Thursday 23 December 2010

खामोशियों का सफ़र...

खामोशियाँ हमेशा से थी बाहर - भीतर, आस-पास  और भीड़ में कहीं ज्यादा.. अपने पिछले जन्म में किसी और रूप में....वो खफा-खफा, मायूस, विरक्त, क्षुब्ध, उपेक्षित ... आपेक्षाओं और सहिष्णुता  के जाल में फंसी...  खामोशियाँ काले कपड़े पहन, अंगूठा दिखाते हुए डर, द्वंद और निराशाओं के बादल लिए आसपास मंडराती थी...वो कुहासे की तरह घुप्प और सर्द .. उन्हे शीशे पर जमते हुए देखा जा सकता था... अंगुली से छुआ जा सकता था .... वो हर पल कंकर की तरह चुभती, यादों में, यतार्थ में, सोच में, सपनों में, पैरों में, नाड़ियों में, आँखों में.... नाड़ियों का खून जम जाता  और आँखे लाल रहती.. वो धड्कनों पर फाइव लीवर के ताले और अपने इर्द-गिर्द दीवारें ऊँची करने में मसरूफ थी... सुरज के उजालों में बाँधे रहती आंखों पर पट्टि और जीवन के अंधेरों को भरने के लिए बटोरती रहती इंतज़ार,  मायूसी, दर्द,  दिल के टुकड़ों के लिए जंग का खुरदरा रंग...रोबाट बने हाथ-पावों को सहलाती  और उन्हे  बहलाने के लिए पकड़ा देती हाथों में शापिंग की ट्रोली और पाँव के नीचे क्लच....खामोशियाँ एक सी सी टी वी के तरह पीछा करती... उसे गुनाह करते पकड़ने के लिए... कटघरे में खड़ा करने के लिए... गांधारी बनाए रखने के लिए .. आंखों से निकाल  खामोशी के कंकड़ को जब भी उछाल कर पानी में फेंका... ना तो पानी उछला और ना ही उसनें हलचल हुई ... हाँ आसमान से जरूर कुछ बरसा आँखों के साथ- साथ...

जिस पल आत्मा पर खामोशियों का बोझ शरीर के वज़न से अधिक हो गया और दोनों का एक दुसरे को झेलना दूभर हो गया...खामोशियों ने एक दिन खुली हवा में सांस लेने का साहस बटोरा और बस फिर क्या...  सिर्फ  एक हवा के झोंके से  ... खटाक.!..खटाक.!..भीतर के सभी बंद दरवाज़े और खिड़की हवा में झूलने लगे...  खामोशियों  ने  अमावस्या के रोज़ चांदनी पी...   अब खामोशियों को समय की धारा में डूबने से बचने के लिए तिनके की तलाश नहीं थी... उनकी निगाह आसमान पर थी... खामोशियाँ को कदमो की आहट सुनाई दी,पत्तियों के हिलने से उत्पन्न  संगीत से दिल पर कसे तार  ढीले  होने लगे...हरियाला जंगल आँखों में क्या इस तरह झांकता है? और चाँद खिड़की पर उतर आवाज़ देता है...  खुली हवा में खामोशियों के पंख खुदबखुद खुल जाते... वो घर लौटते परिंदों का पीछा करती तो कभी आसमान में हवाई जहाज़ के पीछे खींची लाइन को एक फूक से मिटा देती... आइना चेहरे से बतियाते हुए पहरन के भीतर झांकता, गोरय्या हर सुबह बिजली के तार पर चहकती, गिलहरी ठिठक कर खड़ी फिर फुदक कर झाड़ियों में गायब हो जाती, भाग्य खामोशियों के हक़ में खड़ा था और तभी  स्रष्टि ने आसमान के कान में कुछः कहा... वो ब्रुश लिए सपनों में इन्द्रधनुषी रंग घोलने लगा, वजूद खामोशियों की रूह बन इतराने लगा ... खामोशियाँ कभी सुनहरी धूप, कभी सोलह साल की अल्हड़ लड़की, कभी पतंग, कभी सीप, कभी ओस की बूंद, कभी नदी, कभी कविता, कभी पत्ती तो कभी फोटोसिन्थेसिस..... दो सिरों से बंधे आज और अभी के तार पर चलने के लिए हवा में संतुलित ... खामोशियों के लिखे बैरंग ख़त सरहदों को पार कर उनके पते ढूँढने लगे जिनसे मिलना खामोशियों के भाग्य में दशकों से दर्ज था.. खामोशियाँ को जादू आता था वो जब चाहे जेठ की  धूप,  घर के पिछवाड़े  अमरुद का बाग़, दादी का खजाने भरा संदूक, कालेज के गेट पर खड़ा उसका इंतज़ार, बंद रेलवे फाटक पर बिकती नारियल की गिरी... जो भी चाहो वो बन जाती ...

 खामोशियाँ तलाशने लगी थी एक खामोश कोना जहाँ रोज मरने से पहले कुछः देर जिया जा सके..... वो बस स्टाप के शेड और आसमान छूती इमारत की छत के नीचे, रसोई और बेडरूम की नजदीकियों  के बीच, अलार्म और बत्ती बुझाने  के बीच, बिल और रिपोर्ट की डेडलाइन के बीच, जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के बीच, प्यार और नफरत के बीच, किसी को भूलने और माफ़ करने के बीच सांस लेने लगी थी.. उन्होंने पेड़ों, परिंदों, पर्दों, प्रथ्वी और प्रक्रति को अपना राजदार बना लिया था ... खामोशियों के अपने सुख, दुःख थे... उनकी अपनी एक दुनिया थी नियति थी... जो खामोशियों ने ओस के धागे से पत्तियों पर लिखी थी, खामोशियाँ  खामोशियों में जीती थी, एक दुसरे को सुबह-शाम पीती थी, उन्ही में सोती थी, उन्ही में जागती थी, खामोशियों दिन में सपने देखती और नींद में उन्हे सच कर देती.... .वो अचम्भित थी ... खामोशियाँ टूट कर पहले से अधिक साबुत और सार्थक  हो गई ... उन्हे बड़ी राहत थी.... मंजिल का पता उनकी बंद मुठ्ठी में था और उनका सफ़र जारी था...


 फोटो- राउंडी पार्क लीड्ज़