माय लोस्ट रेबिट..हाओ केन यू फोरगेट मिंटू बुआ?".... .. .. वो अपनी नन्ही- नन्ही हथेलियों को हवा में उछाल कर, बंद- खोल कर उसे समझा रहा है ..."आई वाज़ चेजिग हिम आल नाईट.".. "वन मोमेंट ही वाज़ इन माई हेंड... अदर मोमेंट ही वाज़ गान" ... वो बिना पलक झपके बोल रहा है मुख से ज्यादा उसकी मोटी- मोटी आँखें बोल रही हैं उनमें तैरता हुआ मिंटू एक्वेरियम में मछली की तरह साफ़ दिख रहा है .... वह अपनी कलाई उठती है और आँखें भागते समय को पकड़ती है... इससे पहले वो कुछ कहे वह मुह खोल..आँख बंद कर.. जम्भाई और अंगडाई लेता हुआ धीरे से बुदबुदाता है "आई हेड ए वेरी लांग डे!....." और जिस तेजी से उसका चेहरा तकिये से हवा में उछला था उसी तेजी से वह चेहरा तकिये पर आखें मूंदे पसर गया है और सुबह की रौशनी में कमल की तरह खिल उठा है ... उसके होठ उसके गालों को चूमते हैं...

वह दो फोन लगाती है एक अपनी पी ऐ को और एक बेबी सीटर को... कपड़े बदल वह धीरे से उसकी रजाई में सरकती है.. आँखे मूंद आहिस्ता से उसके सपने में झांकती है रजाई के भीतर कस के सुपरमेन का हाथ पकड़ लेती है... आज वह दोनों मिंटू को पकड़ कर ही रहेंगे...

foto from - www.karanfincannon.com

Friday 21 August 2009

गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.....

पता नहीं क्यों उसे लगता था अपने खून के कतरे से वो उसी तरह वाकिफ है जैसे अपने आँखों के रंग से, ठोडी के नीचे पड़े निशाँ से, हाथों पर उभरती नसों से, कलाई पर घडी के नीचे गोलाई में पड़े घेरे से, बालों में उम्र दर्ज करती स्लेटी चमक से, दीमाग में रोज के लिए लिखी टू-डू लिस्ट से, शाम को दबे पाँव आकर पैरों से लिपटती थकान से, रात को सोने से पहले कुछ देर किताब के पन्ने पलटने की तलब से, समय-असमय अतीत कुरेदती यादों से.....बाहर से तो अब भी वह लाल नज़र आता है किन्तु भीतर से कब में वो सफ़ेद हो गया?...अब तो सफ़ेद उजले पंख भी निकल आये हैं उसके...आसमान के नीचे ज़मी पर सभी छोटे और पिछड़े नज़र आते हैं.. ..

मोटी- मोटी आँखे, लम्बी गर्दन, गोल चेहरे पर नीचे निकली तिकोनी ठोडी, लंबी मोटी नाक कोई एक को देखकर दूसरी को पहचान लेता है ... जो पाँव बचपन में अंगुली पकड़ दोड़ते थे अब बड़े होने पर नाट्यडव और अडव सीखने के लिए होम वर्क छोड़, चूडीदार पहन उसका इन्जार करते और वो शाम को आफिस के बाद रसोई छोड़ टेक्सी किया करती, उसे उतार कर कम्यूनिटी सेंटर के कार पार्क में आफिस की फाइल को पहले तो बिना खोले घूरती फिर खोल कर... दोनों दबे पाँव घर घुसती... अपराधियों की तरह... कहीं यह सुनने को ना मिल जाए "भरत नाटियम सीखना जरूरी नहीं है पढ़ना जरूरी है"... हाई स्कूल में उसके साथ की लड़कियां पता नहीं क्या क्या कर रही हैं वह तो कभी - कभी सहेली के जन्मदिन में जाने की इजाज़त मांग रही है.. इतवार को मंदिर में कल्चर क्लास, बुधवार को कम्यूनिटी सेंटर में हिंदी और शुक्रवार को गुरूजी के घर क्लास्सिकल डांस..... वह सिर्फ उन लोगों के घर स्लीपोवर कर सकती है जिनके घर के किसी कोने में मूर्ति है या गुरुनानक का कलेंडर है... स्कूल की छुट्टियों में आत्मीयता और दुलार से भरी रिश्तों की छत पर दून घाटी में खुशबू बटोरने का टिकट हर साल....

दो संस्कृति के बीच रहना रस्सा खीचने के खेल के समान है आखिर जीत तो उन्ही की होगी जिस तरफ हाथ ज्यादा हैं जिनके पाँव के नीचे की ज़मी अपनी है हवा अपनी है आसमान अपना है ...वैसे भी किन्डर गार्डन से मैं मैं.... मैं... "सिर्फ मैं" के मन्त्र के सामने शाम की आरती की घंटी की आवाज़ हवा में गुम होनी ही थी... भेड़ के झुंड में भी अपनी अलग पहचान बना कर उनके साथ चलना सीखा सकती है, हजारों मील दूरी से भी अपने जड़ों की मिटटी की खुशबू सूंघा सकती है बेमौसम, बेहिसाब पड़ती बरफ, बिजली, आंधी से बचा सकती है... किन्तु वह उसे इतिहास के हर कोनो में अन्याय को न्याय, जुल्म को खिदमत साबित करती और स्वयं को दुनिया में सर्वेश्रेष्ठ घोषित करती मखमली ज़मी की फिसलन पर चलने से, गिरगिट की तरह रंग बदलते आकाश की चकाचक रौशनी को सूरज मान लेने से... बर्फीली, शुष्क, हड्डियों को भेद आत्मा को सुन्न करती हवा में सांस लेने से नहीं रोक सकती ... संवेदनाओं और भावनाओं को काफी में मिला कर नहीं पिला सकती..

हमेशा से घर की चौखट के बाहर सब पराया था... सड़क, पगडण्डी, घास, रौशनी, अँधेरा, बर्फ, आकाश, लेम्प पोस्ट, घड़ी की सुइयां, आचार- व्यवहार, मूल्य, आहार, चेहरे, शब्द, जुबान, संगीत, आलाप, भगवान् ... अब ऐसा क्यों लगता है चौखट के भीतर की छत, नींव और दीवारें भी पराई हो गई हैं ...क्या उसे मालुम नहीं था उदर की गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.......

फोटो- गूगल सर्च इंजन से

Friday 17 July 2009

कन्वेयर बेल्ट पर उगता अपनी माटी का सोना...

फ्लाईट आये घंटे से ऊपर हो चला था पर उन दोनों का कहीं अता-पता न था... उनके आने की ख़ुशी में उसे ढाई सो मील के सफ़र का पता न चला, पर अब मंजिल पर पहुँच कर एक- एक मिनट घंटो से कम नहीं... वो उसके घर पहली बार आ रहे थे... पिता को तो एतराज़ ना था किन्तु उनकी सरकारी नौकरी इजाजत नहीं देती बेटी के घर महीने भर से ज्यादा रह सकें और माँ को उनका बेटी की माँ होना रोकता था.. चलो दोनों आने को तो राज़ी हुए महीने भर को ही सही.... जिन बातों को अब तक वह चिठ्ठी और फोन पर बताती रही है वो खुद देख लेंगे जैसे सूरज का धरती से अक्सर नाराज रहना और बादलों को धरती से हद से ज्यादा प्यार करना... हर मोसम में जमीन के हर कोने में घास का धुल -मिटटी को जकड़े रहना... टायरों की चीख के बीच शमशान की शांति का सड़कों पर पसरे रहना.. बेचारे गीले कपडों को धुप नसीब ना होना उनका लांड्री की मशीनों में भभकती भाप में झुलसना... पानी के लोटे का बाथरूम के फर्श को तरसना, लोटे से पानी उड़ेल खुल कर नहाने पर पाबन्दी होना... हवा की नमी को विंड स्क्रीन पर सेलोटेप की तरह चिपक जाना और स्क्रेपर के साथ मिल कर बेहूदा आवाज़ निकालना... गाड़ी का पेट भी उसमें से निकल कर खुद भरना.. अनजान बच्चों का सड़क पर चलते चलते "पाकी" बुला कर अभिनन्दन करना...यदि आप सही और गलत वक्त पर थंकयू और सारी न कह पाए तो प्यार भरी आँखों के तीर के दर्द को अपनी नासमझी समझ कर भूल जाना ...

अब उसकी आँखे और कमर दोनों जवाब देने लगे थे ... वो सभी यात्री आने बंद हो गए थे जिनके सूटकेस और बेग पर एरो फ्लोट के टेग हों... कहाँ हो सकते हैं टायलेट में भी इतनी देर तो नहीं लग सकती .. इन्कुआरी पर यह उसका तीसरा चक्कर था ... वो फ्लाईट लिस्ट चेक कर के उसे उसे बता चुके हैं उनका नाम लिस्ट में है... उसका सयम टूटने और चिंता बढ़ने लगी थी...

वह समय की गंभीरता को हल्का- फुल्का बनाने और उसके माथे पर चिंता की लकीरों को गालों के गढों में बदलने के लिए अपने होंठों को उसके कानो के नज़दीक ला धीरे से फुसफुसाया...

"वो कहीं रशिया में अपने दुसरे हनीमून के लिए तो नहीं उतर गए..." और ही.. ही करने लगा... उसने घूर कर उसकी और देखा... ऐसे अवसरों पर उसका सेंस आफ हयूमर उसे चूंटी की तरह काठता है " बिना उससे कुछ बोले वह इन्क्वारी की तरफ बढ़ गई...

वह इन्क्यारी पर गिडगिडा रही है क्या वह बेगेज़ क्लेम तक जाकर उन्हें देख आये.. अब डेढ़ घंटा हो चला था... वो एक स्कुरिटी स्टाफ के साथ उसे अन्दर भेजने के लिए तैयार हो गए ... वह उसके आगे -आगे हो ली... डिपारचर लांज को पार कर साड़ी और पेंट, कमीज़, कोट में दो पहचाने चेहरों को ढूंढने में उसे ज्यादा समय नहीं लगा, वैसे भी वो अकेले ही थे कन्वेयर बेल्ट के पास ... कन्वेयर बेल्ट खाली थी उनके सूटकेस ट्राली में थे ... तभी उसे नजर आया कन्वेयर बेल्ट पर चावल का ढेर उग आया है जैसे ही वह ढेर उनके पास से गुजरता है ... चार हाथ बढ़ कर उस ढेर को बेग में उड़ेल रहे हैं और इन्जार करते हैं धरती के घूमने और सफ़ेद ढेर का फिर पास से होकर निकलने का... वह भाग कर पीछे से जाकर दोनों को बाहों भर लेती है वो तीनो एक दुसरे के कंधे भिगोते हैं...नाक से सू.....सू करते हुए मुस्कुराते हैं एक दुसरे को टीशू पास करते हैं माँ उसे ऊपर से नीचे तक देखती है और शिकायत करती है..

"तू ऐसी की ऐसी... ना सावन हरे ना भादों... लगता नहीं आखरी महीना है कभी तो लगे बिटिया ....." तभी सफ़ेद ढेर पास से गुजरता है वह भी हाथ बढाती है ... माँ पकड़ कर झिड़क देती है "ऐसी हालत में झुकना ठीक नहीं... तू बस खड़ी रह... बहूत थकी लगती है"..

पिता को कहती है सूटकेस उतार दो बैठने के लिए... वह माँ को क्या समझाए ऐसी हालत में वो यहाँ क्या नहीं करती...
" कहा था न इन्हें सूटकेस में भर लेते हैं" माँ शिकायत के लहजे में बोली..

"अरे! मैंने कौनसा मना किया था" पिता झल्ला कर बोले...

"अब क्या फरक पड़ता है वो बेग में थे या सूटकेस में" वो हमेशा की तरह दोनों के बीच रेफरी बनी
वो दोनों से जिद करती है वहां से चलने की ..

"रहने दो... माँ बहूत अच्छा बासमती चावल मिलता है यहाँ"...

"पर यह देहरादून का बासमती चावल है..."
वह स्कुरिटी स्टाफ की तरफ देखती है वो उसकी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए सर हिलाता मुड़ जाता है ...
वह पहाड़ों के बीच घाटी में खड़ी है उसके चारों तरफ धान के खेत हैं वह मुस्कुराते हुए देखती रहती है चार हाथ बड़ी तमन्यता से अपनी माटी का सोना बेग में भर रहे हैं..

उनके हाथों से गुजर अनगिनित सफ़ेद दानों की महक उसके ज़हन में हमेशा के लिए बसने जा रही है...
फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Tuesday 7 July 2009

उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में....

वो दोनों केफे में बैठे हैं बहस कर रहे हैं बहस क्या सिर्फ वही बोल रही है वह चुप है या बीच -बीच में मुस्कुरा देता है आसपास के लोग आँखे बचा उसका लाल और हताश चेहरा पढ़ रहे हैं यह काफी का तीसरा कप है और केफीन उसके भीतर की उथल - पुथल को संतुलित करने के बजाये उसे और उष्मा दे रही है वह उसके लिए पानी मंगाता है उसका मन करता है पानी को गले में नहीं अपने सर पर उडेल ले .... इतने बरसों से उसे जानने के बाद भी उसे लग रहा है आज वह किसी अजनबी के पास बैठी है जैसे पहली बार मिल रही हो ... .... उसके दीमाग में उपजने से पहले, कोई भी भ्रम को उसका विशवास उन्हें विंड स्क्रीन पर पड़ी बारिश कि तरह वाइपर से पोंछ देता था उसने एक बार भी नहीं पूछा क्यों इस बार मुझे जल्दी जाने को क्यों कह रहे हो... ? प्यार और विशवास उसकी ख़ुशी के केडिट कार्ड का पिन नंबर था वह सालों से उसे कहीं भी, किसी भी समय केश करा सकती थी... अब उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में........

वो बार - बार कह रही थी... "तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो? " .. "यदि ऐसी बात थी तो क्यों आने को कहा...क्या इमानदार होना इतना मुश्किल था.... कोई बहाना बना सकते थे नौकरी का, छुट्टी का, तबियत का, हालात का... जरूरी तो नहीं था मुझसे मिलना " ... वो थक गई थी, हार गई थी उसका मौन उसे तोड़ रहा था कुचल रहा था... वो हार कर फिर कहती है "हाव कुड यू ......"

उसने अपना मौन तोड़ा और मुस्कुरा कर कहा "तुम बेवजह भावुक और पोजेसिव हो रही हो ...... आई वोंट माइंड इफ यू स्लीप विद यौर एक्स और सो..... "

उसे लगा आसमान से पत्थरों कि बारिश हो रही है सारे पत्थर उसके सर पर गिरे हैं.... वह केफे से बाहर निकल आई ... बस स्टाप पर खड़ी भीड़ उसे घूर रही है ... वह साड़ी के पल्ले को गले और दोनों बांहों पर लपेट लेती है फिर भी लगा द्रोपदी के चीर की तरह कोई उसकी साड़ी खींच रहा है... धुप, सूरज, आसमान में उड़ता हवाईजहाज, मिटटी में उभरे जूतों और साइकल के पहिये के निशाँ, खम्बा, बिजली कि तारें, ट्रेफिक, दीवार पर चिपका पोस्टर, इधर उधर पड़ा कचरा और खाली बोतलें, सड़क के उस पार बने क्वाटर, रूकती बस और उड़ती धुल.. सभी उसके चारों तरफ घूम रहे हैं गले में एक बड़े धक्के के साथ काफी बाहर आ गई... यकायक सभी कुछ घूमता हुआ स्थिर हो गया... उसके भीतर का कोलाहल भी इस स्थिरता को थामना चाहता है वह पल्ले से अपना मुह साफ़ करती है और पहले से भी तीव्र काफी की गंध के साथ केफे के अन्दर आती है उसके सामने अपनी पुरानी जगह आकर बैठ जाती है और अपने आपको फिर से विशवास दिलाती है उसने सही सुना है...

"एक बात बताओगे .."

"क्या..." वो उसकी और देखता है

"क्या तुम अपनी पत्नी से भी यही कहते? " वो उसकी आँखों में आँखे डाल कर पूछती है

वह एक लम्बी सांस खींच टेबल पर रखे ग्लास को घूर रहा है उसकी खामोशी पहले की भांति जवाब देती है..

वह सामने रखा ग्लास को एक सांस में खाली कर अपने चारों तरफ देखती है उसकी नज़र सामने कि टेबल पर बैठे अधेड़ उम्र के आदमी के साथ सटकर बैठी यूवा लड़की पर पड़ी जिसने बेहद कसी जींस, बिना बाजू और नीचे गले का भड़कीला ब्लाउज पहना हुआ है यूवा लड़की से उसकी निगाह मिलती है वह उसकी और देख लगातार मुस्कुरा रही है....

Painting - Van Gogh

Saturday 27 June 2009

खोई चाबी कि तरह खुशियाँ ज़मीन पर पड़ी....

इन्बोक्स में मुट्ठी भर कोतुहूल छुपा दो, दरवाज़े पर धागे से गुलाब कि पंखुडियों कि पुड़िया बांधों जैसे ही वो दरवाजा खोले, उसका चेहरा एक क्लिक में क़ैद कर लो, गर्मी में अपने हिस्से कि छाया और सर्दी में धुप उसके नाम कर दो, आम कि गुठली खुद के लिए और फांकें उसके लिए छोड़ दो, रात को चुपके से उठ उसकी शक्ल केनवस पर उतार दो, टी वी के आगे सिकुड़ी देह को कम्बल उढ़ा दो, अँधेरे में उसके हाथ की उभरी नस को अंगुली से दबा दो, उसके तिलों और ठोडी के निशाँ को चश्मे बद्दूर बना लो, रेड लाईट पर खरीदा गजरा उसके हाथों में थमा दो, बिना वज़ह अंधरे कमरे में जलती मोमबत्तियों की चादर बिछा दो, जन्मदिन पर खरीदी कोरी किताब के पहले पन्ने पर कविता छुपा दो, खिड़की पर चाँद को बुला उसकी आँखों से अपना हाथ हटा दो, चलते- चलते रिक्शा मोड़ फलूदा कुल्फी कुल्हड़ में पेक करा लो, उसकी बचपन कि फोटो को वाल पेपर बना दीवार पर चिपका दो, भीड़ में उसके लिए जगह बनाने को उससे कदम भर आगे हो लो, चटनी पीसती अँगुलियों पर जीभ घुमा शहद चाख लो, पहली बारिश कि मिट्टी डिब्बी में बंद कर माटी का इतर मरुस्थल में सूंघा दो, मंदी बारिश में छतरी मजबूती से, तेज बारिश में हवा को घूस दे आसमान में उड़ा दो, उसकी नीद में झांक सारे सपने चुरा सुबह चाय की चुस्कियों पर उसे लजा दो, सुबह शाम एक नाम उसके कान में मन्त्र कि तरह बुदबुदा उसकी आँखों के जंगल को पन्नो पर उगा दो...

सच! खुशियाँ देना कितना आसान है ....


प्रभात की पहली

किरण की तरह

उदित होता है

आत्मा पर


प्रकाशित करता है

अंधरों में खोई जिंदगी

जिसको मैं अक्सर

जीना भूल जाती हुं


खोई चाबी कि तरह

मिल जाती हैं खुशियाँ

वहीं ज़मीन पर पड़ी

Painting by Bonnie Lanzillotta

Tuesday 16 June 2009

छन-छन की धुन पर हवा में उड़ती..

पिता उस जमाने में बी ए पास थे, जिस समय गावं में चिठ्ठी पढ़वाने के लिए लोग इक्के दुक्के का सहारा ढूँढ़ते थे. वो दिल्ली में अखबार के सम्पादक थे. केंसर को पहले उनके दायें हाथ से प्यार हुआ, वो हाथ उसे सौपने के बाद उन्होंने बाएँ हाथ से लिखना सीख लिया था किन्तु उसे अब हाथों के अलावा बहूत कुछ चाहिए था .. पिता के चले जाने के बाद ... माँ चार बेटियों के साथ वापस गावं लौट आई थी.. घर में, सप्ताह में एक बार मास्टरनी पढ़ाने आती थी उसमें भी ताई कोई ना कोई काम निकाल कर बुलवा भेजती.... वो रामायण, गीता, सुख सागर, हनुमान चालीसा पढ़ लेती थी इसके अलावा ना ही मन हुआ और ना ही कुछ और पढ़ने को मिला ..

ताऊ ने सभी बहनों की शादी धूम - धाम से की थी और अब तो बस वही रह गई थी. किसी चीज़ की कमी ना छोड़ी थी... ताऊ जी का बिरादरी में बड़ा नाम था, वो गावं के सबसे बडे ज़मीदार और बिरादरी के सभापति थे. ताऊ जी पति को तब से जानते थे जब वो कालेज में पढ़ने की लिए बिरादरी की सभा से ऋण लेने आये थे. सगाई के बाद उनके घर से आकर ताऊ के लड़के ने उससे कहा भी था... कच्चा घर है... छत से पानी टपक रहा था, बर्तन भी घर में ठीक से नहीं थे..तू कहे तो मैं पिता से कह कर मना करवा दूं ...उसने उसे यह कह कर रोक लिया रिश्ता तोड़ कर किसी का अपमान करना ठीक नहीं.. जो उसकी किस्मत में होगा देखा जाएगा...

गावं की औरते सामान से भरे घर, उसके रूप और उसके पहनने - ओढ़ने को देख कर सास को उल्हाना देती तुम तो चोधराइन बन गई हो... सास फूल कर कुप्पा हो जाती ...उसे अक्सर टोकती "बहू रोटी पर घी कम लगाया कर थाली में चू जाता है" ... ससुर कहते "बड़ी भाग्यवान है बहू! खुला हाथ है घर में बरक्कत रहेगी"...वो घूंघट के भीतर मुस्कुरा एक और फुल्का उनकी थाली में सरका देती...

गोने के बाद वो पति के साथ चली आई... सात कमरों वाली हवेली से निकल कर, दिल्ली में एक कमरे के माचिस नुमा क्वाटर को अपना महल बनाना मुश्किल नहीं हुआ, अच्छा हुआ दहेज़ का सोफासेट, डाइनिंग टेबल कुर्सी, पलंग यहाँ नहीं लाये... यह क्वाटर तो पूरा स्टोरेज बन जाता, वैसे भी इनकी छोटी बहन की शादी होनी है अगले साल तक लड़का मिल ही जाएगा, वो सामान उसके काम आयेगा. सिर्फ गोदरेज की अलमारी और पढ़ने की टेबल कुर्सी हैं और चारपाई बिछने के बाद तो कमरा भर जाता था.

जो काम उसने कभी पहले नहीं किये ..धीरे- धीरे सब सीख लिए.. जैसे स्टोव जलाना, कपड़े इस्त्री करना, फेरी वाले से मोल- भाव करके सब्जी लेना, चक्की पर आटा पिसाना, घर के दरवाजे खोलना- बंद करना, कूड़े का कनस्तर नीचे रख कर आना, दूध की डिपो से बोतल का दूध लेकर आना, अखबार वाले का हिसाब करना... जब भी वह किसी काम से बाहर निकलती आस- पड़ोस की निगाहें उसका पीछा किया करती...उन आखों में कोतुहल के साथ शायद कुछ और भी था जानने और कहने को....

दोपहर में अब वह बोर नहीं होती. उसने नयी दुनिया खोज ली है मेज पर पड़ी धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बरी, नवनीत, सारिका को पन्नो में वह खुद को ढूढ़ लेती है कभी कहानी की नायिका बन कर तो कभी कविता की पंक्ति बन कर... शब्दों का जादू उसे छूने लगा है और वो जादू उसे कभी परिंदा बना देता है तो कभी पतंग, कभी तिनका, तो कभी कपास का फूल, कभी हवा तो कभी बूंद ... आकाश में भी बराबर उसे अपनी पाजेब की छन - छन सुनाई देती है...

वो पहली बार घर में आई है ... रूबी नाम है उसका... वो उससे मिलवाते हैं.. उसने पीले और लाल रंग की लंबी ड्रेस पहनी हुई है पतली, लम्बी, साँवली, सर पर छोटे छोटे बाल..मेम जैसी दिखती है .. उन दोनों की बातें उसके समझ से बाहर हैं वो चाय बनाने रसोई में गई और दोनों के ठहाके सुनती रही... वो सोच रही है यदि वो खाने के लिए रुकी तो एक सब्जी और होनी चाहिए... वो चाय लेकर गई तो दोनों यकायक चुप हो गए.... उनका चुप होना उसे खलता है और जब चाय की चुस्की के साथ उनकी बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो उसे अच्छा लगा ... वो चाय ख़तम कर जाने की बात करती है .. उसने मेहमान से खाने पर रुकने को कहा... उसने मना कर दिया और कहा वो घर जाकर ही खायेगी... उसने शनिवार को दुबारा आने का वादा किया. पास के सिनेमा हाल में, शाम के शो में, संगम फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया है ...

"में रूबी को बस स्टाप पर छोड़ कर आता हुं" ..वो हाथ हिला कर उससे विदा लेती है ... उसके कान उन दोनों के कदमों को नीचे उतरते हुए पीछा करते हैं और खिड़की से उसकी आँखे उनकी ओझल होती छाया को... वो वहीँ खड़ी है ...डूबते सूरज की रौशनी उसे भिगो रही है बाहर बच्चों के खेलने का कोलाहल शोर होते हुए भी अच्छा लग रहा है एक छोटी बच्ची उसकी और देख कर हाथ हिलाती है ... वो भी मुस्कुरा कर हाथ हिलाती है वो इशारे से पूछती है वो बच्चों के साथ क्यों नहीं खेल रही?... वो उसे अंगूठे पर लगी पट्टी दिखाती है ... वो भी अपना सीधा हाथ हिलाती है और सब्जी काटते हुए कटी अंगुली पर लगी पट्टी की तरफ इशारा करती है... दोनों जोर जोर से हँस रही हैं ...
दरवाज़े पर आहट हुई तो वो पीछे मुड़ी... पडोसन अन्दर आ रही है काफी घबराई लगती है उसके निकट आकर कान में कुछ कहती है... वो हँस देती है है उसे चाय के लिए पूछती है ... तभी यह भीतर आते हैं और पड़ोसन घर के काम का बहाना बना... इनकी और घूरती हुई कमरे से निकल जाती है... "तुम इनकी बातो में मत आना लगाईं- बुझाई के अलावा इन्हें कोई काम नहीं.." वो चाय के बर्तन समेट रही है और प्लेट पर हिलते हुए प्यालों की आवाज़ में वो जवाब मिल जाता है जो वह सुनना चाहता है...

उस दिन इनका दोस्त दफ्तर से साथ आया था और खाना बीच में छोड़ रसोई में आकर पूछ रहा था " वो अब तो यहाँ नहीं आती?" हँस कर पूछती है "कौन भला" .. "कोई नहीं भाभी" कह कर वो जोर से चिल्लता है "देख भाभी फुल्के कितने बढ़िया बनाती है" .. "तू जी भर के खा में तो रोज़ खाता हुं" कमरे से आवाज़ आती है...

वो कपड़े इस्त्री कर रही थी ..गावं से अचानक ताऊ का लड़का मिलने आ पहुँचा .. माँ ने बेसन की लडू, देसी घी और दालें भेजी हैं... .बड़े ध्यान से वह उसके घर को और उसे काम करते देख रहा है .. जब वह खाना खा चुका तो उसने धीरे से पूछा "तू खुश तो है ना?" वो आँखे नचा कर बोली "तुम्हे क्या लगता है?" और खिलखिला कर हँस दी ... शाम को विदा लेने से पहले वह इनको धीरे से कह रहा था इसने कभी कपड़े प्रेस नहीं किये हैं वो भी बिजली की प्रेस से! घर पर अकेली होती है कहीं कुछ झटका लग गया तो पछताओगे... वो उसे प्रेस करने को मना करते हैं... भाई के लौटते हुए चहरे पर तसल्ली और संतोष झलक रहा है उसे ख़ुशी है वह संतोष भी सही सलामत माँ तक ऐसे ही पहुँचेगा जैसे उसके हाथ से सिले ठाकुरजी के कपड़े ....

आज शनिवार है साढ़े सात बज चुके हैं वो अभी तक नहीं आई है वो खाने को पूछती है वह अनमने ढंग से हाँ कहता है... वो खाना परस देती है और रसोई में पानी लाने गई है... जीने में कदमो की आहट होती है वह खाना छोड़ जीने की तरह भागता है वह रसोई की खिड़की से, सबसे ऊपर की सीढ़ी पर, दरवाज़े की ओट में दोनों को एक दुसरे की बाहों में देखती है...
वह रूबी लिए खाना लगाती है... आज उसने बादामी स्कर्ट और सफ़ेद ब्लाउज पहना है आज रूबी उस दिन की तरह सहज नहीं है ... वो उन दोनों की तरफ देख कर देर से आने की माफ़ी मांगती है.. "कोई बात नही! हम रात का शो देख लेंगे" यह मेरी और देख कर पूछते हैं? "क्यों नहीं" उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया..

रसोई का काम निपटा कर वह बाथरूम में साड़ी बदल रही है कोशिश के बावजूद भी फर्श पर गिरे पानी में साड़ी गीली हो जाती है नीली सिल्क साड़ी के आसमान पर पानी के गीले धब्बे काले बादल की तरह नज़र आ रहे हैं साड़ी की कोमलता वह अपने भीतर उसी तरह महसूस करती है जैसे रात में वो उसके स्पर्श को महसूस करती है... मचल जाती है अपनेआप को आईने में देखने को... यह उनकी मन पसंद साड़ी है सबसे अधिक बार पहनी हुई पर इससे कभी उसका मन नहीं भरता .... आज पहली बार बाथरूम में तैयार हो रही है चोटी- बिंदी करने के लिए बाथरूम में आईने की कमी खल रही है ... लज्जा के मारे उन दोनों के सामने कमरे में आइना नहीं देख सकेगी...उसे बड़ा अजीब लगता है जब रूबी अपने बेग से शीशा निकाल लिपस्टिक होंटों पर घुमाती है वो इनका नाम लेकर बुलाती है उसे वह भी अजीब लगता है पर बुरा नहीं. रसोई की खड़की के धूल लगे शीशे में लाल सिन्दूर की बिंदी भवों के बीचों - बीच लगा.. थोड़ा बालों के बीच छिड़कती है और नाक पर छिटक आई नन्ही नन्ही लाल बूदों को अगुलियों से साफ़ करती है जैसे ही वो कमरे में आती है वो दोनों उसके तरफ देखते हैं वो दीवार पर लगे आईने के सामने चाबी ढूँढने के बहाने एक दो चक्कर लगा... उड़ती निगाह से अपने आप को आईने में देखती है...

वो दोनों अपनी बातों में मगन आगे- आगे चल रहे हैं वह चार कदम पीछे है ... वह राहत की सांस लेती है चलो अँधेरा काफी गहरा है और सभी कोतुहल भरी निगाहें घरों के भीतर बंद हैं...

फिल्म लम्बी थी आधी रात के बाद समाप्त हुई, बाहर हवा तेज़ चल रही है, बादल घिर आये हैं... बिजली चमक रही है ... तीनो तेज़ कदमो से घर की और भागते हैं... वह दोनों का बिस्तरा फर्श पर और रूबी का चारपाई पर..उसके लिए नयी चादर, खेस और दुतई निकालती है...रूबी चारपाई पर उन्हें फैलाने में मदद करती है ...कपड़े बदलने के लिए रूबी को अपना नया कफ्तान दिया है जो उसको काफी ऊँचा है ...

सुबह नाश्ते के बाद वो घर से तैयार होकर निकलते हैं... इतवार को इनके एक दोस्त ने लंच पर बुलाया है रूबी को उसके घर छोड़, वह दोनों दोस्त के यहाँ चले जायेंगे... इनके दोस्त का घर रूबी के घर के पास है...

बस स्टाप पर उतर कर रूबी जिद करती है हम भी उसके घर चलें... वह काफी घबराई हुई है ... यह मना कर देते हैं वह रूबी का हाथ पकड़ कर उसके साथ हो लेती है और महसूस करती है उनके पीछे - पीछे कोई चल रहा है और रूबी के घर की गली आ जाने पर वहीँ नुक्कड़ पर रूक गया है...

रूबी के घर में दाखिल होते ही उसके पिता बाहर बरामदे से उठ कर आते हैं वह साड़ी का पल्ला सर पर कर लेती है ... रूबी को देखते ही चिल्लाने लगते हैं भला-बुरा बोलते हैं और उसे घर से निकल जाने को कहते हैं... वो गुस्से से उबल रहे हैं उनके गुस्से को देख वह भी सकपका गई है... उसके हाथ कांप रहे हैं...रूबी ने दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढक लिया है दीवार की और मुहं कर सिसक रही है... वह उसके कंधे पर हाथ रखती है उसके पिता की और देख कर कहती है..

" बाउजी इसमें रूबी की कोई गलती नही है ... बारिश तेज़ थी ...रात काफी हो चुकी थी मैंने ही जिद कर के रूबी को रोक लिया था यह तो वापस लौटना चाहती थी .. गलती सारी मेरी है..". उनकी आँखे अब उस पर हैं सवाल कर रही हैं " तुम कौन हो" बिना जवाब दिए वो समझ जाते हैं "तुम अंदर जाओ रूबी!" वो सख्ती से कहते हैं रूबी उसकी और देखती है उसकी आखों में आँसू हैं वो उससे वो सब कह जाते हैं जो सारी दुनिया उससे इतने दिन से कहना चाह रही थी ...और तेजी से अंदर चली जाती है...

"आप रूबी को कुछ मत कहिये..." वो उसके पिता के सामने हाथ जोड़े खड़ी है वो उसके नज़दीक आते हैं उसके सर पर अपना हाथ रखते हैं वो उनके पैर छू कर विदा लेती है..

"तुम्हे इतनी देर क्यों लगी" वो मुझसे पूछते हैं "कुछ नही उसके पिता ने मुझे बैठा लिया था " वो आश्चर्य से उसकी और देखता है और आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लेता है वो तेज़ कदमो से उसके साथ चलने की कोशिश में, छन-छन की धुन पर हवा में उड़ती है...

उस दिन के बाद रूबी कभी घर नहीं आई सिर्फ उनकी यादों में बसती और महकती है...

पेंटिंग - राजा रवि वर्मा

Thursday 28 May 2009

वसंत के बाद पतझड़...

सुनो!

पुरानी टहनी जोर से ना हिलाओ

उसकी सारी पत्तियां ना गिराओ

सिर्फ धरकनो को सही

प्रकृति को ना आंसू पिलाओ

कदमो के नीचे की जमींन मांग

आँखों को ना धूल दिखाओ


देखो!

वो तने से लिपटी लता

ऊपर बयाँ का घोंसला

शाखा पर अटकी पतंग

छाया में खिली हमारी सुगंध


ना दो हवाला

सड़े गले फलों का

पत्तियों पर चलते कीड़ों का

गुम हो गई तितलियों का

काला होते इन्द्र्धनूश का


वसंत के बाद

पतझड़ को आना था

यह पाठ क्यों नयी टहनी

उगने के बाद पढ़ाना था

पेंटिंग- केन बुशी (गूगल सर्च इंजन से)

Tuesday 19 May 2009

बर्फ में बने लोगों के कदमो पर कदम...

वो चाय बना रही है, उसने दूध के लिए फ्रीज खोला, दूध के गेलन में सिर्फ एक कप चाय लायक ही दूध बचा है ... उसने पड़ोसन के लिए चाय बनाई, अपने लिए जूस का ग्लास भर लिया, पड़ोसन अक्सर बच्चों को स्कूल छोड़ते हुए उसका पास आ जाती है .. पड़ोसन के जाने के बाद, दूध के बिना फ्रीज, तेल की खाली बोतल, सब्जी की टोकरी में पड़ी दो प्याज़, नमक नीम्बू के साथ टमाटर और खीरा खाने को उसका मन उसे सुपर मार्किट जाने की जिरह कर रहा है पर खिड़की से बाहर पड़ी बर्फ उसे घर से बाहर ना निकलने की हिदायत दे रही है ... बिजली का बिल भी भरना है आज आखरी तारीख है वह सुबह याद दिलाकर गया है ...
उसने जींस के ऊपर गर्म पुलोवर, हाथों में दस्ताने, पैरों में जुराब और फिर ऊपर लंबा मोटा कोट पहना, पेट पर से बटन बड़ी मुश्किल से बंद किया, मफलर लपेटा और धड़ाक से दरवाजा बंद करके वह बाहर आ गई, सड़क और दरवाज़े में छ गज का फासला होगा... फूटपाथ के साथ गाडियाँ पार्क हैं अधिकतर तो टेक्सी हैं कुछ बर्फ से ढकी हैं और कुछ बिलकुल साफ़... घरों कि दीवारे और छत एक दुसरे से जुड़े हैं जैसे किसी बड़े पोस्टर के टुकड़े आपस में जुड़े होते हैं केवल दरवाजों पर लिखे नंबर से या फिर उनके बाहर खडी टेक्सी के रंग से उसमें रहने वाले कि पहचान हो सकती है किसी ने फूटपाथ पर दाना फेंका हुआ है जिसे कबूतर चुग रहे हैं बरफ के ऊपर दाना चमक रहा है... जहाँ-जहाँ लोगो के कदम पड़े हैं वहां से बर्फ पिघलने लगी है कबूतरों के भोज में खलल ना पड़े वह फूटपाथ छोड़ सड़क पर उतर जाती है..छपाक से उसका पाँव पिघली बर्फ में पड़ता है ... चलते - चलते जूते के अन्दर पाँव और पानी धीमे-धीमे अपना आलाप छेड़ रहे हैं...
कबूतरों को देख कर उसे कल रात रसोई में दिखे चूहे कि याद आ गई। कितना जोर से चिल्लाई थी वो हँस रहा था तुम तो ऐसे कर रही हो जैसे पहली बार चूहा देखा है और वैसे भी स्वदेश में तो वह इंसानों के साथ घरों में प्रेम से रहते हैं। पड़ोस के लोग घर गन्दा रखते हैं वहीं से आते हैं वो जिद करती रही इसे निकालो वरना तो वह कभी रसोई में नहीं घुसेगी। अरे! पूरी स्ट्रीट के फ्लोर बोर्ड उठा कर कहाँ ढूंढें चूहे को... चूहेदान लाकर वह उसे निकालने की कोशिश करेगा उसने वादा किया... एक भी तिलचट्टा देखकर वह रसोई में पाँव नहीं रखती थी एक बार घर में मेहमान आये हुए थे माँ ने पानी लाने को कहा जब आधे घंटे बाद भी पानी नहीं पहुंचा तो खुद लाने कमरे से बाहर आई उसे रसोई के बाहर खडा देख समझ गई " बेटा तेरा कैसे काम चलेगा कोई इंग्लेंड या अमेरिका में देखना पड़ेगा" यह कहते वह खुद पानी लेकर कमरे में गई और वहां मेहमानों को बताया उनकी जवान बेटी कितनी बहादुर है।
आसमान हमेशा की तरह स्लेटी है, बर्फीली हवा के झोकें ने उसका सड़क पर स्वागत किया, आँखों और नाक से पानी बहने लगा उसने दोनों कोट की जेब में हाथ डाला, उन्हें खाली पाकर उसने पर्स में झाका और अंत में कोट की बाजू से गालों और होठों पर बहता पानी साफ़ किया.. जब- जब मफलर की लपेट हवा झोकों से खुल जाती हवा उसके गले में आइस पेक की तरह चिपक जाती। पाँव कि अगुलियां सुन्न हो गई हैं और जूते के भीतर आये पानी से उन्हें अब कोई शिकायत नहीं थी.. वह बैंक के सामने है... पर्स में बिल नहीं है शायद टेबल पर रह गया है... वह सुपर मार्किट की तरफ मुड गई..
उसे यहाँ आये अभी एक वर्ष भी नहीं हुआ हैं चौड़ी, बिना गढों की सड़कें, साबुत फूटपाथ, करीने से चलता ट्रेफिक, चौबीस घंटे आती बिजली पानी, चार बजे होता अँधेरा, कभी कभी निकलने वाला सूरज, सड़कों पर पड़ी बर्फ, बस स्टाप पर लाइन में खड़े लोग और अक्सर खाली बसे उसे इस बात का अहसास दिलाते की वो लन्दन में है वरना तो ...सड़क पर काले बुर्के में पुश चेयर में बच्चे को धकेलती औरतें, पान चबाते कुरते पजामे और टोपी ओढे अधेड़ उम्र के आदमी, सलवार सूट में तुस्सी-मुस्सी करती पंजाबने और सड़क पर कूडेदान से कूड़ा समेटते सरदारजी देख कर तो ऐसा लगता जैसे किसी महानगर से निकल वह कसबे में आ गई है.... सबसे ज्यादा अजीब उसे तब लगता जब वह सब्जी खरीदने एशियन स्टोर जाती, वहां मीट की बदबू से उसे मितली होने लगती...
उसने ट्रोली की जगह टोकरी उठाई... गिने-चुने आइटम तो खरीदने हैं एक-एक आइटम के बाद टोकरी भारी होने लगी उसका मन हुआ एक दो सामन वापस रख दे, पर क्या वापस रखे का फैसला नहीं कर पाई, ब्लीच वापस रखे या पकाने वाला तेल के डिब्बा, टमाटर का पेकेट रखे या गोभी का फूल....यदि रख दिया कल फिर वापस आना पड़ेगा... उसने सोचा दो बैग में उठाएगी तो भार कम लगेगा... उसे अब गर्मी लगने लगी है आँखों और नाक से पानी की जगह अब माथे पर पसीने की बूँद हैं दम घुटता सा, ताज़ी हवा की कमी महसूस हुई। उसने अपना मफलर ढीला किया और कोट का बटन खोला... वह बाहर निकलना चाहती है ... लाइन में उससे आगे एक औरत है जिसकी कोट के नीचे से हरे रंग की सलवार नज़र आ रही है और चुन्नी से सर ढका है उसका काले बालों और पीले रंग का बच्चा पुश चेयर से निकलने के लिए हाथ पाँव पटक रहा रहा है और चिल्ला रहा है औरत बिल देकर बच्चे की तरफ मुडी ..."काम डाउन..काम डाउन" कहते हुए वह बच्चे को डांटती है... उसकी निगाह औरत के चेहरे पर पड़ी और वहीँ पर अटक गई उसका ब्रिटिश सफ़ेद रंग और उच्चारण, भूरे बाल और नीली आँखों को वह तब तक देखती रही जब तक वह और उसका बच्चा सुपर मार्किट से बाहर नहीं निकल गए...
उसने टोकरी टिल पर रख दी और दो बैग में सामान इस तरह रखा की भार बराबर हो... बाहर निकलते ही ठंडी हवा ने कहा कोट के बटन बंद कर लो... उसने नहीं किया, उसे मालूम है फिर से खोलने पड़ेंगे वैसे भी अब बटन बंद और खोलने के लिए उसके हाथ खाली नहीं हैं उसे चलते- चलते महसूस हुआ दोनों थेलों में लगातार भार बढ़ता जा रहा है उसके कंधे और कमर उन्हें उठाने से इनकार कर रहे हैं अब चढ़ाई आने पर परों ने भी जवाब दे दिया...वैसे भी चढ़ाई पर बर्फ उसके सधे क़दमों को आगे बढ़ने के बजाये पीछे धकेल रही है. उसकी हाथ की अंगुलियाँ भी सुन्न हो गई हैं... उसने टेलीफोन बूथ के पीछे फूटपाथ पर थेले टिका दिए और थोड़ी देर के लिए खड़ी हो गई... उसके पेट में जानी-पहचानी सी हलचल हुई उसने कोट के ऊपर हाथ लगा हलचल को महसूस किया...फिर दोनों हाथों में थेले उठा बर्फ में बने लोगों के कदमों पर कदम रखती आगे बढ़ी...
पेट में हलचल अब शांत हो गई है ... वो पैदा होने से पहले ही उसके साथ थेले उठाने लगी है...
फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Wednesday 6 May 2009

कोई तीसरा भी है जो उनके राज़ जानता है...

ऐसा बहूत कम होता है वो कहीं से गुजरे और लोग उसको पीछे मुड़ कर ना देखें... शॉप फ्लोर पर तो सभी उसे ऐसे देखते जैसे पहली बार किसी औरत को देखा हो... वो एजेन्सी से आई है और अस्थाई कर्मचारी है... पोलैंड से आये हुए उसे कुछ महीने हुए हैं और उसके हाथ में रोज़ एक नई लिस्ट होती, अंग्रेजी के नए शब्द सीखने की... हर टी ब्रेक और लंच के वक़्त वो लिस्ट उसकी आँखों के सामने होती है उस वक्त अक्सर वो भी उसके साथ होता है उसके अंग्रेजी के उच्चारण का मज़ाक उड़ाने और उससे खुले आम फ्लर्ट करने को ... तुम पर हरा रंग कितना फब रहा है, तुम आज कितनी खूबसूरत लग रही है, कभी कम्पनी के बागीचे का गुलाब लेकर तो कभी ताम्बे के पाइप को काट छल्ला बना उसकी अँगुलियों में पहनाने पहुँच जाता, कभी उसके आँखों के रंग, तो कभी उसके गले में पड़े पेंडेंट की तारीफ़ करने वो हर ब्रेक में उसके आस-पास ही नज़र आता।

कम्पनी के सारे लोग दोनों को घूर-घूर कर देखते और उन दोनों की मुस्कराहट उन्हें वो सब कुछ सोचने पर मजबूर ही नहीं करती बल्कि यकीन भी दिलाती उनके बीच वो सब कुछ चल रहा है जो एक स्त्री पुरुष के नाजायज़ और जायज़ संबंधों में चलता है... दोनों को अपने सहकर्मियों से इस खूबसूरत रिश्ते कि सफाई देने कि कभी ज़रुरत महसूस नहीं हुई क्योंकि उन दोनों के बीच वही है जो सब देखते हैं और वो क्या सोचते हैं इसकी दोनों को परवाह नहीं है।
वह दोनों बहस कर रहे हैं वो कहता है काफी मशीन सिर्फ कार्ड लेती है सिक्के नहीं लेती ... और वो कहती है वह कार्ड और सिक्के दोनों लेती है वो उसका हाथ पकड़ कर ले जाती है वो कहती है "सी..." उसके चेहरे की मुस्कराहट कहती है तुम यहाँ बरसों से काम करते हो तुम्हे इतना भी नहीं मालूम? सुराख में पैसे डालती है और एक कप निकलता है और फिर कप में काफी की धार और सबसे ऊपर कप में झाग भरे हैं झाग कि तरह दोनों के जीवन में खुशियाँ भरी हैं काफी की महक पर वो छलकती हैं, खिलखिलाती हैं, मुस्कुराती हैं, बतियाती हैं... वो दोनों सोचते हैं सिर्फ उन दोनों को ही खुशियों का राज़ मालूम है।

जाब कट हुए हैं और सभी अस्थाई वर्कर जा रहे हैं आज उसका आखरी दिन है वह भी जा रही है और अब कंपनी में रोज़ के आठ घंटे फिर से उसके लिए सज़ा बन जायेंगे...दोनों ने साथ लंच किया और उन दोनों की आँखे भर आई किन्तु और सबकी आखें आज चमक रही हैं ... हर कोई जानबूझ कर उनके आसपास से मुस्कुरा कर निकल रहा है।

वो दोनों घर पर टेलिविज़न की खबरें देख रहे है उसकी कम्पनी में हुए जाब कट की खबर वो पहली बार सुन रही है और अब समझ गई है वो जब से घर लौटा है इतना चुपचाप और उदास क्यों है ...... पिछले कितने दिनों से वह उसे खुश देख रही है इतने वर्ष साथ रहते, उम्र गुजारते अब वो उसके बारे में उससे अधिक जानती है और उसके घर में आई ख़ुशी के कारण का अंदाजा लगा चुकी है, उसे हंसी आती जब वह अपना मोबाइल उसकी आखों से छुपा कर रखता और चोरी से एस ऍम एस पढ़ कर मुस्कुराता, पासवर्ड बदल कर आजकल उसने दोनों के इमेल अकाउंट पर अकेले कब्जा कर लिया और अब वह उसके सामने मेलबाक्स भी नहीं खोलता... उसका घर में इस तरह खुश रहना, यहाँ - वहाँ चुपचाप मुस्कराहट बखेरना उसे बहुत अच्छा लगता...

वह उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहती है "तुम उससे बात करते रहना और संपर्क में रहना तुम्हारा इतना उदास होना मुझे दुःख दे रहा है" ...."नहीं वो पोलेंड वापस जा रही है और कभी लौटेगी नहीं" ...उसने यह कह कर मुह छुपाने के लिए सामने पड़ा अखबार उठा लिया, वह उसके हाथों से अखबार छीन कर नीचे जमीन पर डाल देती है दोनों बाहों में उसे समेट छोटे बच्चे कि तरह उसका चेहरा अपने सीने में छुपा लेती है...

कोई तीसरा भी है जो सिर्फ उनकी खुशियों और दर्द के राज़ ही नहीं जानता बल्कि उनकी खुशियाँ और दर्द बाँटना भी जानता है...
तस्वीर - गूगल सर्च इंजन से

Tuesday 28 April 2009

"साब आप करते क्या हैं..... "

घंटाघर पर उतर, पलटन बाज़ार से गुजरते हुए, चार- पांच टेढ़ी - मेढ़ी गलियों से होकर, कूड़े के ढेरों को फांदते हुए, आवाज़ लगाते ठेले वालों के बीच से जगह बना, ट्रेफिक में अटके स्कूटर के शोर -गुल; ग्राहकों, पैदल चलने वालों, आवारा कुतों और गायों कि भीड़ में, सब्जी मंडी में उस नाली के ऊपर तखत पर बनी चाट कि दूकान तक पहूंचना कोई आसान काम नहीं है .. वो भी शाम के वक्त......

वो वहां रोज शाम आता है, कभी सात दिन, कभी दस दिन, कभी पंद्रह दिन, कभी बीस दिन लगातार. यह निश्चित नहीं था वह कब रोज़ आते -आते गायब हो जायेगा और कब इन रोज़ आने वाले दिनों के बीच चार महीने, छह महीने, आठ महीने का अन्तराल आ जाएगा, पर चाट कि दूकान पर आने और गायब होने का यह सिलसिला करीब दशकों से लगातार कायम है, इस बीच चाट वाले का बेटा भी कभी-कभी बाप की जगह दूकान पर दिखाई देने लगा है।

चाट वहां दोने में मिलती है, दही, इमली कि चटनी और पानी बताशे का चटपटा पानी चमकते हुए स्टील के भगोने में रखा होटा, चाट वाला अधेड़ उम्र का बुजुर्ग है वो मटमैली धोती और बनियान में पलोथी मार कर चाट खिलाने बैठता है, उसके कंधे पर टंगा हाथ पोंछने का तोलिया हमेशा साफ़ धुला हुआ होता है वह बड़े प्रेम से सबको चाट खिलाता है ... उसका नंबर आने पर चाट वाला बिना पूछे ही उसे चाट खिलाना शुरू कर देता, वह जानता था उसको क्या खाना है सूजी के नहीं, आटे के बताशे खिलाने हैं, बताशे में इमली कि चटनी कितनी डालनी है, कितनी मिर्च, कितना मसाला, कितनी दही, चाट खिलाने का क्रम भी उसे मालूम था. वह पानी-बताशे से शुरू करता, फिर टिक्की, दही पापड़ी, सबसे बाद में दम आलू... चाट कि दूकान पर उसके दुसरे ग्राहकों के बीच वह अलग ही दिखाई देता है, छ फिट ऊँची काठी, सर पर खड़े छोटे-छोटे बाल, चेहरे पर विनम्रता, गर्दन से टपकता पसीना, ढीली-ढाली डेनम की जींस और पसीने से भीगी उसकी टी शर्ट...

वो हमेशा अपनी बारी का इंतज़ार बिना कोई शिकायत किये करता और चाट वाले को सरजी कह कर बुलाता. उसके बारे में इतने साल से चाट वाला सोचता आया है और आज उससे पूछे बैगर ना रहा गया ..."साब आप करते क्या हैं?" चाट वाले ने बताशा पत्ते के ऊपर रखते हुए पूछा. वह बताशा सटक कर मुस्कुराया और बोला "सरजी कल सुबह जो पांच जहाज ऊपर से उड़ेंगे बाहर सड़क पर आकर देखना सबसे आगे वाले में कौन बैठा है ...."

अगले दिन चाट वाला हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों में छपी उसकी तस्वीर सबको दिखा रहा है वर्दी में वो कितना अलग रहा है ....आज उतरांचल का पांचवा जन्मदिन है... अखबार में लिखा है जो कभी इस घाटी कि पगडण्डी पर साइकल के पैडल घूमाता था आज वह उसी पगडण्डी के आकाश पर अपना नाम लिख रहा हैं...


केंद्रीय विधालय की दीवार फांदते,

बारह से तीन शो में आँखे चुराते,
पड़ोसियों की खिड़की के शीशे तोड़ते,
पिता के प्रहार से बेचते,
चंद अंको से जिंदगी में मात खाते,

कभी सोचा था?
एक दिन वह लिखेगा
अपना नाम बादलों कि स्याही से,
इन्द्रधनुष से सींचेगा
द्रोण नगरी का गगन,
शहर का बच्चा बूढ़ा
सर उठाएगा,
जब वह अर्पण करेगा
उतरांचल को अपना नमन,
घर की छत गूंजेगी
उसकी गर्जना से,
छत के नीचे
गर्व और सार्थकता से
चार आँखें होंगी नम…


फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Tuesday 21 April 2009

आंखों की चमक और होंठों की मुस्कान पर पसरा जादू...

यादों के सिवाए उनके बीच कुछ भी साझा नहीं था, समय की रफ़्तार ने ना सिर्फ उनके रास्ते और दुनिया अलग की, अब तो जीवन के मूल्य और मान्यताएं भी अलग- अलग पटरी पर विपरीत दिशा में चलने लगे थे ... फिर भी वो यादों से जुड़े हुए हैं जैसे पूरब सूर्य उदय से जुड़ा है जैसे हरियाली वसंत से जुडी है जैसे समुद्र की लहरें उसकी गहराई से जुड़ी है, जैसे विश्वास सच्चाई से जुड़ा है, प्रक्रति धरती से जुड़ी है, पतंग आकाश से और दो फोन नेटवर्क से जुड़े हैं..इसी तरह वो यादों से जुड़े थे....

इस सबके बावजूद बिना आंधी आये कभी- कभी यादें बिखर जाती, कभी टूट जाती, कभी वो स्वयं पर अविश्वास करती, कभी उन्हें वो सब धोखा लगता, उनका घटित होना एक अभिशाप लगता, पाप लगता, उनका अस्तित्व फरेब लगता. जब-जब ऐसा होता वह अँधेरे में छत की दरारों, परदों पर चमकती हेड लाईट और ट्रेफिक की आवाज़ से बातें करते-करते रात भर तकिया भिगोती ...

यादों को अपना वजूद था, उनमें जो जिंदगी जी थी, सपने देखे थे, सफ़र तय किये थे, किले फतह किये थे, सीमायें लांघी थी, जंगल से तितलियाँ पकड़ एक स्पर्श में बंद की थी, बारिश में कागज़ की नाव तैराई थी, पार्क की बेंच पर एक दुसरे का इंजार किया था, दुष्यंत की कवितायें एक साथ गुनगुनाई थी, अँगुलियों में लपेट उसके बालों के छल्ले बनाए थे, समय, नियति और सूरज से आँख मिचोली कर जिंदा पल चुराए थे, अकेले में पाँव को हथेली के जूते पहनाये थे, सबके सामने मेज के नीचे हाथ सहलाए थे, पाँव के नीचे की ज़मी हरी और आकाश पर हाथों की पकड़ मजबूत की थी... यह सब सिर्फ कुछ मुट्ठी भर तारीखों में क़ैद था और हरी पत्तियों में क्लोरोफिल की तरह ज़िंदा पलों का जादू उन तारीखों में जड़ा हुआ था, उस जादू को जगाने के लिए धूप और पानी कि सख्त जरुरत थी जिसकी अब बहुत कमी थी. इसलिए अब वह अक्सर गायब रहता, यादें आवाज़ देती तो अनसुना कर देता कभी वह जानबूझ कर कानों में रुई भर लेता, तहखाने के गहरे अँधेरे में यादों को बंद कर देता।

वो सुबह उठती कलेंडर की तरफ देखती, यादों खिड़की अचानक खुल जाती, प्लेटफार्म पर जादू हाथ हिलाता मुस्कुराता दिखाई पड़ता और ट्रेन खिसकने लगती... उससे रहा ना जाता वह चलती ट्रेन से उतर उसकी और दौड़ने लगती और गले में बाहें डाल जादू से लिपट जाती और वो उसे ऊपर उठा लेता ... जो वह उस समय करने का हौसला नहीं जुटा पाई, वह सब करना कितना आसान हो गया था और उसे बड़ा आश्चर्य होता अपने आप पर और जादू के बरकरार रहने पर ...

यादों का जादू उस दिन की सबसे बड़ी सच्चाई बन उसके आगे पीछे घूमता, उसकी साँसों में महकता, हर पल उसके दिल में सितार के तार कि तरह झनझनाता, दिन भर आँखों की चमक और होंठों की मुस्कान पर पसरा रहता..
फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Tuesday 14 April 2009

धरती का मोह...आकाश की चाह...रनवे से उड़ान...

वो बोला "मैं तुम्हारा रनवे हूँ तुम यहाँ से आकाश में उड़ान ले सकती हो". वो बोली "मेरे पास पंख नहीं हैं" .. "यह लो बादलों के पंख यह तितली के पंखों की तरह रंग बिरंगे नहीं है पर तुम उड़ान ऊँची ले सकोगी".. वो बोली "मेरे पास उड़ने के लिए आत्म विश्वास नहीं है"... "लो मेरी सारी प्रार्थनाए तुम्हारे साथ हैं जो तुम्हे हमेशा भरोसा दिलाती रहेंगी मैं तुम्हारे साथ हुं"... वो बोली "लेकिन मैं वहां करूंगी क्या?" वो बोला "सारा आकाश तुम्हारा है इंद्रधनुष तुम्हारा है जो भी तुम्हे वहां दिखे, मिले, तुमसे कुछ कहे... तुम उसे पेंट करना और यह लो डायरी इसमें उसके बारे में लिखना"....

उसने अपनी हथेली उसके पाँव के नीचे लगा दी और उसने बिना दौड़े ऊँची उड़ान ली .... उड़ते - उड़ते पहले वह चाँद के पास पहुंची, वह मुह लटकाए बैठा था... उसने पूछा "क्यों उदास हो?" चाँद बोला "तुम्हारी ज़मी के कवि समझते हैं चांदनी मेरी है पर वह तो ज़मी की है उसे ही छूती है वहीँ रौशनी फैलाती है सिर्फ अमावस्या के दिन ही मेरी है"....वह चांदनी के पास गई ...वो भी नाराज़ लगती थी वह बोली "चाँद मेरे यश से जलता है उसी की दी रौशनी से यदि धरती महकती है और वहां के कवि मुझे चाहते हैं मेरे ऊपर कविता लिखते हैं तो इसमें मेरा क्या कसूर" ... उसने सोचा कितना अच्छा होता यदि वह अपने साथ मेरिज काउंसलर ले आती धरती से ज्यादा यहाँ उनकी जरूरत है... दोनों को उनके भरोसे छोड़ वह आगे बढ़ी...
वह तारों के पास पहुँची वह बादल, सूरज और चाँद की चुगली कर रहे थे, उससे शिकायत भरे स्वर में बोले "सूरज हमे दिन में अंधा कर देता है रात में बादल, हमारे पास चाँद से ज्यादा रौशनी है किन्तु चांदनी फिर भी उसी की है सदियों तक प्रतीक्षा की, लोभ दिया वह हमारी तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखती और धरती पर सड़क पर सोते हुए भिखारी के पाँव चूम, उसके ऊपर बिछ जाती है"...उसने मन ही मन सोचा यहाँ की राजनीति तो बिहार की राजनीति जैसी है हमेशा अँधेरा ही इनका साथी रहेगा... वह बिना कुछ बोले सूरज की तरफ मुड़ ली... उसने दूर से ही उसे चेतावनी दी "अपना भला चाहती हो तो दूर चली जाओ तुम्हे पंखों के बीच से छु लिया तो पिघलोगी खुद, किन्तु आकाश और धरती पर मुझे बदनाम करोगी"...उसने अपने आप को आईने में देखा "क्या उसकी शक्ल राखी सावंत से मिलने लगी है" उसका अब मन भर गया था वह वापस लौटना चाहती थी खाली डायरी और कोरे केनवस के साथ... आकाश दूर से ही अच्छा लगता है वह धरती पर लौट कर पेंटिंग करेगी और कविता लिखेगी...

धरती पर पहुंची तो उसका रनवे वहां नहीं था। उसने उसे ढूंढा, वह किसी और को उड़ना सीखा रहा था उसकी हथेली में किसी और के पाँव थे ...वह गिड़-गिडाई मुझे लैण्ड होना है नहीं तो मैं गिर जाउंगी.. वह बोला इस रनवे से तुम सिर्फ उड़ सकती हो उतरना तो तुम्हे अपने आप पड़ेगा ... उसके पास जमीन से टकराने के अलावा कोई विकल्प न था... वह नीचे गिरने लगी और धरती छूने से पहले पेड़ पर अटक गई तभी से वह वहीँ लटकी है अब उसे ना धरती का मोह है और ना आकाश की चाह...
फोटो - फ्लिक्क्र .कॉम