Thursday 19 November 2009

तड़ाक की आवाज़ सारे गावं पर बिजली की तरह गिरी....



गोरा चिट्टा रंग, लंबी काठी, गुलाब की पंखुड़ी जैसे होंठ, दिए की लौ जैसी आँखें, कमर से नीचे तक लम्बे बाल.... कोई उसका नाम जाने बगैर बता सकता था परमजीत कौर यूपी के ज़मींदार परिवार से नहीं बल्कि, अमृतसर के गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी के मालिक की बेटी है. पैदा भले ही अमृतसर में हुई थी पर पली- बढ़ी अफ्रीका में, पिता कि गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी भारत कि सड़कों को छोड़ अफ्रीका की सड़कों पर दौड़ने लगी थी... गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी के पास पचपन ट्रक, साठ ड्राइवर और आठ लोग दफ्तर में काम करते थे ... घर मैं तीन नौकर थे उनके बच्चों के साथ वह कंचे खेला करती थी... घर में अनाज, चीनी, आलू, प्याज बोरियों में और सब्जी फल टोकरों के हिसाब से आते थे... आठ भाई बहनों में वह सबसे बड़ी थी...

सोलहवें साल में कदम रखा ही था मां को उसकी भरी छाती और गिलहरी जैसी कूद- फांद बिलकुल ना भाती थी...उन दिनों सिख लड़कों का अफ्रीका में बड़ा अकाल था ...पंजाब से एक बुलाया भी था जिसने आते ही घोटाला किया और ट्रक का आधा माल हड़प लिया. ...यू पी का ओमकार वहीं पर काम करता था ट्रांसपोर्ट कम्पनी का हिसाब - किताब संभालता था- निहायत ईमानदार और कर्मठ और उसके पिता सरदार सुरजीत सिंह का विश्वासपात्र. ओमकार का ब्याह सोलह साल की उम्र में हो गया था और गौने से पहले ही वह कॉलेज पूरा कर उन्नीस साल की उम्र में रोज़ी रोटी कि तलाश में अफ्रीका पहुँच गया... पहले छः सालों में वह दो बार पत्नी को लाने अपनी ससुराल गया किन्तु उसने ओमकार के साथ अफ्रीका आने से साफ़ इनकार कर दिया क्योंकि परदेस में पति का तो धर्म भ्रष्ट हो चुका था वह अपने देश और माता - पिता के घर में अपना धर्म सुरक्षित रखना चाहती थी... ओमकार ने अब पत्नी से सभी उम्मीद छोड़ दी थी और अपने को अकेला मान लिया था और पिछले पांच वर्ष से वह घर नहीं गया था... सरदार सुरजीत सिंह को ओमकार की नीयत और शराफत पर बड़ा यकीन था. उन्हें मालूम था कि सब छड़े आदमी तो इधर -उधर मुह मारते रहते हैं किन्तु ओमकार ऐसा नहीं था... तभी तो उन्हे परमजीत कौर का लगन उससे उम्र में पंद्रह साल बड़े ओमकार से करने में उन्हे कोई संकोच नहीं हुआ .... माँ को तो वैसे भी वो एक आँख ना सुहाती थी... शनील का सुनहरा गोटा लगा सलवार कमीज़, सिल्क का जरीदार दुपट्टा और सुहाग का लाल चूडा पहन कर परमजीत भी बहुत खुश थी, कम से कम माँ की डांट और गालियों से तो छूटकारा मिलेगा... पर बाउजी ...वो तो उसे बहुत प्यार करते हैं... ओमकार ने लगन मंडप अपने हाथों से, परमजीत के आँगन में खुद तैयार किया था... वहीं पर खिड़की से परमजीत ने ओमकार को पहली बार देखा था उसे वो भला लगा था... ओमकार ने जब सुहागरात को परमजीत को ठीक से देखा तो एकटक देखता रह गया... वह पलंग पर बैठी गोटियाँ खेल रही थी और गोटियों के उछलने के साथ उसकी आखें ऊपर नीचे इस तरह हो रही थी जैसे अंधरे में लालटेन हिलती है उसे देखते ही परमजीत ने गोटियों को तकिये के नीचे छुपा दिया और वह माथे से खिसक आया टीका ठीक करने लगी और हडबडाहट में बिस्तर से उतर मेज़ से चाकू उठा कर बोली "तुस्सी सेब खावोगे ... " वो चाकू उसके हाथ में बंधे कलीचड़े खोलने के काम आया था... कलाई पकड़ते ही स्पर्श कि गुदगुदी से इतना हंस और हिल रही थी उसे डर था कहीं उसे चाकू ना चुभ जाए.. रात गहरी होने के साथ -साथ .. ज्यों ज्यों नजदीकियों की पकड़ मजबूत होती गई उसकी हँसी मंदी होती गई ...

ओमकार ने सरदारजी की नौकरी छोड़ रेलवे में नौकरी ले ली... वो रेलवे क्वाटर में रहने लगे कभी मुम्बासा, तो कभी गिलगिल तो कभी...कम्पाला .. एक दिन जब वो घर लौटा तो वह पेड़ पर चढ़ी पड़ोस के बच्चों के साथ नाशपाती तौड़ रही थी... उसे बहुत डांट पड़ी, ओमकार ने उसपर घर से बाहर निकलने के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया .... कई बार जब वह जल्दी घर लौटता, दबे पाँव छत पर चढ़, चुपचाप देखता वह क्या कर रही है कभी वह पड़ोस में जाती तो पीछे - पीछे उसे बुलाने पहुँच जाता....शाम को आकर वह रोज पूछता वह कहाँ -कहाँ गई और क्यों गई ... परमजीत को लगता ओमकार घर से निकलने के बाद भी अपनी आँखे घर छोड़ जाता है जो उसका हर समय पीछा करती हैं बाईस साल कि उम्र में वह चार बच्चों कि माँ बन गई उसकी गिलहरी वाली चाल कब में गुम हो गई उसे खुद को पता ना चला लेकिन उसके गालों की लाली और आँखों में मासूमियत उसी तरह बरकरार रही...

ओमकार का परिवार ईदी अमीन के कहर से बच अपने महाद्वीप, देश, गाँव, घर और घेर लौट आये ...तब उन्हे नहीं मालूम था कुटुंब का कहर उनका इंतज़ार कर रहा है परमजीत ने धीरे - धीरे वो सभी काम सीख लिए थे जो उसने दो बीघा ज़मीन और मदर इंडिया में औरतों को करते देखा था, वह सुबह चार बजे उठती, गावं कि औरतों के साथ लोटे में पानी लेकर अँधेरे में जंगल जाती, लौट कर चक्की पर गेहूं और चने पीसती, दही बिलों कर मक्खन निकालती, घर और आँगन बुहारती, गोबर हटा बैल और गाय को चारा देती, हैण्ड पम्प से पानी खींच कर भरती, नौकरों के लिए मिस्सी रोटी, बच्चों के लिए परांठे चूल्हे पर बनाती, फिर पानी गर्म कर, बच्चों को नहला- धुला कर स्कूल भेजती. फिर बिटोडे पर गोबर भी पाथने जाती....खेत पर कभी वह रोटी देने नहीं गई, ओमकार अक्सर सवेरे ही साथ ले जाया करता था, रेलवे कि नौकरी में रोज टिफिन ले जाने कि उसकी आदत यहाँ भी बरकरार रही...

दोपहर में यदि वो थक - थका कर लेट जाती तो जेठानी कभी चारा काटने कि मशीन चालू कर देती या रेडियो उंचा सुनने लगती, शाम को वह खाना बनाने बैठती तो जेठानी छाछ को उछाल - उछाल कर गेहूं और दालें साफ़ करने लगती और वह भिगोना और परात को उड़ती धुल से बचाने कि कोशिश में जुट जाती... जेठानी खाना अलग बनाती क्योंकि जब कभी ओमकार शहर जाता बच्चों के लिए अंडे लाता जिन्हें वह उबाल कर बच्चों को दिया करती थी ... वह कितना भी अंडे के छिलके छुपा ले किन्तु वो सफ़ेद दुकड़े जेठानी की नज़रों को ढूंढ लेते थे ... वो आस -पड़ोस की औरतों के लिए कभी अंडे के छिलके मुर्गी की हड्डी तो कभी गाय की हड्डी बन जाते... गाँव के बड़े- बूढे, नौजवान, ब्याही, बिन ब्याही औरतें, मेहमान और बच्चे सभी में वह " पंजाबन " के नाम से जानी जाती... यहाँ तक कि उसके चारों बच्चों के नाम भी एक हो गए वे स्कूल और स्कूल से बाहर वो चारों " पंजाबन के" कहलाने लगे ... क्योंकि वह गावं वालों से अच्छा पहनते थे... अच्छा खाते थे इसलिए वह "पंजाबन के" भी ज्यादा कहलाते थे...


जेठ को उसका पका खाना बहुत पसंद था कभी बेंगन का भरता, भरवा टिंडे, भुनी भिन्डी, दम आलू, घिया के कोफ्ते, पालक का साग, आलू- बड़ी, मसाला चना, गाजर-मेथी, खीरे का रायता, पुलाव और रोज नयी दाल, अक्सर वो बच्चों को भेज कर दाल और सब्जी मगाते और जेठानी को कोसते " कुछ सीख ले बहू से... आलू टमाटर का घोल बनाते - खिलाते जी ना भरा तेरा.. " दीवाली पर एक बार परमजीत की देखा देखी जेठानी ने भी गुलाब जामुन बनाये जब वह मुह में अखरोट तरह चबे तो सवेरे गाय को खिलाने के काम आये .. परमजीत ने जो कटोरदान भर बच्चों के हाथ भिजवाये थे उन्हे जेठानी ने अपने हाथ के बने कह कर जेठ को खिलाये ....

परमजीत अब सिर्फ सूती साड़ी पहनती थी, जिसे ओमकार दिवाली और होली पर लाकर देता, रेशमी सलवार कमीज़ बक्से में बंद हो गए, हर साल बरसात के बाद उन्हे बक्से से निकाल कर धूप में सुखाती, जेठानी हमेशा सलाह देती दे-दिवा क्यों नहीं देती? क्या करेगी इन्हें संगवा कर? जेठानी की लड़कियों के बड़े हो जाने पर परमजीत ने अपने सलवार कमीज़ उन्हे पहने को दे दिए... परमजीत घर से बहुत कम निकलती थी, जब कभी वह पहन ओढ़ कर बाहर निकलती तो घेर, दालान, हुक्का, छतें, सडकें, कुँए, खेत, टोकरे, पेड़, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, हरियाली, कबूतर उसे पीछे मुड़ - मुड़ कर देखते..

पड़ोस में कुनबे में लड़के की शादी हुई है, दोपहर से ढोलक और गीत गाने की आवाज़ आ रही है... वह घर का काम निपटा कर बनारसी साड़ी पहन कर तैयार हुई, बालों को बाँध कर जूड़ा बनाया, हाथ के नाखूनो में पिन से खुरच कर राख और मिट्टी निकाली, फटे पैरों कि एड़ियाँ रग ड़ी और नाखूनों पर नेल पालिश लगाईं, गले में मां का दिया सोने का हार और कानो में सास की दी हुई झुमकियाँ पहनी , लाल रंग का कश्मीरी कढाई का शाल खोल कर कधों पर डाल लिया.. छः साल की बेटी को नयी फ्रॉक पहनाई, उसकी दो चोटी बना गुलाबी रिबन बाँध दिया.. उसकी अंगुली पकड़ वह ढोलक की थाप की और मुड़ ली .... आँगन खचाखच भरा था .... दुल्हा - दुल्हन कंगना खेल चुके थे ....उनके आगे रखी परात में दूध और उस पर दूब तैर रही थी ... वह बेटी का हाथ पकड़े... बैठी औरतों के बीच दरी का टुकडा ढूंढ पाँव बचा - बचा कर रख रही ... शगुन देने के लिए धीरे - धीरे दुल्हन की और बढ़ रही थी... ढोलक और चम्मच की थाप पर औरतें बधाई गा रही थी.... जैसे ही बधाई समाप्त हुई. ढोलक कि थाप बंद हुई ... " आ गई तू पंजाबन... " उसने पीछे से सुना ... कुछ औरतें हे हे करके हंसने लगी.... परमजीत पीछे मुड़ी और आँगन में तड़ाक की आवाज़ गूंज गई ...और एक मुर्दाई खामोशी छा गई ... जिसको परमजीत की आवाज़ ने तोड़ा ...वो औरतों कि तरफ इशारा कर बोली .. बन्ना गाओ ...चुप क्यों हो गई .... ढोलक फिर से शुरू हो गई और गाना भी ... बन्ने तेरी दुल्हन चाँद सी रे ..... और सभी ने साथ आवाज़ मिलाई ...

परमजीत दुल्हन का घूंघट हटा मुंह देख, शगुन देकर उसके पास बैठ गई और सभी के साथ मिलकर गाने लगी- बन्ने तेरी दुल्हन चाँद सी रे... उसे अपना दुल्हन वाला चेहरा याद आया, गोटियाँ याद आई, चाक़ू याद आया, वह अपने आप से शर्मा गई ....उसके गरम खून कि लाली उसके गालों पर दमकने लगी ...
तड़ाक की आवाज़ सारे गावं पर बिजली की तरह गिरी और उस दिन के बाद किसी ने उसे पंजाबन और उसके बच्चों को पंजाबन का नहीं कहा ..
 
पेंटिंग - गूगल सर्च इंजन से   

Thursday 5 November 2009

कहीं तुम उन्हे मसीहा और दोस्त ना समझ लो....




कैसी हो? जब कोई अचानक बस इतना सा पूछ बैठे तो कई बार ऐसा क्यों होता हैं ऐसे सरल प्रश्न का उत्तर "ठीक हूँ" कहने के बाद भी वो जान लेते हैं कुछ भी ठीक नहीं है वो  सब कुछ जो तुमने नहीं कहा, उन्होंने सुन लिया .... उन्हें तुम्हारे आस-पास उड़ता धुँआ तुमसे भी अधिक साफ़ दीखता है... उस "ठीक हूँ" में उन्हें एक ही वेवलेंथ पर सिग्नल टकराने की संभावना दिखाई देती है... उनके पूछने के ढंग में ऐसा क्या है कि " कैसी हो" सुनते ही मन और आत्मा अपनी जगह से उछल कर हवा में तैरने लगते हैं और वो उन्हे बिना मुखोटे के और निर्वस्त्र देख लेते हैं .. ऐसा क्यों लगता है वह तुम्हारे साथ डिब्बे में सफ़र करना चाहते हैं, खिड़की वाली सीट तुम्हें दे तुम्हारी किताब मांग कर पढ़ना चाहते हैं,... तुम्हारे पाँव की यात्रा कि लम्बाई जानना चाहते हैं... तुम्हारे दर्द की गठरी खुलवा उसमें मुसे पड़े दर्द को इस्त्री कर, जिससे की वो दिल और आँखों को कम से कम चुभे, करीने से लगाना चाहते हैं , .... वो धरकनो के पन्ने पलट, प्यार में मिले जिंदा पलों कि खुशबू सुंघ और उसमे मिले आंसू को गिन तुम्हे पाब्लो नरूदा की कविता सुना, प्यार में खोया विशवास लौटाना चाहते हैं ...वो तुम्हारे नैन- नक्ष पर फितरे कस माथे के बलों की जगह तुम्हारे चेहरे पर हंसी की खेती करना चाहते हैं ... वो तुमसे तुम्हारे गुनाह उगलवा उन्हें तराजू में रख तुम्हारा पलड़ा अपने से हल्का बता डंडी मारना चाहते हैं... वो तुम्हारे बचपन में लगी चोट के निशाँ की कहानी कोरी किताबों के पन्नो को सुनना चाहते हैं ... वो जिन्दगी और दुनिया से मिली ठोकरों का बेंक बेलेंस जानकार तुम्हारा अकाउंट खाली करना चाहते हैं... वो गुमी खुशियों कि चाबी ढूढना छोड़ तुम्हारे अंतर्मन का ताला पतझड़ और पर्वतों से तोड़ना चाहते हैं... वो सपनो की ताबीर को नींद से बाहर निकाल तारों से उनकी सिफारिश करना चाहते हैं... वो तुम्हे घर की खिड़की से सुरज कि दस्तक और चांद की चाशनी चखाना चाहते हैं ... वो तुम्हारी जिंदगी में हवा के झोंके कि तरह आकर, शाम की घूप की तरह सिमटना चाहते हैं वो तुम्हारे खामोशी को सरगम दे तुम्हारा साज़ बनना चाहते हैं, वो तुम्हारा आकाश ढूंड, वहां पर लिखा तुम्हारा नाम  पढ़वा उसका कोना तुम्हारी अंगुली से बाँधना चाहते हैं वो दराज और सपनो में कैद कुलबुलाहट को पंखो में बदलने का नुस्खा तुमसे बाँटना चाहते हैं ...

कहीं तुम उन्हे मसीहा और दोस्त ना समझ लो, उनके दिए-लिए पर अपना हक़ ना मान लो ... वो तुम्हे ढूंढ कर तुम्हे वापस लौटा, रूमी और हाफिज़ को तुम्हारा सगा बना, वर्तमान और भविष्य को तुम्हारे हवाले कर, मुस्कुराते हुए तुमसे विदा ले, तुमसे दूर जाना चाहते हैं ...

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