फुर्सतों की कारसाज़ी
फोटो- मार्च 2020,देहरादून |
फ़ुरसतें भी अलग-अलग किस्म की होती हैं घर में फ़ुरसतें ऐसे कामों से आँखे चुराती घूमती हैं जो कई महीनो से टू डू लिस्ट में आँखें फाड़ें घूर रहे हैं दिन भर फ़ुरसतें किसी न किसी उधेड़बुन में लगी रहती हैं आने वालों घंटे में किसकी मिस्ड काल का जवाब देना है, फ़्रिज में रखा कौनसा सामान खत्म करना है वाशिंग मशीन आज लगाऊं की कल, पता नहीं कल मौसम कैसा हो? बिस्तर पिछली बार कब धुले थे? गैस हुड पर चकनाई और धूल आज साफ़ की जाए या कल, बालों में तेल लगाना था आज फुर्सत नहीं अगली बार बाल धोने से पहले जरूर लगाना है।
चाहते हुए भी टी वी के सामने से उठने नहीं देंगी अपना कीमती समय फुर्सतों को परोसना ही पड़ता है वे जरा मेहरबान हुई तो खिड़की से भीतर आई धुप की गरमाई ओढ़ने की इजाजत दे देंगी और ज्यादा मेहरबान हुई तो दोपहर को थोड़ी देर अलसाने की भी, दोस्त की भेजी कविता बिना रुकावट पढ़ने का भी जुगाड़ कर देंगी। लेकिन फिर भी निर्दयी तो बहुत हैं जब भी कुछ लिखने का मन होगा तभी याद दिलवा देंगी चाय या खाने का समय और मेरा कॉलर पकड़ किचन में। इसके साथ-साथ दिन में दी गई छूट की कीमत रात में अपनी बात मनवा कर वसूल लेंगी। बस एक ही बात तुम बहुत थक गई हो पढ़ना लिखना छोडो बत्ती बुझाओ और सो जाओ, इसकी बात नहीं मानो तो कभी कंधे तो कभी बाजू, कभी एड़ी तो कभी कमर के दर्द का रूप धारण कर बत्ती बुझा कर ही दम लेंगी। दिन के सबसे जरुरी काम के लिए वो मेरी मुट्ठी से रोज रेत की तरह फिसल जाती है मेरे ही घर में मेरे साथ बड़ी निर्ममता से पेश आती हैं जबकि इनके लिए मैं बरसों से तरसती आई हूँ।
यही फ़ुरसतें जो परदेस में इतना कहर ढाती है देहरादून में कोमलता से पेश आती है। शायद पापा-माँ से डरती हैं. घर के कामों की फेहरिस्त लिए मेरे ऊपर टंगी नहीं घूमती, दूध- सब्ज़ी-फल घर में है या नहीं यह चिंता लिए मेरे पास नहीं आती, उलटे मुझे समझाती हैं क्या हुआ जो पिछले महीने होने वाले काम अभी तक नहीं हुए। कौनसा तीर मार लेती उन्हें समय पर करके। यहाँ तो फुर्सतों के रंग और तेंवर ही अलग है इन्हे किसी बात की जल्दी नहीं। मुझे जरूरी और गैर जरूरी कामो से मुक्त रखती है. पापा ममी के साथ लगी रहती हैं गेहुओं को नहला कर धुप में सुखाती हैं, खरबूजे की बीज निकालती हैं, दालों को इस डिब्बे से निकाल दूसरे डिब्बों में भर्ती है, गाय की रोटी निकालती है, घर में आई मेड को चाय नाश्ता खिलाती हैं। हथेलियों से रुई बट-बट के बत्तियों के ढेर लगाती हैं, स्वेटर उधेड़ उन के गोले बना, अँगुलियों में सलाइयां पीरो उसी उन के स्वेटर बुनती हैं. फल काटते हुए संतरे का छिलका ही नहीं उसकी फांकों की झिल्ली भी उतारती है चुलाई भून उसके लड्डू बनाती हैं, रात को जब मैं पढ़ना लिखना सिहराने रख ममी के साथ उनके सीरियल देखते हुए अपनी फुर्सत की बलि चढाती हूँ बिना शिकायत सुबह की अंगड़ाई संग कोहनियों में चटकती हैं।