Sunday, 20 June 2010

तुम कैसे पिता हो?

जन्म पर


दादी ने मुह छुपाया,


मौसम ने आँख दिखाई,


गर्भ से बरसों पूर्व


"गुप्त" की किताब से


पापा ने दे दिया


बिटिया को नाम






गुड़िया नहीं लाये,


माला नहीं लाये,


सफ़ेद, नेवी ब्लू सिलवटें मिटाने,


सिंड्रेला के जूते चमकाने,


कापी पर जिल्द चढ़ाने,


मच्छरों के यमराज बन,


पापा घर जल्दी आये,






थके कन्धों पर झूलता,


खाकी थले से झांकता,


किताबों के पन्नो पर,


लाया काबुलीवाला


एक नया आकाश सुनहला,






नहीं समझाए घोंसले के कायदे क़ानून,


नहीं दिखाए गलतियों को तेवर,


नहीं खींची रीती-रिवाजों की लक्ष्मण रेखा,


नहीं बने जवान पाँव के दरबान,


नहीं पूछा "वो कौन" सड़क पर मिला था,


नहीं डराया यौवन को अँधेरे और अकेले से,


नहीं चुनी सपनों के लिए पगडण्डी और उड़ान,


नहीं लगाई पंखों पर डाक्टर, इंजिनियर, आई ऐ एस की मुहर,


पापा! तुम कैसे पिता हो?



विदा के समय


बिलख-बिलख रोता बालक,


निर्णायक पलों, फैसलों में मेरे


विश्वास की चादर ओढ़


एक मूक गवाह हो ...

18 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

वाह!
तुम बहुत अच्छे पिता हो.

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Sachchi me achchhe Pita ho..........tum!!!!!...:)

aur utna achchha hi aapne unhe sabdo me utara bhi hai......

badhai!!

vandana gupta said...

बेहतरीन्।

Puja Upadhyay said...

कई चित्र उभरते, कई ख्वाब रंग पाते...एक कविता में कितना कुछ नज़र आ जाता है.

Puja Upadhyay said...

कई चित्र उभरते, कई ख्वाब रंग पाते...एक कविता में कितना कुछ नज़र आ जाता है.

के सी said...

सच है कि एक कविता में कितना कुछ दिखता है...

डॉ .अनुराग said...

किसने कहा है के सब कुछ ज्यूँ का त्यूं लिख दे.......सारे बरसो का हिसाब बस कुछ पंक्तियों में ....पर कागज भीगा भीगा सा लगता है .....

Ashok Kumar pandey said...

बधाई नीरा जी
आपकी कवितायें शिकायत का मौका बिल्कुल नहीं देतीं। कथ्य और शिल्प दोनों का सुन्दर निर्वाह…

काग़ज़ की किस्मत होती है कुछ ख़ूबसूरत हर्फ़्…वे भीग कर खिल जाते हैं…

मनोज भारती said...

अभी मैं इस कविता को कम से कम तीन बार और पढ़ँगा फिर ही कुछ कहूँगा ...

अपूर्व said...

इस युग के पिताओं के पिता-पन के लिये एक बेंचमार्क खड़ी करती रचना...

हरकीरत ' हीर' said...

जन्म पर
दादी ने मुह छुपाया,
मौसम ने आँख दिखाई,
गर्भ से बरसों पूर्व
"गुप्त" की किताब से
पापा ने दे दिया
बिटिया को नाम

नीरा जी बहुत से सवाल कर डाले पिता से एक पुत्री ने .....
गुप्त से कोई खास तात्पर्य है क्या .....?

खाकी थले से झांकता, ....

यहाँ शायद आप थैले लिखना चाहती थीं .....!!

गौतम राजऋषि said...

अभी घर पर हूं और वर्षों बाद फ़ैमिली-रीयुनियन जैसा कुछ सीन बन पड़ा है वर्षों बाद। दोनों दीदीयों को आपकी ये कविता पढ़वायी...एक गहरी साँस जो एक साथ निकली दोनों दीदीयों के मुख से, वो गवाह थी इस कविता के नायक का एक अति दुर्लभ पिता होने की।

आज दिनों बाद आया अपनी पसंदीदा ब्लौगर के पन्नों पर तो ये नया अंदाज खूब-खूब भाया। उम्मीद करता हूं अब कहानियों के संग-संग कविताओं की भी झलक यूं ही मिलती रहेगी।

mridula pradhan said...

wah.kitna sunder.

अरुणेश मिश्र said...

पीड़ा अनुभूत जैसी ।
रचना प्रशंसनीय ।

Satish Saxena said...

एक अलग ही अंदाज़ है ...शुभकामनायें !

वीरेंद्र सिंह said...

Neera ji...Apki poem ko padhkar bahut achha lagaa. Really it was very touching Neera ji.

Avinash Chandra said...

तालियाँ बजाना और बस बजाते जाना...दो बूँद आँखों से देना और कुछ न कह पाना...इसके सिवा कुछ नहीं है अभी मेरे पास.

VIVEK VK JAIN said...

aahut khoob!