Thursday 11 November 2010

"मिस माई लिटल ब्रदर इज जस्ट लाइक यू"..

दुसरे ही दिन से उसे लगने लगा था..वो मासूम आँखे कुछः टटोलती हैं,खोजती हैं कुछः कहना चाहती हैं ...अक्सर उसने देखा सत्ताईस झुके सर पेन्सिल की नोक घुमा रहे होते... और रेचल पेन्सिल का टॉप मुह में घुमाते हुए उसकी तरफ देख रही होती...और उससे नज़रें मिलते ही सर झुका पेन्सिल को कापी पर घुमाने लगती...कुछः मिनटों बाद फिर उसकी पेन्सिल मुह में और आँखे उस पर चिपकी हुई....रेचल के रूखे, उलझे, सुनहरे, खुले बाल, नयी पत्ती के रंग की कच्ची नींद में जागी आँखे, कपास जैसे गाल पर नाख़ून से खिंची बैंजनी लकीर बिना बोले बहुत कुछः कह जाते और फ्राक पर स्पेगेटी, चाकलेट, दूध, कस्टर्ड, केचप के निशाँ उसके सुबह के ब्रेकफास्ट का या रात के डिनर का मेनू बता रहे होते...

यह स्कूल चार-पांच हज़ार की आबादी वाले एक छोटे से गाँव में था,यह गावं माइग्रेशन -इम्मीग्रेशन से अछूता था...तभी तो सड़क पर छोटे बच्चे और बूढ़े उसे पीछे मुड़-मुड़ कर देखते...बच्चे अंगुली उठा अपने मां -बाप से प्रश्न पूछते " व्हाट इज देट रेड स्पोट आन हर फॉर हेड... इज ईट ब्लड? उसके कुछः बोलने से पहले ही उनके माँ -बाप उससे माफ़ी मांगते हुए उन्हे एलियन के सामने से खींच कर ले जाते....उसका मन होता पर्स में से पत्ता निकाल लाल खून की बूंद बच्चों के माथे पर चिपका दे... वह अक्सर सोचती उन छोटी - छोटी उँगलियों की जिज्ञासा, बड़े - बड़े हाथों ने क्या कह कर मिटाई होगी ...

बी एड की ट्रेनिंग के अंतर्गत उसे ऐसे ही स्कूल में कक्षा एक की क्लास मिली थी... वह खुश थी... पहली क्लास के बच्चों में उसके अंगेजी के उच्चारण पर मुस्कुराने और हँसी उड़ाने का हौसला तो कम होगा... और यदि उड़ाया भी तो उनकी उम्र के अनुरूप झेंप और तकलीफ भी कम होगी ... पर यहाँ मुस्कुराने की बारी उसकी थी उनका योर्कशायर का डायलेक्ट बस को बूस,वाटर को वोतर, कलर को कोलर .. यकाएक स्थानीय अंग्रेजी सिखाने को उसके अट्ठाईस शिक्षक....

गावं के स्कूल से पहले वो ऐसे स्कूल में थी जहाँ अशवेत बच्चों के मुकाबले शवेत बच्चे अल्पसंख्यक थे, जब पहले दिन रजिस्ट्रेशन के समय उसने एक भारतीय बच्चे को अंकुर कह कर बुलाया तो अंकुर सहित सभी हँस पड़े... और एक साथ बोले " हिज़ नेम इज एंकर...मिस!" अंकुर को एंकर बनाना बहुत आसान था किन्तु एंकर को अंकुर बनाने के लिए शिक्षक का शवेत होना ज़रूरी था...इसलिए तमाम कोशिशों के बावज़ूद वह एंकर बन कर ही अंकुरित होता रहा ... हरी का हैरी, अजय एजे और विजय वीजे बन कर... भारतीय मूल के बच्चों का नामकरण शवेत शिक्षकों द्वारा होने के बाद माता- पिता उनका नया नाम गर्व से पुकारते थे... पेरंट्स इवनिंग में उसके मुह से निकले सही नाम के उच्चारण को स्कूल द्वारा दिए गए नए नाम से सुधारने की कोशिश करते ... तब ट्रेनिंग के दौरान प्रोफ़ेसर वर्मा की कही बात दिमाग में घूम जाती "हम आज़ाद हो गए हैं लेकिन हम भारतीयों के दिल आज़ाद नहीं हुए वो अभी भी कोलोनाज्ड हैं "... एक बार उसी स्कूल में प्रोफ़ेसर वर्मा उसकी क्लास का निरिक्षण करने आई थी... स्कूल ख़त्म होने से पहले प्रिंसपल प्रोफ़ेसर वर्मा को हेलो करने आया और बात करते हुए उसका ध्यान प्लास्टिक के लेगो पीस जोड़ -जोड़ कर बने हेलीकाप्टर पर गया उसकी टूटी पंखुड़ी कीतरफ इशारा करते हुए बोला "पता नहीं क्यों भारतीयमूल के बच्चे खिलौने बहुत तोड़ते हैं"... मिसेज वर्मा ने हँस कर जवाब दिया "मिस्टर लीच भारतीय बच्चों को खिलोनो की रीसेलेबल वेल्यू नहीं मालुम, उनके माता -पिता खिलोनों की पेकिंग संभाल कर नहीं रखते... उन्हे तोड़ने और संभाल कर रखने का निर्णय उनका खुद का होता है..." आफिस के बाहर कोई इंतज़ार कर रहा है यह कह कर मिस्टर लीच ने विदा ली...उस दिन के बाद से उसके द्वारा किये गए किताबों, खिलोनों और एजुकेशनल एड्स के आर्डर पर मिस्टर लीच ने अन्य शिक्षकों की तरह उससे भी प्रश्न करना बंद कर दिया...

अशवेत बच्चों के बहुमत वाले स्कूल में पेरंट्स इवनिंग का होना ना होना बराबर था...आधे से अधिक तो अभिभावक आते ही नहीं, जो आते उनके लिए शिक्षक ने जो बच्चे के बारे में कहा उससे अधिक जो नहीं कहा उसे समझने की ज्यादा आवशयकता थी, पेरेंट्स इविनिंग में आना रंग -बिरंगे हिजाबों के लिए अनावश्यक ना भी हो लेकिन जो घर में उनसे छोटे हैं वे आने से रोकते हैं ...वैसे भी क्या फर्क पड़ता है यहाँ प्राइमरी स्कूल में कोई फेल नहीं होता... गर्मियों की छुट्टी छ सप्ताह की जगह पाकिस्तान जाकर छ महीने बढ़ा लेने पर भी बच्चे अगली क्लास में चले जाते हैं... आज उसे प्राइमरी स्कूल में फेल ना होने वाले सिस्टम के फेलियर यूवाओं को देख कर सिर्फ तकलीफ होती है हेरानी नहीं...ओर ना ही मलाल होता है जिस सिस्टम को बदलने की ताकत उसमें नहीं थी उसका पुर्जा नहीं बनी ... ऐसे स्कूलों की छत के नीचे पढ़ाने ओर मन बहलाने के साधनों का ढेर लगा था किन्तु  इसके ऊपर स्लेटी  आसमा के टुकड़े में अपेक्षा, उम्मीदों ओर संभावनाओं का बड़ा अकाल था.. असाधारण बचपन से साधारण उम्मीदें...  मासूम कन्धों पर उगने वाले अनगिनत पंखों की जोड़ी को स्टोर रूम में धूल खाते देख ... उसे अपना वो स्कूल याद आया जिसकी कच्ची दीवारों के भीतर सूरज, चाँद, ओर इंद्र धनुष पलक झपकते एक उड़ान में हासिल थे ...

जब प्रिंसपल के कहने पर उसने माइकल की सालाना रिपोर्ट बदलने से इनकार किया तो उसी समय उसे मालुम हो गया था, कांट्रेक्ट की उम्र अब इसी टर्म तक है प्रिंसपल ने कहा माइकल की माँ ने तीन स्कूल बदलने के बाद बड़ी उम्मीद से हमारे स्कूल में उसे दाखिल करवाया है वो हमारी स्कूल गवर्नर है... बड़ी निराश होगी... माइकल की रिपोर्ट बनाते समय वह खुद से कहीं अधिक निराश थी, माइकल को उसने एक चुनौती की तरह अपनाया था, उपलब्धि और प्रतिस्पर्धा का स्वाद चखाने के लिए उसके हर छोटे कदम को सीढ़ी के ऊपर खड़े होना दिखाया और क्लास से बाहर उदंडता से बचाए रखने के लिए, वह उसका हाथ ऐसे थामे रहती जैसे खो जाने के डर से भीड़ में मां अपने बच्चे का हाथ थामे रहती है... माइकल के आलसीपन को रिवार्ड करने का अर्थ उसके भविष्य से खिलवाड़ करना, जिसके लिए वह खुद को राजी नहीं कर सकी... इसलिए स्कूल और माइकल दोनों को छोड़ना पड़ा...

यहाँ क्लास में बच्चों के बीच वह उन्ही की तरह रंगहीन हो जाती है उन सफ़ेद चेहरों की मासूम आँखों को अभी तक यही मालुम है रंग सिर्फ रेनबो, फूलों और कपड़ों का होता है जिस दिन वो इंसानियत को काले सफ़ेद रंगों का लिबास पहना देंगे ..उस दिन वो बच्चे नहीं रहेंगे ... स्टाफरूम में उसकी चमड़ी का रंग हरी- नीली-स्लेटी आँखों को ब्लेक बोर्ड की तरह नज़र आता है जहाँ अँगुलियों ने नहीं होठों ने चाक पकड़ा हुआ है ...उनकी दी गई नसीहतें उसकी मान्यताओं और मूल्यों से टक्कर खा कुछः देर के लिए कुर्सी के नीचे लुढ़क जाती और उनके मज़ाक और गासिप उसके सर से गुजर जाते ... कभी बालों से नीचे उतरे तो वह उसे भद्दे और बेस्वाद लगे ...वो उनकी बात पर ना हँसने पर उसे समझाने के लिए उंचा बोलते ... उसे ना हँसने का अधिकार है... कुछः बोलने को होती तो...स्टाफ रूम  में आते ही जीभ तालू से क्यों चिपक जाती है ?...सोशली एक्सेप्ट होने लिए हँसी का मुखोटा पहना सीख लिया...  

उसकी प्लेग्राउंड में ड्यूटी है आज टर्म का आखरी दिन है रेचल और उसका भी स्कूल में आज आखरी दिन है ... रेचल के माता-पिता ने घर बदला है उसे तीसरी क्लास में पास के स्कूल में भेज रहे हैं...और उसने करियर बदलने का निर्णय ले लिया है...प्ले ग्राउंड में धमा-चोकड़ी मची है बच्चे एक दुसरे के आगे - पीछे भाग रहे हैं... रेलिंग पर लटक रहे हैं... फ़ुटबाल उछाल रहे हैं झपट रहे हैं ... फूटबाल पास करने के लिए चिल्ला रहे हैं एक दुसरे को धक्के दे रहे हैं.. कुछः बार - बार उसके पास आकर एक-दुसरे की शिकायत लगा रहे हैं लड़कियों के समूह स्टापू खेल रहे हैं ओर जब भी फ़ुटबाल उनके करीब आती है वो उसे मैदान के बाहर फेंक देती हैं उसका ध्यान रेचल पर है जो उसे दूर खड़ी एकटक देख रही है....उसके उलझे सुनहरे बाल बाल हवा में उड़ रहे हैं जिन्हें वो अँगुलियों से पकड़,गर्दन पीछे झुका, बार-बार कानों के पीछे उमेठ्ती है... उसकी फ्राक पर चिपका डिनर और ब्रेकफास्ट का मेनू नीले मटमैले कोट से ढका है जिसके दो बटन टूटे हैं... वह लेलिपोप जिसे उसने घंटी बजने से पहले क्लास के बच्चों में बांटा था...मुह में डालती है और निकालती है उसके गालों का रंग लेलिपाप के रंग से मेल खा रहा है ... वह लेलिपाप की डंडी को मुह में दबाये दोनों हाथ हिलाती है बीच की दूरी को नापती हुई वह प्ले ग्राउंड के दुसरे कोने से बेतहाशा उसकी ओर भाग रही है... पास आकर हाँफते हुए मिस के कोट से बाहर लटके बर्फीले हाथ को चिपकी अंगुली से छूते हुए रेचल के गुलाबी होंठ एक प्रार्थना सी बुदबुदाते हैं "मिस माईलिटलब्रदर इज जस्टलाइक यू".. मिस रेचल के दोनों हाथ अपने हाथों में ले, घुटने मोड़, झुक कर मुस्कुराते हुए रेचल की आँखों में उसके भाई के काले बाल और कत्थई आँखें खोजती है लेकिन वहां उसे नज़र आती है स्वीक्रति की हज़ारों लौ जिनको उसने बरसों से हर सफ़ेद चेहरे पर चमकती आखों में ढूढ़ा है ...

फोटो गूगल सर्च इंजन से

14 comments:

ASHOK BAJAJ said...

बढ़िया प्रस्तुति के लिए साधुवाद .

ग्राम-चौपाल - कम्प्यूटर में हाईटेक पटाखे

डॉ .अनुराग said...

आपके भीतर एक भारत अब भी बसता है.....ओर कमाल की बात है उसमे देहात .....ओर मट्टी से जुड़ा भारत भी है ...जिसके पास से गुजरते लोग भी उसे महसूस नहीं कर पाते .....किसी ने एक बार मुझसे कहा था ....लिखना दरअसल कुछ चीजों को दूसरो को मह्सूस कराना भी है ....
आपके भीतर एक छोटी लड़की भी है ....जो बड़े होने से इनकार करती है .......

डॉ. मोनिका शर्मा said...

डॉ अनुराग की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ...... और यह भी जोड़ना चाहूंगी की इतनी संवेदनशीलता से मनोभावों का प्रवाह साझा करना आसान नहीं होता.... बहुत अच्छा लिखा आपने....

के सी said...

ये एक कथा, एक फीचर की तरह सामाजिक परिवर्तन की ख़बर देती है.मानवीय संवेदनाएं और उसकी परतों को जांचती परखती हुई बहुत मासूम सी है. आपकी कोमल आशाएं ज़िन्दा रहे.

mridula pradhan said...

lajawab.bahut sunder.

sanjay vyas said...

भिन्न समाज में स्वीकार्यता को खोजने की यात्रा भी कहाँ जाकर हौले से रूकती है!बेहद संवेदनशीलता से जटिल विषय पर लिखा है आपने.लगभग सहज.
योर्कशायर लहजे को जेफ बॉयकौट साहब से भी खूब सुना है.

Ashok Kumar pandey said...

इसे पढ़कर 'वह' उम्मीद और बलवती हुई…शुभकामनायें

शरद कोकास said...

बहुत सुन्दर भाषा आपके पास है ।

केवल राम said...

दिल को भा गया आपका प्रस्तुतीकरण ...शुक्रिया
चलते -चलते पर आपका स्वागत है

vijay kumar sappatti said...

amazing post .. padhkar man me kuch bheeg sa gaya hai..

bahut sundar rachna

badhayi

vijay
kavitao ke man se ...
pls visit my blog - poemsofvijay.blogspot.com

RockStar said...

nice ur writing and i like u name, thanking u

अपूर्व said...

अक्सर आपकी कहानियों मे मुझे कहीं गहरे तक आशावादिता छलकती नजर आती है..तमाम तूफ़ानों और घनी रात के बावजूद किसी मद्धम लौ का जलते रहने का हौसला..और यह आशावाद अतिरेकी या बस सैद्धांतिक नही होता है..लौ को अपने ऊपर कोई गुरूर भी नही होता..फिर भी अपने हिस्से के अँधेरे से लड़ते रहने का काम वो करती रहती है..बिना किसी अपेक्षा के..अपनी जड़ों से जुडे रहने के लिये कोई बड़ी दरकार नही होती..बस छोटी-छोटी उपेक्षित सी चीजें हमे जोड़े रखती हैं..जड़े दिखती नही..मगर ठीक वहीं होती हैं..और अँधरे से जूझने का लौ का हौसला किसी दूसरी रैचेल मे स्थानांतरित कर देना इसे जमीनी भी बना देता है..और पवित्र भी..! वैसे रैचेल का जितना जीवंत चित्र इस पोस्ट मे स्केच कर दिया है वो लम्बे वक्त तक ऐसा ही यादों मे बना रहेगा..
थोड़ा जल्दी-जल्दी आना चाहिये आपको..

हरकीरत ' हीर' said...

तभी तो सड़क पर छोटे बच्चे और बूढ़े उसे पीछे मुड़-मुड़ कर देखते...बच्चे अंगुली उठा अपने मां -बाप से प्रश्न पूछते " व्हाट इज देट रेड स्पोट आन हर फॉर हेड... इज ईट ब्लड?उसके कुछः बोलने से पहले ही उनके माँ -बाप उससे माफ़ी मांगते हुए उन्हे एलियन के सामने से खींच कर ले जाते....उसका मन होता पर्स में से पत्ता निकाल लाल खून की बूंद बच्चों के माथे पर चिपका दे...

आपकी कहानी से आज ये नई बात पता चली ....विदेशों में बच्चे ऐसा भी सोचते हैं ...
आप अपनी लेखनी में बदलाव ला रही हैं ....इस बार आपने एक जटिल विषय को उठाया है ....
बधाई .....!!

सागर said...

कहते हैं, तकलीफ पाले रहना हमारी फितरत होती है. और जब यह आदत करवट ले तो ... तो ... भूचाल आने शुरू हो जाते हैं... कभी अपने घर मो महसूस किया था आपके लेखन में, यह कैसी नीरा है, जो वहां भी ऐसी ही है जैसे नहीं होना चाहिए... (शायद होना चाहिए) मैं आपसे पूछूँ ? दुनिया ने तुम्हें बहुत सताया ना ?