Thursday 19 November 2009

तड़ाक की आवाज़ सारे गावं पर बिजली की तरह गिरी....



गोरा चिट्टा रंग, लंबी काठी, गुलाब की पंखुड़ी जैसे होंठ, दिए की लौ जैसी आँखें, कमर से नीचे तक लम्बे बाल.... कोई उसका नाम जाने बगैर बता सकता था परमजीत कौर यूपी के ज़मींदार परिवार से नहीं बल्कि, अमृतसर के गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी के मालिक की बेटी है. पैदा भले ही अमृतसर में हुई थी पर पली- बढ़ी अफ्रीका में, पिता कि गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी भारत कि सड़कों को छोड़ अफ्रीका की सड़कों पर दौड़ने लगी थी... गुरुनानक ट्रांसपोर्ट कम्पनी के पास पचपन ट्रक, साठ ड्राइवर और आठ लोग दफ्तर में काम करते थे ... घर मैं तीन नौकर थे उनके बच्चों के साथ वह कंचे खेला करती थी... घर में अनाज, चीनी, आलू, प्याज बोरियों में और सब्जी फल टोकरों के हिसाब से आते थे... आठ भाई बहनों में वह सबसे बड़ी थी...

सोलहवें साल में कदम रखा ही था मां को उसकी भरी छाती और गिलहरी जैसी कूद- फांद बिलकुल ना भाती थी...उन दिनों सिख लड़कों का अफ्रीका में बड़ा अकाल था ...पंजाब से एक बुलाया भी था जिसने आते ही घोटाला किया और ट्रक का आधा माल हड़प लिया. ...यू पी का ओमकार वहीं पर काम करता था ट्रांसपोर्ट कम्पनी का हिसाब - किताब संभालता था- निहायत ईमानदार और कर्मठ और उसके पिता सरदार सुरजीत सिंह का विश्वासपात्र. ओमकार का ब्याह सोलह साल की उम्र में हो गया था और गौने से पहले ही वह कॉलेज पूरा कर उन्नीस साल की उम्र में रोज़ी रोटी कि तलाश में अफ्रीका पहुँच गया... पहले छः सालों में वह दो बार पत्नी को लाने अपनी ससुराल गया किन्तु उसने ओमकार के साथ अफ्रीका आने से साफ़ इनकार कर दिया क्योंकि परदेस में पति का तो धर्म भ्रष्ट हो चुका था वह अपने देश और माता - पिता के घर में अपना धर्म सुरक्षित रखना चाहती थी... ओमकार ने अब पत्नी से सभी उम्मीद छोड़ दी थी और अपने को अकेला मान लिया था और पिछले पांच वर्ष से वह घर नहीं गया था... सरदार सुरजीत सिंह को ओमकार की नीयत और शराफत पर बड़ा यकीन था. उन्हें मालूम था कि सब छड़े आदमी तो इधर -उधर मुह मारते रहते हैं किन्तु ओमकार ऐसा नहीं था... तभी तो उन्हे परमजीत कौर का लगन उससे उम्र में पंद्रह साल बड़े ओमकार से करने में उन्हे कोई संकोच नहीं हुआ .... माँ को तो वैसे भी वो एक आँख ना सुहाती थी... शनील का सुनहरा गोटा लगा सलवार कमीज़, सिल्क का जरीदार दुपट्टा और सुहाग का लाल चूडा पहन कर परमजीत भी बहुत खुश थी, कम से कम माँ की डांट और गालियों से तो छूटकारा मिलेगा... पर बाउजी ...वो तो उसे बहुत प्यार करते हैं... ओमकार ने लगन मंडप अपने हाथों से, परमजीत के आँगन में खुद तैयार किया था... वहीं पर खिड़की से परमजीत ने ओमकार को पहली बार देखा था उसे वो भला लगा था... ओमकार ने जब सुहागरात को परमजीत को ठीक से देखा तो एकटक देखता रह गया... वह पलंग पर बैठी गोटियाँ खेल रही थी और गोटियों के उछलने के साथ उसकी आखें ऊपर नीचे इस तरह हो रही थी जैसे अंधरे में लालटेन हिलती है उसे देखते ही परमजीत ने गोटियों को तकिये के नीचे छुपा दिया और वह माथे से खिसक आया टीका ठीक करने लगी और हडबडाहट में बिस्तर से उतर मेज़ से चाकू उठा कर बोली "तुस्सी सेब खावोगे ... " वो चाकू उसके हाथ में बंधे कलीचड़े खोलने के काम आया था... कलाई पकड़ते ही स्पर्श कि गुदगुदी से इतना हंस और हिल रही थी उसे डर था कहीं उसे चाकू ना चुभ जाए.. रात गहरी होने के साथ -साथ .. ज्यों ज्यों नजदीकियों की पकड़ मजबूत होती गई उसकी हँसी मंदी होती गई ...

ओमकार ने सरदारजी की नौकरी छोड़ रेलवे में नौकरी ले ली... वो रेलवे क्वाटर में रहने लगे कभी मुम्बासा, तो कभी गिलगिल तो कभी...कम्पाला .. एक दिन जब वो घर लौटा तो वह पेड़ पर चढ़ी पड़ोस के बच्चों के साथ नाशपाती तौड़ रही थी... उसे बहुत डांट पड़ी, ओमकार ने उसपर घर से बाहर निकलने के लिए प्रतिबन्ध लगा दिया .... कई बार जब वह जल्दी घर लौटता, दबे पाँव छत पर चढ़, चुपचाप देखता वह क्या कर रही है कभी वह पड़ोस में जाती तो पीछे - पीछे उसे बुलाने पहुँच जाता....शाम को आकर वह रोज पूछता वह कहाँ -कहाँ गई और क्यों गई ... परमजीत को लगता ओमकार घर से निकलने के बाद भी अपनी आँखे घर छोड़ जाता है जो उसका हर समय पीछा करती हैं बाईस साल कि उम्र में वह चार बच्चों कि माँ बन गई उसकी गिलहरी वाली चाल कब में गुम हो गई उसे खुद को पता ना चला लेकिन उसके गालों की लाली और आँखों में मासूमियत उसी तरह बरकरार रही...

ओमकार का परिवार ईदी अमीन के कहर से बच अपने महाद्वीप, देश, गाँव, घर और घेर लौट आये ...तब उन्हे नहीं मालूम था कुटुंब का कहर उनका इंतज़ार कर रहा है परमजीत ने धीरे - धीरे वो सभी काम सीख लिए थे जो उसने दो बीघा ज़मीन और मदर इंडिया में औरतों को करते देखा था, वह सुबह चार बजे उठती, गावं कि औरतों के साथ लोटे में पानी लेकर अँधेरे में जंगल जाती, लौट कर चक्की पर गेहूं और चने पीसती, दही बिलों कर मक्खन निकालती, घर और आँगन बुहारती, गोबर हटा बैल और गाय को चारा देती, हैण्ड पम्प से पानी खींच कर भरती, नौकरों के लिए मिस्सी रोटी, बच्चों के लिए परांठे चूल्हे पर बनाती, फिर पानी गर्म कर, बच्चों को नहला- धुला कर स्कूल भेजती. फिर बिटोडे पर गोबर भी पाथने जाती....खेत पर कभी वह रोटी देने नहीं गई, ओमकार अक्सर सवेरे ही साथ ले जाया करता था, रेलवे कि नौकरी में रोज टिफिन ले जाने कि उसकी आदत यहाँ भी बरकरार रही...

दोपहर में यदि वो थक - थका कर लेट जाती तो जेठानी कभी चारा काटने कि मशीन चालू कर देती या रेडियो उंचा सुनने लगती, शाम को वह खाना बनाने बैठती तो जेठानी छाछ को उछाल - उछाल कर गेहूं और दालें साफ़ करने लगती और वह भिगोना और परात को उड़ती धुल से बचाने कि कोशिश में जुट जाती... जेठानी खाना अलग बनाती क्योंकि जब कभी ओमकार शहर जाता बच्चों के लिए अंडे लाता जिन्हें वह उबाल कर बच्चों को दिया करती थी ... वह कितना भी अंडे के छिलके छुपा ले किन्तु वो सफ़ेद दुकड़े जेठानी की नज़रों को ढूंढ लेते थे ... वो आस -पड़ोस की औरतों के लिए कभी अंडे के छिलके मुर्गी की हड्डी तो कभी गाय की हड्डी बन जाते... गाँव के बड़े- बूढे, नौजवान, ब्याही, बिन ब्याही औरतें, मेहमान और बच्चे सभी में वह " पंजाबन " के नाम से जानी जाती... यहाँ तक कि उसके चारों बच्चों के नाम भी एक हो गए वे स्कूल और स्कूल से बाहर वो चारों " पंजाबन के" कहलाने लगे ... क्योंकि वह गावं वालों से अच्छा पहनते थे... अच्छा खाते थे इसलिए वह "पंजाबन के" भी ज्यादा कहलाते थे...


जेठ को उसका पका खाना बहुत पसंद था कभी बेंगन का भरता, भरवा टिंडे, भुनी भिन्डी, दम आलू, घिया के कोफ्ते, पालक का साग, आलू- बड़ी, मसाला चना, गाजर-मेथी, खीरे का रायता, पुलाव और रोज नयी दाल, अक्सर वो बच्चों को भेज कर दाल और सब्जी मगाते और जेठानी को कोसते " कुछ सीख ले बहू से... आलू टमाटर का घोल बनाते - खिलाते जी ना भरा तेरा.. " दीवाली पर एक बार परमजीत की देखा देखी जेठानी ने भी गुलाब जामुन बनाये जब वह मुह में अखरोट तरह चबे तो सवेरे गाय को खिलाने के काम आये .. परमजीत ने जो कटोरदान भर बच्चों के हाथ भिजवाये थे उन्हे जेठानी ने अपने हाथ के बने कह कर जेठ को खिलाये ....

परमजीत अब सिर्फ सूती साड़ी पहनती थी, जिसे ओमकार दिवाली और होली पर लाकर देता, रेशमी सलवार कमीज़ बक्से में बंद हो गए, हर साल बरसात के बाद उन्हे बक्से से निकाल कर धूप में सुखाती, जेठानी हमेशा सलाह देती दे-दिवा क्यों नहीं देती? क्या करेगी इन्हें संगवा कर? जेठानी की लड़कियों के बड़े हो जाने पर परमजीत ने अपने सलवार कमीज़ उन्हे पहने को दे दिए... परमजीत घर से बहुत कम निकलती थी, जब कभी वह पहन ओढ़ कर बाहर निकलती तो घेर, दालान, हुक्का, छतें, सडकें, कुँए, खेत, टोकरे, पेड़, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, हरियाली, कबूतर उसे पीछे मुड़ - मुड़ कर देखते..

पड़ोस में कुनबे में लड़के की शादी हुई है, दोपहर से ढोलक और गीत गाने की आवाज़ आ रही है... वह घर का काम निपटा कर बनारसी साड़ी पहन कर तैयार हुई, बालों को बाँध कर जूड़ा बनाया, हाथ के नाखूनो में पिन से खुरच कर राख और मिट्टी निकाली, फटे पैरों कि एड़ियाँ रग ड़ी और नाखूनों पर नेल पालिश लगाईं, गले में मां का दिया सोने का हार और कानो में सास की दी हुई झुमकियाँ पहनी , लाल रंग का कश्मीरी कढाई का शाल खोल कर कधों पर डाल लिया.. छः साल की बेटी को नयी फ्रॉक पहनाई, उसकी दो चोटी बना गुलाबी रिबन बाँध दिया.. उसकी अंगुली पकड़ वह ढोलक की थाप की और मुड़ ली .... आँगन खचाखच भरा था .... दुल्हा - दुल्हन कंगना खेल चुके थे ....उनके आगे रखी परात में दूध और उस पर दूब तैर रही थी ... वह बेटी का हाथ पकड़े... बैठी औरतों के बीच दरी का टुकडा ढूंढ पाँव बचा - बचा कर रख रही ... शगुन देने के लिए धीरे - धीरे दुल्हन की और बढ़ रही थी... ढोलक और चम्मच की थाप पर औरतें बधाई गा रही थी.... जैसे ही बधाई समाप्त हुई. ढोलक कि थाप बंद हुई ... " आ गई तू पंजाबन... " उसने पीछे से सुना ... कुछ औरतें हे हे करके हंसने लगी.... परमजीत पीछे मुड़ी और आँगन में तड़ाक की आवाज़ गूंज गई ...और एक मुर्दाई खामोशी छा गई ... जिसको परमजीत की आवाज़ ने तोड़ा ...वो औरतों कि तरफ इशारा कर बोली .. बन्ना गाओ ...चुप क्यों हो गई .... ढोलक फिर से शुरू हो गई और गाना भी ... बन्ने तेरी दुल्हन चाँद सी रे ..... और सभी ने साथ आवाज़ मिलाई ...

परमजीत दुल्हन का घूंघट हटा मुंह देख, शगुन देकर उसके पास बैठ गई और सभी के साथ मिलकर गाने लगी- बन्ने तेरी दुल्हन चाँद सी रे... उसे अपना दुल्हन वाला चेहरा याद आया, गोटियाँ याद आई, चाक़ू याद आया, वह अपने आप से शर्मा गई ....उसके गरम खून कि लाली उसके गालों पर दमकने लगी ...
तड़ाक की आवाज़ सारे गावं पर बिजली की तरह गिरी और उस दिन के बाद किसी ने उसे पंजाबन और उसके बच्चों को पंजाबन का नहीं कहा ..
 
पेंटिंग - गूगल सर्च इंजन से   

30 comments:

दीपक 'मशाल' said...

Maan gaye aapko..
maahir hain aap is vidha me bhi.. kya kahani likhi hai...

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया लिखा है.

Unknown said...

Padh kar aise laga jaise mai kud wahee kahee thee aur ye sab dek rahee thee.
Aap ke ek ek shabd itne komal aur gehera hote hai ke insaan usme ghul sa jaata hai!!
bahut sunder !!

mwhwk said...

bahut hi badhiya,waha khud hone ka ehsaas ho gaya padhte padhte,lajawab

Anonymous said...

Amazing description and appropriate handling of situation by Paramjit. Easily one of your best.

neetu said...

Amazing description and appropriate handling of situation by Paramjit. easily one of your best

डिम्पल मल्होत्रा said...

etni bareeki se buni kahaani kahi ruka nahi gya.....apki observation ki daad deti hun......aap ki har kahaani padh ke lagta hai ki ye pichhli kahaanio me sabse achhi hai....

Puja Upadhyay said...

kamal ki kissagoi hai, kirdar jaise jee uthte hain aapki lekhani mein. aapki panjaban koi apni saheli si lagi.

कुश said...

कमाल का फ्लो लिए हुए ठी कहानी.. नॉन स्टॉप पढ़ डाली..
किरदार बहुत ख़ूबसूरती से डेवलप किये है आपने.. परमजीत के बहाने से आपने कितनी ही बाते खोल दी.. कुछ पंक्तिया तो बड़ी कमाल की थी. जैसे

मां को उसकी भरी छाती और गिलहरी जैसी कूद- फांद बिलकुल ना भाती थी..

ज्यों ज्यों नजदीकियों की पकड़ मजबूत होती गई उसकी हँसी मंदी होती गई ...

परमजीत को लगता ओमकार घर से निकलने के बाद भी अपनी आँखे घर छोड़ जाता है

परमजीत ने धीरे - धीरे वो सभी काम सीख लिए थे जो उसने दो बीघा ज़मीन और मदर इंडिया में औरतों को करते देखा था

आस -पड़ोस की औरतों के लिए कभी अंडे के छिलके मुर्गी की हड्डी तो कभी गाय की हड्डी बन जाते.

घेर, दालान, हुक्का, छतें, सडकें, कुँए, खेत, टोकरे, पेड़, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, हरियाली, कबूतर उसे पीछे मुड़ - मुड़ कर देखते..



कुलमिलाकर एक बेहतरीन कृति

rashmi ravija said...

achhi pravaah hai kahani me...chhote chhote details bahut pasand aaye..

डॉ .अनुराग said...

ब्लॉगजगत में कुछ लोग है जो पेशेवर लेखक नहीं है...शायद कही छपे भी नहीं हो....पर उनके पास बताने को इतना कुछ है है....मै ये पढ़कर गमजदा क्यों हूं....ये नहीं समझ पा रहा हूं....मुझे क्यों लगता है इससे मै मिला हूं....मै इन शब्दों ..इन विम्बो से गुजरता हुआ भी उस अहसास को महसूस कर पा रहा हूं ...जो गमजदा है....
neera again you are....................

sanjay vyas said...

"one tight slap".कहानी में ये ध्वनि जैसे जल-क्रीडा करते समय एक आकस्मिक लहर आपको जोर से सराबोर कर दे और आप उस रेफ्रेशिंग अहसास को देर तक महसूस करते रहें.
बहुत नए अंदाज़ में.बहुत बढ़िया लगी.

डॉ .अनुराग said...

dobara lauta hun..to in shabdo ke liye....
"याद के लोफ्ट में कहीं गुमी हुयी अंगीठी के कोयले की गंध से, बारिश में गुमशुदा मिट्टी की खुशबू से, हवाओं से, पार्क में रखी खली बेंच और एअरपोर्ट पर बिछड़ते लोगों को देखने से, झरोखे से ट्रेन के भीतर और ट्रेन के झरोखे से बाहर झाँकने से, जंगल की याद और याद के जंगल से, मेज पर जमी धूल पर लकीर खींचने से.. एक पल ठिठककर खोजता है कभी अपनी जमीन और कभी थोड़ा सा आसमान. एक मनुष्य अपनी ज़िंदगी का ऐलान उस पल करता है. बाकी पलों के लिए...."

khas neera style....

महावीर बी. सेमलानी said...

SUNDAR

के सी said...

ज़मीं से उखड़े परिवार की कहानी अपने प्रवाह में आये अनगिनत दृश्यों को समेटे हुए अंत में तड़ाक की आवाज़ के साथ जड़ों के फिर से मिट्टी को पकड़ने का उदघोष करती है. दूर देश में जा बसे एक परिवार के समक्ष उपस्थित पहचान और सीमित दायरे के संकट को कम ही शब्दों में बयान करने का हुनर लेखनी में बखूबी देखने को मिलता है. दॄश्य को शब्दों में देखने के लिये कहानी एक सही प्लेटफ़ार्म है, बचपन के किस्से हों या फ़िर भरी जवानी में दैहिक और भौतिक रिश्तों की पड़ताल अथवा मासूम मन के एक दुनियादारी भरे मस्तिष्क मे परिवर्तित होने का क्रम, सब कुछ व्यवस्थित. मैं कहानी को पढ़ते समय एक कालखंड से दूसरे में और फ़िर मंगल उत्सव भरे आंगन में कब पहुंच जाता हूं मालूम ही नहीं हो पाता. पात्र सभी सजीव है उनका बरताव और चरित्र कथा में प्राण फ़ूंकते हैं. परमिंदर की गुलाबी रंगत से आरम्भ हुआ डीटेलिंग का कार्य किसी आर्ट फ़िल्म के देखने जैसा है. मुझे कहानी बहुत पसंद आई कई सारे संवाद और विवरण हैं जिनके लिये स्टेंडिंग ओवेशन...

के सी said...

आपकी परमजीत पर मेरी जानी पहचानी परमिंदर का असर था इसलिये कमेंट मे आपकी पात्र का नाम बदल गया है. क्षमा.

अपूर्व said...

मूक कर जाती है कहानी..अपने अंत तक पहुँचते हुए..
..कहना चाहता था..मगर किशोर दा ने कह दिया सब कुछ..सो स्टैन्डिंग ओवेशन दे सकता हूँ बस..

..पता नही आप पब्लिश होने को भेज्ते हैं या नही यह सब..

सागर said...

मेरी अपनी साधारण दृष्टि में तो इस कहानी में बहुत मौलिकता लगी... परिवेश बदलना... कहानीकार जाने कितने रातों का सपना दे जाता है...

वह पलंग पर बैठी गोटियाँ खेल रही थी और गोटियों के उछलने के साथ उसकी आखें ऊपर नीचे इस तरह हो रही थी जैसे अंधरे में लालटेन हिलती है

जब कभी वह पहन ओढ़ कर बाहर निकलती तो घेर, दालान, हुक्का, छतें, सडकें, कुँए, खेत, टोकरे, पेड़, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, हरियाली, कबूतर उसे पीछे मुड़ - मुड़ कर देखते..

घर का काम निपटा कर बनारसी साड़ी पहन कर तैयार हुई, बालों को बाँध कर जूड़ा बनाया, हाथ के नाखूनो में पिन से खुरच कर राख और मिट्टी निकाली, फटे पैरों कि एड़ियाँ रग ड़ी और नाखूनों पर नेल पालिश लगाईं, गले में मां का दिया सोने का हार और कानो में सास की दी हुई झुमकियाँ पहनी , लाल रंग का कश्मीरी कढाई का शाल खोल कर कधों पर डाल लिया.. छः साल की बेटी को नयी फ्रॉक पहनाई, उसकी दो चोटी बना गुलाबी रिबन बाँध दिया.. उसकी अंगुली पकड़ वह ढोलक की थाप की और मुड़ ली ....

इन पंग्तियों का कोई तोड़ नहीं... यह midille order batsman लगे... जो टीम को बेहतरीन सहारा देते हैं...

हरकीरत ' हीर' said...

नीरा जी पूरी कहानी एक सी सांस में पढ़ डाली ...पढने के बाद आपकी प्रोफिल देखी ....कुछ नहीं मिला ....पंजाबी परिवेश पर आधारित .....वह भी पाथियों के जमाने की कथा को इतने सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है की आनंद आ गया ....कहानी का शिल्प बहुत बढ़िया है , भाषाशैली की सुघड़ता देखते ही बनती है ...बीच-बीच में पंजाबी की शब्दावली ने मन मोह लिया ......

वो चाकू उसके हाथ में बंधे कलीचड़े खोलने के काम आया था... कलाई पकड़ते ही स्पर्श कि गुदगुदी से इतना हंस और हिल रही थी उसे डर था कहीं उसे चाकू ना चुभ जाए.. रात गहरी होने के साथ -साथ .. ज्यों ज्यों नजदीकियों की पकड़ मजबूत होती गई उसकी हँसी मंदी होती गई ...

कुछ एक शब्दों पर हैरानी सी होती है इतनी नजदीकी से गाँव के परिवेश के शब्दों को चित्रित किया है की मुझे भी शायद लगा की पहली बार सुने हैं ....

परमजीत घर से बहुत कम निकलती थी, जब कभी वह पहन ओढ़ कर बाहर निकलती तो घेर, दालान, हुक्का, छतें, सडकें, कुँए, खेत, टोकरे, पेड़, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, हरियाली, कबूतर उसे पीछे मुड़ - मुड़ कर देखते..

क्या आप पंजाब से हैं ....???

हरकीरत ' हीर' said...
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हरकीरत ' हीर' said...
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हरकीरत ' हीर' said...
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Ashok Kumar pandey said...

कहानी बडी उम्दा रफ़्तार से चल रही थी पर लगा जैसे अंत आते-आते आप घबरा गयीं…

सेफ़ लैण्डिंग ज़रूरी है नीरा जी!

RAJNISH PARIHAR said...

भारत के किसी आम गाँव की सी कहानी है,पर इसमें ऐसा कुछ है जो आकर्षित करता है....शायद अपनापन...

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

ये कहानी है तो इसमें सब कुछ है -
आंचलिक परिदृश्य किसी भी देश और नागरिक का अभिन्न हिस्सा है जो कभी भुलाए नहीं जा सकते.
यहाँ लेखक की मौलिकता और दृश्य-कथ्य-सन्देश का सहज सामनजस्य देखते ही बनता है.

मुझे महान साहित्यकार फनिस्श्वर नाथ रेणु जी की कहानियां याद आ गयी. बहुत प्रभावित किया. आपको आगे पढने की लालसा जग गयी है.

क्या आप जैसा लेखक पारिश्रमिक के लिए भी लिखता है? यदि जवाब हाँ है तो पुस्तक वर्जन भी छपना चाहिए.

गौतम राजऋषि said...

"जब कभी वह पहन ओढ़ कर बाहर निकलती तो घेर, दालान, हुक्का, छतें, सडकें, कुँए, खेत, टोकरे, पेड़, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, हरियाली, कबूतर उसे पीछे मुड़ - मुड़ कर देखते.."

शिल्प का अंदाज आपका हमेशा अच्छा रहा है। परमजीत का करेक्टर खूब बढिया उभर कर आया है।

one tight slap....जैसा कि संजय जी ने लिखा है।
good one!

Ravi Rajbhar said...

bahut sunder likha hai ....par ush transporter ke lekhakar ki pahli patni jisase wah sadi kiya tha gauna nahi uska kya huwa...?

Pls.....apni profile update karen!

Sanjeet Tripathi said...

मुआफी, अपन आवारा बंजारा है तो कहीं जल्दी और कहीं देर से पहुंचते हैं, जैसे आपकी इस कहानी पर देर से पहुंचे।

लेकिन एक बात तो है मोहतरमा,
कहानी के कथ्य, शिल्प, देशकाल और वातावरण पर मुझसे पहले कई लोग कमेंट कर चुके हैं, मै यह कहना चाहूंगा कि शब्दों का किसी के पास होना और उसे सही जगह प्रयोग करना यह एक बहुत ही अलग और खास क्वालिटी है, और उपरवाले ने यह क्वालिटी आपको नेमत के रुप में बख्शी है। शुकराना अदा कीजिए उपरवाले का लेकिन साथ में इस गुण को और बेहतर बनाते जाइए।

अंग्रेजी में जिसे फ़ैन कहते हैं और मेरे हिसाब से पंखा तो मै, तीन कहानियां पढ़कर आपका पंखा बनता जा रहा हूं……


बाकी और ऐसे ही धीरे-धीरे पढ़ता जाउंगा।

संजय भास्‍कर said...

achhi pravaah hai kahani me...chhote chhote details bahut pasand aaye..

संजय भास्‍कर said...

मेरी अपनी साधारण दृष्टि में तो इस कहानी में बहुत मौलिकता लगी... परिवेश बदलना... कहानीकार जाने कितने रातों का सपना दे जाता है...