वो दोनों केफे में बैठे हैं बहस कर रहे हैं बहस क्या सिर्फ वही बोल रही है वह चुप है या बीच -बीच में मुस्कुरा देता है आसपास के लोग आँखे बचा उसका लाल और हताश चेहरा पढ़ रहे हैं यह काफी का तीसरा कप है और केफीन उसके भीतर की उथल - पुथल को संतुलित करने के बजाये उसे और उष्मा दे रही है वह उसके लिए पानी मंगाता है उसका मन करता है पानी को गले में नहीं अपने सर पर उडेल ले .... इतने बरसों से उसे जानने के बाद भी उसे लग रहा है आज वह किसी अजनबी के पास बैठी है जैसे पहली बार मिल रही हो ... .... उसके दीमाग में उपजने से पहले, कोई भी भ्रम को उसका विशवास उन्हें विंड स्क्रीन पर पड़ी बारिश कि तरह वाइपर से पोंछ देता था उसने एक बार भी नहीं पूछा क्यों इस बार मुझे जल्दी जाने को क्यों कह रहे हो... ? प्यार और विशवास उसकी ख़ुशी के केडिट कार्ड का पिन नंबर था वह सालों से उसे कहीं भी, किसी भी समय केश करा सकती थी... अब उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में........
वो बार - बार कह रही थी... "तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो? " .. "यदि ऐसी बात थी तो क्यों आने को कहा...क्या इमानदार होना इतना मुश्किल था.... कोई बहाना बना सकते थे नौकरी का, छुट्टी का, तबियत का, हालात का... जरूरी तो नहीं था मुझसे मिलना " ... वो थक गई थी, हार गई थी उसका मौन उसे तोड़ रहा था कुचल रहा था... वो हार कर फिर कहती है "हाव कुड यू ......"
उसने अपना मौन तोड़ा और मुस्कुरा कर कहा "तुम बेवजह भावुक और पोजेसिव हो रही हो ...... आई वोंट माइंड इफ यू स्लीप विद यौर एक्स और सो..... "
उसे लगा आसमान से पत्थरों कि बारिश हो रही है सारे पत्थर उसके सर पर गिरे हैं.... वह केफे से बाहर निकल आई ... बस स्टाप पर खड़ी भीड़ उसे घूर रही है ... वह साड़ी के पल्ले को गले और दोनों बांहों पर लपेट लेती है फिर भी लगा द्रोपदी के चीर की तरह कोई उसकी साड़ी खींच रहा है... धुप, सूरज, आसमान में उड़ता हवाईजहाज, मिटटी में उभरे जूतों और साइकल के पहिये के निशाँ, खम्बा, बिजली कि तारें, ट्रेफिक, दीवार पर चिपका पोस्टर, इधर उधर पड़ा कचरा और खाली बोतलें, सड़क के उस पार बने क्वाटर, रूकती बस और उड़ती धुल.. सभी उसके चारों तरफ घूम रहे हैं गले में एक बड़े धक्के के साथ काफी बाहर आ गई... यकायक सभी कुछ घूमता हुआ स्थिर हो गया... उसके भीतर का कोलाहल भी इस स्थिरता को थामना चाहता है वह पल्ले से अपना मुह साफ़ करती है और पहले से भी तीव्र काफी की गंध के साथ केफे के अन्दर आती है उसके सामने अपनी पुरानी जगह आकर बैठ जाती है और अपने आपको फिर से विशवास दिलाती है उसने सही सुना है...
"एक बात बताओगे .."
"क्या..." वो उसकी और देखता है
"क्या तुम अपनी पत्नी से भी यही कहते? " वो उसकी आँखों में आँखे डाल कर पूछती है
वह एक लम्बी सांस खींच टेबल पर रखे ग्लास को घूर रहा है उसकी खामोशी पहले की भांति जवाब देती है..
वह सामने रखा ग्लास को एक सांस में खाली कर अपने चारों तरफ देखती है उसकी नज़र सामने कि टेबल पर बैठे अधेड़ उम्र के आदमी के साथ सटकर बैठी यूवा लड़की पर पड़ी जिसने बेहद कसी जींस, बिना बाजू और नीचे गले का भड़कीला ब्लाउज पहना हुआ है यूवा लड़की से उसकी निगाह मिलती है वह उसकी और देख लगातार मुस्कुरा रही है....
Painting - Van Gogh
19 comments:
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति और ऐसी रचनायें कभी कभी पढने को मिलती हैं कहीं गहरे से मन को छूते एहसास -----शुभकामनायें
kya kahoo...ultimate...superb...i like ur style !!
superb.....nishabd kar diya apne...
shandar rachana
ak achha pryog.
shubhkamnaye
बहुत बढ़िया ..
kahin padha tha\
love is the history of women's life but for men its an episode.
पता नही कैसे आप इतना अच्छा लिख लेती है...?? भाव दिल तक उतरते हैं और दिल में जाने क्या होने लगता है...!!!
बहुत अच्छी कहानी
amazing writing boss..
kuch kahne ke lioye shabd hi nahi hai ji
meri badhai sweekar karen..
Aabhar
Vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/07/window-of-my-heart.html
ज्यादातर इस पुरुष पात्र से से अलग नहीं हैं बस फर्क इतना है कि वे दिखावे के लिए ये नहीं कहेंगे कि तुम कहाँ क्या कर सकती हो ? परन्तु किसी भी स्त्री का आखिरी सवाल यही होगा कि क्या तुम ये अपनी पत्नी से कह सकते हो?
सामाजिक वर्जनाओं के बीच [ हमारे देश भारत में ] एक देहिक उपभोग का कल्चर भीतर तक पहुँच चुका है इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है किन्तु चरित्र भीरु इसे प्यार और मजबूरी का नाम देकर अंजाम देने में लगे हैं. यहाँ किसी की देह के प्रति आकर्षण को अभिव्यक्त करने के लिए सीधे वाक्यों का उपयोग करने का साहस अभी दूर है अतः आपकी ये कथा या दृश्य उतना ही सजीव है कि मैं चौंक उठता हूँ कहीं आप मुझे जानती तो नहीं हैं
प्यार और विशवास उसकी ख़ुशी के केडिट कार्ड का पिन नंबर था वह सालों से उसे कहीं भी, किसी भी समय केश करा सकती थी.
बहुत खूब ,आपके प्रतीक नूतन और गहरे अहसास लिए होते है .
"क्या तुम अपनी पत्नी से भी यही कहते? " वो उसकी आँखों में आँखे डाल कर पूछती है ....... यह एक सवाल सम्पूर्ण घटना क्रम को स्पष्ट कर देता है ,सुन्दर शिल्प .
सच कहूं तो मुझे समझ नहीं आता की आपने क्या लिखा है फिर भी मैं हर पोस्ट पढता हूँ और ये मुझे अपनी ओर खीचती हैं, शायद एक दिन समझ पाऊँ |
दूसरी औरत का बेलेंस हमेशा माइनस में ही रहता है.........ग्रांटेड....... सर्टिफाइड .....गयी भी तो भी इधर बेलेंस पोसिटिव ही रहेगा न...
कितना कुछ है न कहने को ..एक छोटी सी जिंदगी में ....
Most readers assumed that the male character in the story is not single but that is irrelevant what difference does it make if the female character is a first or second woman in his life. The underlying issues are:
1. two wrongs does not make one right
2. respect and dignity of any woman is paramount even he stops loving her
नीरा जी,
विचार का होना और किसी संक्रमण की तरह चिंतन जगाना किसी भी माध्यम में साहित्य का उद्देश्य होता है फिर वह चाहे औपान्यासिक, कथा, लघुकथा, प्रहसन, व्यंग्य, कविता, अकविता, हाईकू आदि।
उसक बैलेंस हमेशा के लिये माईनस में.... एक ऐसी ही सशक्त रचना है।
कसा और सधा हुआ लेखन पाठक को पूरा पढे बगैर हिलने नही देता।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
पुरुष का प्रेम उसी अधूरी परिभाषा के साथ देह की प्रदक्षिणा करता नज़र आता है.
हमेशा के तरह आपके हाथ जीवन -गाड़ी के जटिल कल पुर्जों का दक्षता से संचालन करते लगे.
इस रचना को और विस्तार दिया जा सकता था ...।
दृश्य चित्रण और अंतर्मन के भाव दोनों ही सशक्त हैं...प्रभाव छोड़ती रचना
very touchy....!!
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