Tuesday 20 January 2009

वांटेड ऐ सीरियल किलर...‏


आजकल वह खुश नहीं। नौकरी, घर, दफ्तर, कार, टी वी, मेल बॉक्स, मोबाइल फ़ोन, मोगरा, चाँद, बारिश, प्यार किसी से भी खुश नही और सबसे अधिक नाखुश अपने आप से। ऐसे नाखुशी के दौर उसके जीवन में आते-जाते रहे हैं लेकिन अब से पहले उसने उन्हें अपनी जिंदगी नही बनाया था। इस दौर से गुजरने के लिए उसके पास हमेशा एक हथियार रहा है जो साउंड प्रूफ़ बुलेट से भी ज्यादा साउंड लेस और असरदार है। उसका इस्तेमाल वो कभी-कभी करता था लेकिन आजकल वह उसे हमेशा अपनी जेब में लिए घूमता है दिन-रात स्वयं पर वार करने के लिए और लगे हाथों अपने शुभचिंतको को लपेटने के लिये। इससे पहले की कोई उफ़ करे वह अपने कान और आँख बंद कर लेगा और यह उम्मीद रखता है जितना उसे अपने दर्द से प्यार हो गया है उसके अपने भी उसके दिए दर्द को उतना ही प्यार करें। उसकी खुदगर्जी की सीमा पार हो चुकी है दर्द को बांटना तो दूर उसकी गंध भी किसी को लगने नही देता। अपनों से फरेब कर दुनिया के सारे गम अकेले हड़प करना चाहता है। यदि आप गलती से उसके बढ़ते बैंक-बैलेंस का जिक्र छेड़ दें तो वह बड़ी आसानी से नाकार देगा जैसे कोई अपनी अवैध संतान को नाकारता है।


प्यार पर उसको यकीन है यही उसकी पहचान और प्रेरणा है बड़ी शिद्दत से अक्सर वह इसका एलान अपने दोस्तों और ब्लॉग पर करता है यदि उसका प्यार लोक-लिहाज़ छोड़ उसके दरवाजे पर दस्तक दे तो वह दरवाजे पर ही पानी पकड़ा दरवाजा बंद कर लेगा कहीं उसके भीतर की आंच की भनक प्यार को न लग जाए। उस आंच को वह टी वी चेनल बदलने और सिंगल माल्ट के ग्लास के लिये बचा कर रख लेगा। अचानक प्यार को वह सड़क पर मिल जाए तो फटाफट अपना हथियार सड़क पर फेंक उसका हाथ थाम लेगा और पूछेगा "कैसी हो? कहाँ थी इतने दिन से?" विदा लेते ही चारों तरफ़ नज़र घुमा चुपचाप सड़क से हथियार उठा, फूँक मार, धूल झाड़, सहजता से अपनी जेब में रख, सिटी बजाता अंधेरों में गुम हो जायेगा।

फोटो - गूगल सर्च इंजन से

9 comments:

Pratyaksha said...

विंटेज वाईन सा ..

संगीता पुरी said...

अच्‍छा लिखा है।

के सी said...

आपके बिम्ब को बार-बार पढ़ना पड़ा फ़िर लगा कि वृक्ष अपनी ही छाया में छिपे अपने अक्स को ढूँढता जब हिलने लगता है तो ये समझ नहीं आता कि ये हाँ है या ना। आपसे अनुरोध है कि इसके मूल के बारे में एक लघु टिप्पणी अवश्य करें ।

डॉ .अनुराग said...

प्रत्यक्षा जी ने जैसे मेरे मुंह की बात छीनी है

कुश said...

i m agree with pratyaksha. nasha kuch waisa hi hai..

neera said...

किशोर जी
प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया. मैं आपका आशय समझ नही पा रही फ़िर भी कोशिश करती हूँ असफल रही तो क्षमा कीजियेगा.
हर मनुष्य अपना दर्द और नरक स्वम जीता है झेलता हैं कुछ उसे दूसरों से बाँट साथ में हल खोजते हैं, कुछ उसमें अपने को दफना कर आंसू बहाते हैं और कुछ खामोश हो अपनी गुफा में घुस जाते हैं और सोचते हैं सम्सयाए अपने आप हल खोज लेंगी. वह जो विलंबित समय के लिए खामोश हो जाते हैं सबसे ज्यादा खतनाक होते हैं ऐसा मेरा मानना है, मैंने पोस्ट में इसी बात को हलके-फुल्के ढंग से कहा है...

के सी said...

नीरा जी मैंने आपकी इस रचना को कई कई बार पढ़ा किंतु मैं अपने आप से बाहर न आ सका और उसे साक्षात न कर सका जिसे आपने सहजता से अभिव्यक्त कर दिया था, कवितायें मुझे लुभाती है पर अभी उतनी पैनी दृष्टि नही है आप इसे अन्यथा ना लें सभी पाठक प्रत्यक्षा जी और अनुराग जी जैसी समझ के मालिक नही होते। मैं इस रचना में व्यक्ति के स्वरचित आडम्बरों और स्वयम के प्रति रचे जा रहे कूट से बाहर नहीं झाँक पाया , आप की टिप्पणी की रोशनी में इसे फ़िर पढ़ा, बहुत अच्छा लगा। आभार॥

Ashok Kumar pandey said...

नीरा जी
बेहद प्रभावी भाषा है आपके पास्।
इन्हे लम्बी कहानियो का विस्तार दें …यह अनुरोध है निर्देश नही।
अगर लम्बी कहानियां लिखी हो तो पढना चाहून्गा।
ashokk34@gmail.com

neera said...

अशोक जी
कीमती शब्दों के लिए आभार. हजारों ख्वाईशें ऐसी की हर ख्वाइश पर दम निकले...चाहती तो यही हूँ किंतु!
मैंने अपना ब्लॉग डिस्क्लेमर से शुरू किया था... शायद आपने मेरी सबसे पहली पोस्ट नही पढ़ी ...सिर्फ़ दस अध्याय दो सो पेज... :-)