Tuesday 7 April 2009

क्या मैं आज यहाँ बैठी होती?

डाइवोर्स को पांच साल हो चले थे, वो महसूस कर रही थी पति से अलग हो जाने के बाद और लोग भी उससे बचने लगे हैं जैसे कई दोस्त अब उसे फंक्शन पर नहीं बुलाती, तभी घर बुलाती जब उनके पति कहीं बाहर गए हुए होते, या फिर उससे घर से बाहर मिलती। जो लोग उससे बचते नहीं थे वो उसे खाली समझते, उनके लिए फार्म ला दो, यदि घर बदल रहे हैं तो पेकिंग करवा दो, मेहमान आने वाले हैं तो घर के में काम में मदद कर दो, उनके साथ शापिंग जाओ और उनके शापिंग बैग उठाओ, यदि पड़ोसी फिल्म देखने जा रहे हैं तो उनके छोटे- छोटे बच्चों को संभालो ... वह उकता गई थी लोगों से, अपने आप से और पता नहीं क्या सोच कर उसने अपने डिटेल एक मेट्रिमोनिअल वेब साईट पर डाल दिए थे. इस बात को भी अब तीन साल हो चुके हैं नेट पर मिली थी वह उससे, उसी के शहर का है, वह भी तलाकशुदा है, उसका अपना होटल का फ्रेंचाइज़ है.

उन दोनों के रिश्तों को तो कोई अंजाम नहीं मिला है, क्योंकि वो उसका सब कुछ चाहता है बिना किसी बंधन के... और वो ठहराव चाहती है नपी-तुली साधारण जिंदगी चाहती है। कभी-कभी दोनों साथ खाना खाने चले जाते, अब वह डाइवोर्स सेटेलमेंट से हुए नुक्सान को नहीं झींकता था और न ही वह अपने पति और घनिष्ट दोस्त से खाई चोट को लेकर दुखी होती, दोनों को एक दुसरे का साथ अच्छा लगता पर अधिकतर दोनों बहस करते हुए अपने- अपने घर लौटते.

इस तीन सालों में वह उसकी बहन और माँ की अच्छी दोस्त बन गई है । उसके घर में अक्सर आती- जाती रहती, उसके बुलावे पर नहीं बल्कि उसकी माँ और बहन के कहे पर, उनके साथ कभी फिल्म देखने, कभी खाना खाने या कभी उसकी माँ के साथ मंदिर जाने...

कभी- कभी उसे लगता उसके परिवार के साथ उसका इस तरह घुलना -मिलना उसे पसंद नही, कई बार चिढ जाता था वह क्यों डिश बना कर उसके घर पहुँच जाती है यह सिलसिला और बढ़ जाता जब वह छुट्टी पर बाहर गया होता। कभी जोहान्सबर्ग, कभी बार्सिलोना, कभी इस्तेम्बूल तो कभी पेरिस.... बहन अक्सर उसके मुंह को पढने की कोशिश करती क्या उसे मालूम है वह छुट्टी पर अकेला नहीं गया पर उसे कही विषाद नज़र नहीं आता...

एक दिन वह अपनी बहन से पूछ रहा था तुम्हारी यह दोस्त ठीकठाक तो है? बहन ने हंस कर जवाब दिया "क्यों वह तुम्हारी गर्म जेब और बिस्तर के पीछे नही है इसलिए पूछ रहे हो, नो शे इज नोट लेस्बियन!"

उसकी माँ हॉस्पिटल में है वह रोज आफिस के बाद उससे मिलने जाती रही है, उस शाम उसके पहुंचते ही माँ ने बेटा और बेटी को बाहर जाने को कहा है वह सिर्फ उससे बात करना चाहती है, दोनों को यह अच्छा नहीं लगा, उसकी और घूरते हुए वार्ड छोड़ कर बाहर लाबी में चले गए। माँ ने उसे अपने पास बिस्तर पर बैठाया और बोली " देख पुतर मैं चोरास्सी साल की हूँ पता नहीं कितने दिन की मेहमान हूँ... तुझे तो मालूम है उसने गोरी से शादी की थी और अठारह साल उसके साथ रहा है, बेटी ने मुसलमान के साथ, अब वह बीस साल बाद भाई के पास आ गई है इन दोनों को कुछ नहीं मालूम, मुझे कुछ हो जाए तो अपना पंडित बुलवाना, मेरे बक्से पर ॐ लिखवाना और मेरा सफ़ेद रंग का सूट जो मैंने दिखाया था तुझे वो पहनाना... " और पता नहीं क्या-क्या कहती रही... पता नही उसने कितनी बार कहा होगा "आंटी आप कैसी बात कर रही हैं आप ठीक होकर यहाँ से निकलेंगी" और आखरी बार यह कह कर वह भाई बहन को लाबी से बुलाने चली गई... वार्ड में घुसने से पहले वह उसे रोक कर बोला "तुमने मेरी माँ के लिये इतना किया है आई वांट तो ट्रीट यू ... "मैं अपनी दोस्त को मिलने आती हूँ यह महज़ इतिफाक है की वो तुम्हारी माँ है" उसने हँस कर जवाब दिया ...

और हुआ भी ऐसा ही वह दो सप्ताह बाद घर आ गई। एक दिन वह उनको मंदिर लेकर गई। जब वह माँ को घर छोड़ कर लौटने लगी तो वह उसे बाहर छोड़ने आया। गाड़ी का दरवाजा बंद कर खिड़की से सर बाहर निकाल कर वह बोली " हम वो घर के पास वाले पब में लंच सकते हैं अगले सन्डे मैं खाली हूँ फोन करके बता देना मुझे" हाथ हिला उसने एक्सीलेरेटर दबाया... वह बाहर खड़ा गाड़ी को आँखों से ओझल होते हुए देखता रहा...

उसकी माँ ने उसे फोन करके बुलाया है वह जब आफिस ख़त्म करके पहूँचती है तो मेज पर चाय तैयार है आज माँ घर पर अकेली हैं... वह सुनती रही एक माँ की कोशिश, माँ की लाचारी और उसकी एक चाह, अंत में वह उसे समझाने की कोशिश करती हैं "देख पुतर अब ज़माना बदल गया है तू पता नहीं किस सदी में जीती है आजकल ऐसे नहीं चलता, जब तक तुम दोनों एक दुसरे को ठीक से जान न लो तब तक कैसे आगे बात बढ़ेगी..." यह एक माँ की आखरी कोशिश है...

वह माँ का हाथ पकड़ लेती है आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुरा कर कहती है "आप अपने बेटे को अच्छी तरह जानती हैं यदि मैं भी वही करती जो और करती हैं तो क्या मैं आपके पास आज यहाँ बैठी होती? इसमें सदी और ज़माना बदलने की बात नहीं है मुझे अपनी इज्ज़त और आपकी इज्ज़त करने का अधिकार तो है न आंटी? "

माँ ने आँखे नीची कर उसे गले से लगा लिया अपना मुहं छुपाते हुए भरे गले से बोली "देख पुतर मैंने तेरे लिए ढोकरा बनाया है बता तो कैसा बना है?"
फोटो - गूगल सर्च इंजन वी जी गेलरी से

18 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इन्सानी रिश्तों की सुंदर कथा.

डॉ .अनुराग said...

एक कथा में रिश्तो के कई विम्ब उकेरे है .....कई परते कई अनकहे सच .तभी तो आप आप है....खास ......हमेशा की तरह उम्मीद की कसौटी पर खरी....

मोहन वशिष्‍ठ said...

सच रिश्‍तों के बारे में बखूबी अच्‍छा लिखा है आपने डाइवोर्सी का दाग सब कुछ होते हुए भी काफी बुरा है पर क्‍या कह सकते हैं आज कल के पढे लिखे समाज के बारे में

संजय तिवारी said...

रिश्तों की सुंदर कहानी है

अनिल कान्त said...

आपमें एक ख़ास बात है ...मैं पढ़ते पढ़ते खो सा गया ...बहुत अच्छा लिखती हैं आप

रंजू भाटिया said...

बहुत पसंद आई आपकी यह कहानी ..

अमिताभ श्रीवास्तव said...

rishte bunte he jivan..jo jiye bhi jaate he aour kaate bhi jaate he..
bahut sundar tarike se kahani ko ukera he..
marm par jo apni chhavi prakat kare vo katha saarthak hoti he..

डॉ. मनोज मिश्र said...

अच्छी कहानी .

रंजना said...

Bahut bahut sasakt aur sundar katha....bade hi prabhavshali dhang se aapne charitra chitran kiya hai....aapki yah kahani dil me utar gayi....
WAAH !!

के सी said...

रिश्तों की घोषणा में एक सुरक्षा है जो अनचाहे प्रश्नों के लिए ढाल का काम करती है, जिंदगी गणित का सवाल या प्रयोग से प्राप्त परिणाम नही है यहाँ सब कुछ अनुतरित्त और सदैव प्रतीक्षित है. बेहद सुन्दर, सदा की तरह आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप लेखन, बधाई !!

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर पोस्‍ट ... अच्‍छे से प्रस्‍तुत किया।

Anonymous said...

Nice blog. Only the willingness to debate and respect each other’s views keeps the spirit of democracy and freedom alive. Keep up the good work. Hey, by the way, do you mind taking a look at this new website www.indianewsupdates.com . It has various interesting sections. You can also participate in the OPINION POLL in this website. There is one OPINION POLL for each section. You can also comment on our news and feature articles.

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Ritu Raj said...

didi this is nice. i liked it. very good

Manish Kumar said...

शिक्षित शहरी कामकाजी समाज ने नए तरह के रिश्तों को जन्म दिया है। इन रिश्तों की डॉयनमिक्स बिलकुल अलग हे। ऍसी ही एक रिश्ते से रूबरू कराने के लिए धन्यवाद।

हरकीरत ' हीर' said...

आपकी लेखनी का जवाब नहीं ....बेहतरीन शब्दावली में आपने जीवन की एक सच्चाई को पेश किया है .....ये एक तलाकशुदा औरत ही जानती है उसे किन किन परस्थितियों से होकर गुजरना पड़ता है ....आपने बखूबी उन शब्दों को उकेरा है ....और फिर किसी नए रिश्ते में जोड़ने की कोशिस ....एक बहुत सुन्दर प्रयास....!!

नवनीत नीरव said...

naye rishton ki nayi paribhash.Abhi kam hi jaanta hoon inke baare mein par jitna hi jaanta hoon aapki kahani ke bhav spast the.
Navnit Nirav

Ashok Kumar pandey said...

jitana badalta hai sab kuch...kai baar utana hi rah jata hai pahale jaisa.
itne darwaze khule hain isame ki lagata hai abhi bahut kuch rah gaya kahne ko.

प्रदीप कांत said...

वह माँ का हाथ पकड़ लेती है आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुरा कर कहती है "आप अपने बेटे को अच्छी तरह जानती हैं यदि मैं भी वही करती जो और करती हैं तो क्या मैं आपके पास आज यहाँ बैठी होती? इसमें सदी और ज़माना बदलने की बात नहीं है मुझे अपनी इज्ज़त और आपकी इज्ज़त करने का अधिकार तो है न आंटी? "

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