Saturday 16 January 2010

जिस रिश्ते को तुमने उस रात वन नाईट स्टेंड होने से बचा लिया...



"पहचाना तुमने?..." वो अचानक प्लेट थामे भीड़ में रास्ता बनाते हुए उसके सामने आकर खड़ा हो गया..
"नहीं तो..." वो उसकी तरफ चेहरा उठा आँखें गोल करती हुई बोली.. "अरे! मैं तुम्हारा जूनियर रोहन ... जिसके प्रेम पत्र को तुमने बिना पढ़े चीथड़े - चीथड़े कर वापस थमा दिया था ".. वो उसकी आँखों में आखें डाल कर मुस्कुराते हुए बोला ...
"मुझे ना तो वह वाकया याद है और ना ही तुम्हारा नाम "... वो पीछा छुटाने के मूड में थी ...
" चलो कोई बात नहीं मैं बता देता हूँ तुम जे अन यू में मेरी सीनीयर थी और मैं तुम्हारा सीक्रेट एड्माईरर , डेलीगेशन लिस्ट में तुम्हारा नाम देखा और यकीन हो गया यह कोइ और अंकिता हो ही नही सकती और लंच तक तुम्हें ढूंढ निकाला ... अंकिता तुम आज भी उतनी ही खूबसूरत दिखती हो जितनी बारह साल पहले थी ... कांफेरेंस के बाद क्या कर रही हो? ...क्या हम इसके बाद मिल सकते हैं ? ".. उसने बिना कोई भूमिका बांधे अतीत और वर्तमान एक पल में कटे नीन्बू सा निचोड़ दिया...
अपना नाम उसके मुह से सुन कर उसका मन थोड़ा हेरान हुआ और चेहरा नरम ..
"क्यों फिर से लाइन मारोगे ?" अनायास ऐसा प्रश्न पूछ कर अजनबी के प्रति अपने खुलेपन से सकपका गई..
"नहीं! सीधा सेडीउस करूंगा !.. रिसेप्शन पर मेरा इंतज़ार करना!".. रोहन अपना चेहरा अंकिता के चेहरे के नज़दीक लाकर बोला .."सेडीउस" शब्द को सुनकर चौंकती निगाहों को नज़रंदाज़ करता वह हंसता हुआ वापस मुड़ गया ...
धडकनों की आवाज़ पसलियों से निकल कानो से टकराने लगी .. जैसे किसी अजनबी ने पुराने खनडर में दाखिल हो उसका नाम बार -बार पुकारा हो... उसकी गूंज उसे उद्वेलित कर रही थी ..., ढेरों सवाल उसके ज़हन में लहरों कि तरह उछलने लगे....हाल में बुफे लन्च करते लोगों के चेहरे उसके लिए अद्र्श्ये हो गए और भीतर की हलचल वातावरण के कोलाहल पर हावी हो गई ..

बारह साल बाद, आठ हज़ार मील दूर एक जूनियर का इस तरह टकरा जाना और इतनी अतरंगता और सहजता से मिलना उसे अचम्भित ही नहीं ..भीतर तक हिला गया.....वो औपचारिकताओं की आधीन है और इस तरह का अपनत्व और निमंत्रण की आदि नहीं रही.. बचे सेंडविच और वेफर की प्लेट मेज़ पर सरका, कांफेरेंस पेक के पन्ने पलटने लगी दस मिनट में शुरू होने वाली वर्क शॉप .. जिसे वह संचालित करने वाली है रोहन का नाम वहां ना देखकर राहत कि सांस ली ...

वर्कशाप के आरम्भ, मध्ये, अंत के वार्तालापों... चवालीस आखों को विषय पर केन्द्रित करने कि कोशिश... स्क्रीन पर बदलती आसमानी स्लाइड्स... पानी के ग्लास को बार -बार होठों पर लगाने... एयर कंडिशनर से निकलती बासी हवा और चार्ट पर मारकर पेन कि सरसराहट के बीच... मस्तिष्क के कांटे उससे एक ही सवाल करते रहे .. वह अपने आप को एक अनजान का निमन्त्रण स्वीकार करने की इजाज़त दे सकती है या हमेशा की तरह होटल के कमरे के पराये से वातावरण में बोरियत और अकेलेपन को चाय की चुस्की के साथ सुड़कते हुए छ बार कांट- छांट किये प्रेजेंटेशन को सिर्फ बारीक कंघी से संवार सकती है ...


कांफेरेंस समाप्त होते ही उसकी नज़रों से बचने के लिए वह हाल से पहले निकलने वालों में थी ...
"अंकिता ...." उसने अपना नाम सुना ..वो रिसेप्शन पर पहले से ही मौजूद था ...उसे झल्लाहट हुई इतनी जोर से उसने उसका नाम लिया है .. कांफेरेंस हाल से निकलते लोगों नज़रें उस पर थी .. .. ..
"तुम ठहरो! मैं यह बेग कमरे में रख कर आती हूं .. यहीं छठी मंजिल पर है कमरा.." रोहन को देखते ही वह बोली...जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो..
"समझ लो! तुम्हारा बेग छठी मंजिल पर तुम्हारे कमरे में पहुँच गया "..रोहन ने उसके हाथ से बेग ले लिया .. बिना उसका जवाब सुने वह बाहर निकल सीढियां उतरने लगा .. अंकिता के तेज़ चलते कदम रोहन के क़दमों कि रफ़्तार पकड़ने को बाहर लपके ...

"हम कहाँ जा रहे हैं..."
"मेरा एपार्टमेंट यहाँ से एक किलोमीटर कि दूरी पर है आज तुम्हें मैं अपने हाथ का बना खाना खिलाउंगा.."
"तुम्हारा एपार्टमेंट?"
" मैं तीन महीने से कम्पनी के खर्चे पर यहाँ हूँ और परसों वापस लौट रहा हूँ ..बस! तुमसे मिलना बाकी था.."
"नही! खाना कहीं बाहर खायेंगे..." उसने सख्ती से कहा...
"अरे! एक तो तुम्हारे पर्स का ख्याल है तुम्हारे देश में मेहमान होकर भी तुम्हें खाने पर बुला रहा हूँ मुझे तुम इस सुख से वंचित ना करो...
"डरो मत! एक पट्ठा और भी मेरे साथ रहता है..."
यह  उसका आश्वासन था या मज़ाक? अंकिता निर्धारित करने की कोशिश कर रही थी ... वह इस बात से हेरान थी कि उन दोनों के बीच के सभी निर्णय वह ले रहा है और उसके दीमाग के काँटों और दिल की आशंकाओं को परास्त कर रहा है रोहन के साथ चलते हुए अब उसे अपने से हाथापाई करने कि ज़रुरत महसूस नहीं हो रही और वह अजनबी पर भरोसा कर सकती है यह उसका अंतर्मन कह रहा है....

जेब्रा क्रासिंग पर सड़क पार करने को रोहन ने उसका हाथ ऐसे थमा जैसे पांच साल के बच्चे सड़क पार करवा रहा हो ... सड़क पार करने पर भी उसने हाथ नहीं छोड़ा और अंकिता यही सोचती रही कि हाथ कैसे छुड़ाया जाए और कठपुतली सी उससे एक कदम पीछे चलती रही...

"तुम्हें कोई एतराज़ तो नहीं इस पीक आवर की भीड़ और ट्रेफिक में कहीं तुम्हें खो ना दूँ ..." ऐसा कह कर उसने अंकिता को हाथ छुड़ाने की पशोपश से भी मुक्त किया...रोहन एक ऊँची इमारत के आगे रुक गया और उसका हाथ छोड़ .. अंगुली से इशारा कर..अपने अपार्टमेन्ट की खिड्की दिखाने लगा .. जहाँ उसकी कमीज़ सूख रही थी..

शीशे के दरवाज़ों को धकेल्ने से पहले .अंकिता के लिए दरवाज़ा पकड़ कर खड़ा हो गया.... लोबी में घुसते ही वह टूटी-फूटी फ्रेंच में केयर टेकर से बात करने लगा ..उनकी बात से उसे अंदाजा हो गया कि रोहन का फ्लैट मेट ..डिनर के लिए बाहर गया है देर से लौटेगा .. केयर टेकर ने उन दोनों कि तरफ मुस्कुराते हुए रोहन को चाबी दी ... लिफ्ट का इंतज़ार करते हुए वह उसके कानो के नज़दीक आकर बोला ...

"बहुत लकी हो...तुम्हारे साथ-साथ मुझे भी पट्ठे से छूटकारा मिला.. उसकी तारीफें उसके मुंह से सुन- सुन कर हम दोनों इतना एडवेंचरस समय गुजारते की तुम भविष्य में किसी का निमंत्रण स्वीकार करने से बेहतर आत्महत्या करना ज्यादा पसंद करती ...वैसे मैं भी उस खिड़की पर खड़ा होकर कई बार सोच चुका हूँ .. " वो अंकिता के होठों पर मुस्कान लाने में सफल रहा .. दोनों लिफ्ट में चुपचाप थे .. रोहन एकटक उसकी और देखता रहा और वह उससे और लिफ्ट में लगे शीशों से नज़र चुराती रही..


ज़मीन पर बिखरी मैगजीन, खुला लेपटाप, टेबल पर अनगिनत गोल- गोल चाय के निशाँ, भरी एशट्रे, खिड़की में ख़त्म हुई चाय के खाली कप, कुर्सी पर पड़ा तौलिया, टेबल लेम्प के पास बिखरी डाक और सी दी, इधर उधर मुसे हुए टिशु बता रहे थे इस एपार्टमेंट में रहने वाले कौन हो सकते हैं... उसने कुर्सी से तौलिया हटा कर बैठने के लिए जगह बनाई.. खुद नीचे कालीन पर बैठ गया ...
दो कप मीठी चाय, दो कप काली चाय, कमरे कि चार दिवारी, दोनों के बीच से गुजरती अनछुई मासूम हवा.. आँखों में जाल बुनता विश्वास ... तीन घंटे जैसे तीन पल ...दोनों सिर्फ एक शाम की तन्हाई बांटना चाहते थे किन्तु दो चेहरों ने बिना किसी मुखोटे के ..जिंदगी का हर वो पन्ना बाँट लिया जिससे वो स्वम भी अनिभज्ञ थे... वो हेरान थे उनके पास इतना जमा था एक दुसरे से बांटने को ...जो वह आजतक किसी और से नहीं बाँट पाए . ..जीवन में पड़ी सिलवटों को, हिस्से में आई ठोकरों को, ना मिले मुट्ठी भर आसमान को, जीवन के इंद्र धनुष रंगों को, जिंदगी के कोनो में छुपी ख़ुशी को, दिन के उजाले में देखे सपनों को, विकल्पों के अभाव को, मजबूरियों को, उपलब्धियों को, टिक टिक पर बसी चुनोतियों को, मानसिकता पर जम आई धूल को, रोज मुंडेर पर आकर बैठने वाली लालसाओं को, बेबाक कल्पनाओं को, रिश्तों से मिले अपनेपन और उपहास को, जाने -अनजाने में हुए गुनाहों को ...बिना किसी लागलपेट के एक दुसरे से बाँट सके ... दोनों एक दुसरे को वहां छु सके ..जहाँ अभी तक किसी ने नहीं छुआ था ... आत्मा की खामोशी को छुआ और उसे भीतर सहेजा बिना किसी आपेक्षा और उम्मीद के... उस कमरे की  हवा पंखुड़ी जैसी हलकी और खुशबूदार थी ...मन और आत्मा को एक दुसरे के सामने निर्वस्त्र कर स्त्री -पुरुष के आकर्षण की विवशता की जगह दोनों के बीच इंसानियत का आहान था .. दो इंसानों के बीच संवेदनशीलता, जागरूकता और सघनता थी ... ...दोनों ने आजतक कभी दीवारों को भी नहीं बताया था कि रोहन को शब्दों से खेलना अच्छा लगता है और अंकिता को केनवास पर रंगों से.... शायद किसी ने कभी उनसे पूछा ही नहीं...
दोनों ने चुपचाप खाना खाया ... उनके बीच की खामोशी... बातों से भी गहरी और बातूनी थी..
रोहन कि नज़रें तो जैसे उसके चेहरे पर फ्रीज़ हो...पलक झपकना भी भूल जाती..जब भी ऐसा होता ...वह असहज होने लगती ..अपनी असहजता छुपाने को उसने खामोशी तोड़ी और बोली...
"बेंगन का भरता अच्छा बना है..."
"और दाल?.."
"पानी और नमक दोनों ज्यादा हैं .."
"तुम दाल-चावल छोड़ दो ...इसी तरह दो-दो दाने चुगती रहोगी तो सुबह तक ख़तम करोगी..
उसने वहीँ चम्मच प्लेट को सौंप दी ...
अंकिता ने बर्तन रसोई में रखने के लिए रोहन कि मदद करनी चाही.. रोहन ने उसके हाथ से प्लेट ले ली और बोला .. "तुम यह वाइन का ग्लास खाली करो इसे सिंक को पिलाने में मुझे अति कष्ट होगा.."

वह पानी, बर्तन और उसके गुनगुनाने की आवाज़ सुनती रही.. अपना कोट पहन वह पर्स और बेग समेटने लगी ..
" साड़े दस हो चले हैं चलो काफी बाहर पियेंगे और तुम्हें मैं होटल छोड़ दूंगा .."
"मैं काफी नहीं पीती..."
"तो मुझे पिला देना.."
सडकें खाली थी, हवा में नमी थी, हलकी -हलकी बारिश हो रही थी, .. बोलती खामोशी उनके साथ थी... "तुम्हारा हाथ पकड़ सकता हूं?..." वो चौंक गई .. इससे पहले कि वो हाँ या ना कहती रोहन की हथेलियाँ उसकी अंगुलियाँ गिनने लगी.. आसपास का ट्रेफिक, लेम्प पोस्ट, होटल और दुकानों के चमकते साइन बोर्ड और विज्ञापनों कि चकाचौंध उसे ऐसे दिखी जैसे हवाई जहाज से ज़मीन दिखती है ..
वह हर कफे में घुस कर देखता और मना कर देता .. कहीं उसे भीतर का शोर बुरा लगता, कहीं वेटर की शक्ल तो कहीं केफे की दीवारों का रंग ..
"लो! तुम्हारा होटल आ गया, अब यहीं काफी पीते हैं.."
अंकिता ने एक काफी का आर्डर दे .. रिसेप्शन से चाबी ली..होटल का रेस्तरां बंद हो चुका था...
कमरे की रौशनी में उसे देख कर रोहन बोला अरे तुम भीग गई हो.. कपड़े बदल लो..कह कर वह सोफे पर बैठ गया.. अंकिता ने कोई जवाब नहीं दिया और वह सोफे से दूर बिस्तर पर बैठने वाली थी तो रोहन ने इशारा किया सोफे पर बैठने के लिए.. वह उसके पास बैठ गई ...दोनों के बीच में छ इंच का फासला था..वहउसका हाथ अपने हाथ में लेकर नसे दबाने लगा...वह सवाल पूछ रहा था हाथ पर निशाँ देखकर ...किन्तु वह कुछ नहीं सुन रही थी .. सिर्फ उसकी गंध को साँसों में महसूस कर रही थी..

वह सोफे से उठकर उसके ठीक सामने कालीन पर नीचे बैठ गया ...और उसके दोनों पाँव हथेलियों में भरकर बोला.."यह पाँव कितनी सारी यात्राएं करके आज यहाँ पहुंचे हैं".. उसने अंकिता का हाथ पकड़ा और धीरे से अपनी और खींचा ...अंकिता रोहन कि बाहों में थी...अंकिता धीरे -धीरे एक ही शब्द बुदबुदा रही थी ..नहीं ...नहीं...नहीं.. रोहन से ज्यादा वह अपने आप से प्रतिरोध कर रही थी किन्तु रोहन के साथ अंकिता का शरीर भी उसके होंठों की बात नहीं मान रहा था .. उसका गला सूखा गया और माथा भीगा गया...

"मुझे प्यास लगी है ..." उसने कश्ती किनारे बांधने के लिए रस्सी फेंकी ...
"क्या तुम एक रात के लिए अपने आप को भूल नहीं सकती..." रोहन ने उसके कान में फुफुसाया..
"नहीं..."
सुनते ही अंकिता को अपने आगोश से मुक्त कर..रोहन खड़ा हो गया ... अंकिता ने पानी की बोतल मुंह से ऐसे खाली की जैसे किसी मेराथन से लौटी हो ...
"क्या तुम चाहती हो मैं अब चला जाऊं ?.."
"हाँ!.." अंकिता का मुह और सर दोनों एक साथ बोले ..
"चलो! मुझे नीचे तक छोड़ने नहीं आओगी?..."
"चलो!.. वह आँखें नीची किये बोली
" तुम यहीं खड़ी रहना जब तक मैं तुम्हारी आँखों से ओझल ना हो जाऊं.." वह होटल के मुख्य द्वार पर पहुँच कर बोला.. अंकिता के होठों ने इस बार रोहन की मुस्कान का जवाब मुस्कान से दिया..वह उसकी छाया को छोटे होते हुए देखती रही... अचानक छाया रूककर वापस उसे देख कर हाथ हिला रही है उसने भी हाथ हिलाया ... लेकिन छाया वहीं खड़ी हो गई है ...उसने कुछ पल इंतज़ार किया... लेकिन छाया नहीं हिली ... वह आखरी बार हाथ हिला कर अपने कमरे में लौटी तो लगा ...
कमरे की चार दिवारी, सोफा, गिलास, बेग, अलमारी, पलंग, बिस्तर, दीवार पर टंगी पेंटिंग, आइना उसे घूर रहे हैं और कमरे में रह गई रोहन की गंध के बारे में हज़ारों सवाल कर रहे हैं उसने जवाबों से बचने के लिए बत्ती बुझा दी ...लेकिन उस रात वह अपने अंतर्मन की उथल-पथल और सवालों से बच ना सकी....जिन्होंने जवाब ना मिलने पर अंकिता की नींद निगल ली ...
वह दो दिन बाद वापस लौट गया और अंकिता के पास एयर पोर्ट से उसका टेक्स्ट आया ... "यादगार शाम के लिए शुक्रिया... खुश रहना..वैसे तुमने उस रात होटल में मेरे साथ आबू गरीब के कैदियों जैसा व्यवहार किया... :-)
फिर मिलेंगे..
पांच वर्ष बीत गए और वह दोनों कभी नहीं मिले ... आज जब घर लौटी तो दरवाज़े पर एक पार्सल उसे घूरता मिला ... उसने उसे उठाया और बेरहमी से खोला... भीतर एक कविता की किताब निकली ..जिसका नाम था.."मुक्त-पल".... जिसमें लिखी एक-एक कविता को वह उसी तरह पहचानती है जैसे उसके चेहरे को आइना पहचानता है ... किताब के तीसरे पन्ने पर लिखा था ... उस अजनबी के लिए जिसकी छाया अंकित हैं मेरी जिंदगी के हाशिए में ... ख़ुशी उसकी आखों से सावन-भादों की तरह बरसी... वो पन्ने पलट रही थी ...और उनके बीच से हाथ से, नीली रोशनाई में लिखा एक कागज़ का टुकड़ा चमका ... .

"अंकिता मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूं ...इस किताब के लिए नहीं ...हमारे बीच इंसानियत के रिश्ते के लिए ... जिसको तुमने उस रात सिर्फ वन नाईट स्टेंड होने से बचा लिया ... रोहन ..."
उसने दीवार पर लगी मोनालिसा की पेंटिंग को देखा ... अंकिता के होठों की मुस्कान मोनालिसा के होठों की मुस्कान जैसी थी ....अचानक अंकिता को मोनालिसा की मुस्कान का रहस्य मिल गया था....

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