मोटी- मोटी आँखे, लम्बी गर्दन, गोल चेहरे पर नीचे निकली तिकोनी ठोडी, लंबी मोटी नाक कोई एक को देखकर दूसरी को पहचान लेता है ... जो पाँव बचपन में अंगुली पकड़ दोड़ते थे अब बड़े होने पर नाट्यडव और अडव सीखने के लिए होम वर्क छोड़, चूडीदार पहन उसका इन्जार करते और वो शाम को आफिस के बाद रसोई छोड़ टेक्सी किया करती, उसे उतार कर कम्यूनिटी सेंटर के कार पार्क में आफिस की फाइल को पहले तो बिना खोले घूरती फिर खोल कर... दोनों दबे पाँव घर घुसती... अपराधियों की तरह... कहीं यह सुनने को ना मिल जाए "भरत नाटियम सीखना जरूरी नहीं है पढ़ना जरूरी है"... हाई स्कूल में उसके साथ की लड़कियां पता नहीं क्या क्या कर रही हैं वह तो कभी - कभी सहेली के जन्मदिन में जाने की इजाज़त मांग रही है.. इतवार को मंदिर में कल्चर क्लास, बुधवार को कम्यूनिटी सेंटर में हिंदी और शुक्रवार को गुरूजी के घर क्लास्सिकल डांस..... वह सिर्फ उन लोगों के घर स्लीपोवर कर सकती है जिनके घर के किसी कोने में मूर्ति है या गुरुनानक का कलेंडर है... स्कूल की छुट्टियों में आत्मीयता और दुलार से भरी रिश्तों की छत पर दून घाटी में खुशबू बटोरने का टिकट हर साल....
दो संस्कृति के बीच रहना रस्सा खीचने के खेल के समान है आखिर जीत तो उन्ही की होगी जिस तरफ हाथ ज्यादा हैं जिनके पाँव के नीचे की ज़मी अपनी है हवा अपनी है आसमान अपना है ...वैसे भी किन्डर गार्डन से मैं मैं.... मैं... "सिर्फ मैं" के मन्त्र के सामने शाम की आरती की घंटी की आवाज़ हवा में गुम होनी ही थी... भेड़ के झुंड में भी अपनी अलग पहचान बना कर उनके साथ चलना सीखा सकती है, हजारों मील दूरी से भी अपने जड़ों की मिटटी की खुशबू सूंघा सकती है बेमौसम, बेहिसाब पड़ती बरफ, बिजली, आंधी से बचा सकती है... किन्तु वह उसे इतिहास के हर कोनो में अन्याय को न्याय, जुल्म को खिदमत साबित करती और स्वयं को दुनिया में सर्वेश्रेष्ठ घोषित करती मखमली ज़मी की फिसलन पर चलने से, गिरगिट की तरह रंग बदलते आकाश की चकाचक रौशनी को सूरज मान लेने से... बर्फीली, शुष्क, हड्डियों को भेद आत्मा को सुन्न करती हवा में सांस लेने से नहीं रोक सकती ... संवेदनाओं और भावनाओं को काफी में मिला कर नहीं पिला सकती..
हमेशा से घर की चौखट के बाहर सब पराया था... सड़क, पगडण्डी, घास, रौशनी, अँधेरा, बर्फ, आकाश, लेम्प पोस्ट, घड़ी की सुइयां, आचार- व्यवहार, मूल्य, आहार, चेहरे, शब्द, जुबान, संगीत, आलाप, भगवान् ... अब ऐसा क्यों लगता है चौखट के भीतर की छत, नींव और दीवारें भी पराई हो गई हैं ...क्या उसे मालुम नहीं था उदर की गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.......
फोटो- गूगल सर्च इंजन से
14 comments:
ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति .पढ़कर आनंद आ गया . धन्यवाद.
वक़्त बीतते बीतते पता ही नहीं चलता की कब गंगा नदी के पास हैं और कब थेम्स नदी के देश....
इंसानी जद्दोजहद...और घर की चौखट के भीतर से कब बाहर हो जाते हैं ...पता ही नहीं चलता....और जब पता चलता है तब अन्दर की चौखट भी कहीं दूर रह जाती है या छूट जाती है
आपको पढ़ना हमेसा अलग सी अनुभूति देता है नीरा जी ...बहुत अच्छा.
आपको पढ़ना हमेसा अलग सी अनुभूति देता है नीरा जी ...बहुत अच्छा.
मैं आपकी पोस्ट को पढ़ता हूँ , सोचता हूँ कि वे कौनसे मूल्य थे जो किसी ने नहीं दिए फिर भी चुपके से हमारे भीतर चले आये हैं. खींच खींच लाते हैं जड़ों की ओर. बहुत सुंदर और भावुक कर देने वाली पोस्ट.
बहुत सुंदर. अच्छा लगा पढ़कर.
दो संस्कृति के बीच रहना रस्सा खीचने के खेल के समान है आखिर जीत तो उन्ही की होगी जिस तरफ हाथ ज्यादा हैं जिनके पाँव के नीचे की ज़मी अपनी है हवा अपनी है आसमान अपना है ..जी ठीक कहा आपने......में आपके शब्दों के बेजोड़ कारीगरी पर हैरान हूँ बस लगता है लिखा नहीं कहा गया जेहन से दिल कभी दिमाग फिर कागज़ [नेट के फलक को नसीब होता है ]बधाई
क्या इस पोस्ट को पहले पढ़ चूका हूँ .?या इसी भावः को लेकर आपने पूर्व में एक पोस्ट लिखी थी....खैर आमद होती रही तो अच्छा लगेगा ...कुछ पढने वाले भी है इस देश में याद रखिये .
हमेशा से घर की चौखट के बाहर सब पराया था... सड़क, पगडण्डी, घास, रौशनी, अँधेरा, बर्फ, आकाश, लेम्प पोस्ट, घड़ी की सुइयां, आचार- व्यवहार, मूल्य, आहार, चेहरे, शब्द, जुबान, संगीत, आलाप, भगवान् ... अब ऐसा क्यों लगता है चौखट के भीतर की छत, नींव और दीवारें भी पराई हो गई हैं ...क्या उसे मालुम नहीं था उदर की गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.......
नीरा जी लाजवाब लेखन ......बहुत ही प्रभावशाली और उम्दा शब्दावली .....!!
भीतर बहती नदी धीरे धीरे अपना प्रवाह बदलती, संकुचित होती, और अंततः किसीअन्य तीव्र बहाव से अपदस्थ होती, या रूपांतरित होती....
ये रूपांतरण कितना स्थायी होता होगा, नहीं मालूम.
प्रारंभिक अंश अत्यंत कमाल का लगा.
नीरा जी बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है , आंतरिक जद्दोजहद को जिस तरह आप ने शब्द दिए है अद्भुद है
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
यह बेहद स्वाभाविक भी नहीं है क्या?
Such nice article, keep it up.
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ. बहुत अच्छी रचनाएँ पढ़ने के लिए मिलीं. बधाई.
महावीर
मंथन
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