Friday, 17 July 2009

कन्वेयर बेल्ट पर उगता अपनी माटी का सोना...

फ्लाईट आये घंटे से ऊपर हो चला था पर उन दोनों का कहीं अता-पता न था... उनके आने की ख़ुशी में उसे ढाई सो मील के सफ़र का पता न चला, पर अब मंजिल पर पहुँच कर एक- एक मिनट घंटो से कम नहीं... वो उसके घर पहली बार आ रहे थे... पिता को तो एतराज़ ना था किन्तु उनकी सरकारी नौकरी इजाजत नहीं देती बेटी के घर महीने भर से ज्यादा रह सकें और माँ को उनका बेटी की माँ होना रोकता था.. चलो दोनों आने को तो राज़ी हुए महीने भर को ही सही.... जिन बातों को अब तक वह चिठ्ठी और फोन पर बताती रही है वो खुद देख लेंगे जैसे सूरज का धरती से अक्सर नाराज रहना और बादलों को धरती से हद से ज्यादा प्यार करना... हर मोसम में जमीन के हर कोने में घास का धुल -मिटटी को जकड़े रहना... टायरों की चीख के बीच शमशान की शांति का सड़कों पर पसरे रहना.. बेचारे गीले कपडों को धुप नसीब ना होना उनका लांड्री की मशीनों में भभकती भाप में झुलसना... पानी के लोटे का बाथरूम के फर्श को तरसना, लोटे से पानी उड़ेल खुल कर नहाने पर पाबन्दी होना... हवा की नमी को विंड स्क्रीन पर सेलोटेप की तरह चिपक जाना और स्क्रेपर के साथ मिल कर बेहूदा आवाज़ निकालना... गाड़ी का पेट भी उसमें से निकल कर खुद भरना.. अनजान बच्चों का सड़क पर चलते चलते "पाकी" बुला कर अभिनन्दन करना...यदि आप सही और गलत वक्त पर थंकयू और सारी न कह पाए तो प्यार भरी आँखों के तीर के दर्द को अपनी नासमझी समझ कर भूल जाना ...

अब उसकी आँखे और कमर दोनों जवाब देने लगे थे ... वो सभी यात्री आने बंद हो गए थे जिनके सूटकेस और बेग पर एरो फ्लोट के टेग हों... कहाँ हो सकते हैं टायलेट में भी इतनी देर तो नहीं लग सकती .. इन्कुआरी पर यह उसका तीसरा चक्कर था ... वो फ्लाईट लिस्ट चेक कर के उसे उसे बता चुके हैं उनका नाम लिस्ट में है... उसका सयम टूटने और चिंता बढ़ने लगी थी...

वह समय की गंभीरता को हल्का- फुल्का बनाने और उसके माथे पर चिंता की लकीरों को गालों के गढों में बदलने के लिए अपने होंठों को उसके कानो के नज़दीक ला धीरे से फुसफुसाया...

"वो कहीं रशिया में अपने दुसरे हनीमून के लिए तो नहीं उतर गए..." और ही.. ही करने लगा... उसने घूर कर उसकी और देखा... ऐसे अवसरों पर उसका सेंस आफ हयूमर उसे चूंटी की तरह काठता है " बिना उससे कुछ बोले वह इन्क्वारी की तरफ बढ़ गई...

वह इन्क्यारी पर गिडगिडा रही है क्या वह बेगेज़ क्लेम तक जाकर उन्हें देख आये.. अब डेढ़ घंटा हो चला था... वो एक स्कुरिटी स्टाफ के साथ उसे अन्दर भेजने के लिए तैयार हो गए ... वह उसके आगे -आगे हो ली... डिपारचर लांज को पार कर साड़ी और पेंट, कमीज़, कोट में दो पहचाने चेहरों को ढूंढने में उसे ज्यादा समय नहीं लगा, वैसे भी वो अकेले ही थे कन्वेयर बेल्ट के पास ... कन्वेयर बेल्ट खाली थी उनके सूटकेस ट्राली में थे ... तभी उसे नजर आया कन्वेयर बेल्ट पर चावल का ढेर उग आया है जैसे ही वह ढेर उनके पास से गुजरता है ... चार हाथ बढ़ कर उस ढेर को बेग में उड़ेल रहे हैं और इन्जार करते हैं धरती के घूमने और सफ़ेद ढेर का फिर पास से होकर निकलने का... वह भाग कर पीछे से जाकर दोनों को बाहों भर लेती है वो तीनो एक दुसरे के कंधे भिगोते हैं...नाक से सू.....सू करते हुए मुस्कुराते हैं एक दुसरे को टीशू पास करते हैं माँ उसे ऊपर से नीचे तक देखती है और शिकायत करती है..

"तू ऐसी की ऐसी... ना सावन हरे ना भादों... लगता नहीं आखरी महीना है कभी तो लगे बिटिया ....." तभी सफ़ेद ढेर पास से गुजरता है वह भी हाथ बढाती है ... माँ पकड़ कर झिड़क देती है "ऐसी हालत में झुकना ठीक नहीं... तू बस खड़ी रह... बहूत थकी लगती है"..

पिता को कहती है सूटकेस उतार दो बैठने के लिए... वह माँ को क्या समझाए ऐसी हालत में वो यहाँ क्या नहीं करती...
" कहा था न इन्हें सूटकेस में भर लेते हैं" माँ शिकायत के लहजे में बोली..

"अरे! मैंने कौनसा मना किया था" पिता झल्ला कर बोले...

"अब क्या फरक पड़ता है वो बेग में थे या सूटकेस में" वो हमेशा की तरह दोनों के बीच रेफरी बनी
वो दोनों से जिद करती है वहां से चलने की ..

"रहने दो... माँ बहूत अच्छा बासमती चावल मिलता है यहाँ"...

"पर यह देहरादून का बासमती चावल है..."
वह स्कुरिटी स्टाफ की तरफ देखती है वो उसकी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए सर हिलाता मुड़ जाता है ...
वह पहाड़ों के बीच घाटी में खड़ी है उसके चारों तरफ धान के खेत हैं वह मुस्कुराते हुए देखती रहती है चार हाथ बड़ी तमन्यता से अपनी माटी का सोना बेग में भर रहे हैं..

उनके हाथों से गुजर अनगिनित सफ़ेद दानों की महक उसके ज़हन में हमेशा के लिए बसने जा रही है...
फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Tuesday, 7 July 2009

उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में....

वो दोनों केफे में बैठे हैं बहस कर रहे हैं बहस क्या सिर्फ वही बोल रही है वह चुप है या बीच -बीच में मुस्कुरा देता है आसपास के लोग आँखे बचा उसका लाल और हताश चेहरा पढ़ रहे हैं यह काफी का तीसरा कप है और केफीन उसके भीतर की उथल - पुथल को संतुलित करने के बजाये उसे और उष्मा दे रही है वह उसके लिए पानी मंगाता है उसका मन करता है पानी को गले में नहीं अपने सर पर उडेल ले .... इतने बरसों से उसे जानने के बाद भी उसे लग रहा है आज वह किसी अजनबी के पास बैठी है जैसे पहली बार मिल रही हो ... .... उसके दीमाग में उपजने से पहले, कोई भी भ्रम को उसका विशवास उन्हें विंड स्क्रीन पर पड़ी बारिश कि तरह वाइपर से पोंछ देता था उसने एक बार भी नहीं पूछा क्यों इस बार मुझे जल्दी जाने को क्यों कह रहे हो... ? प्यार और विशवास उसकी ख़ुशी के केडिट कार्ड का पिन नंबर था वह सालों से उसे कहीं भी, किसी भी समय केश करा सकती थी... अब उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में........

वो बार - बार कह रही थी... "तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो? " .. "यदि ऐसी बात थी तो क्यों आने को कहा...क्या इमानदार होना इतना मुश्किल था.... कोई बहाना बना सकते थे नौकरी का, छुट्टी का, तबियत का, हालात का... जरूरी तो नहीं था मुझसे मिलना " ... वो थक गई थी, हार गई थी उसका मौन उसे तोड़ रहा था कुचल रहा था... वो हार कर फिर कहती है "हाव कुड यू ......"

उसने अपना मौन तोड़ा और मुस्कुरा कर कहा "तुम बेवजह भावुक और पोजेसिव हो रही हो ...... आई वोंट माइंड इफ यू स्लीप विद यौर एक्स और सो..... "

उसे लगा आसमान से पत्थरों कि बारिश हो रही है सारे पत्थर उसके सर पर गिरे हैं.... वह केफे से बाहर निकल आई ... बस स्टाप पर खड़ी भीड़ उसे घूर रही है ... वह साड़ी के पल्ले को गले और दोनों बांहों पर लपेट लेती है फिर भी लगा द्रोपदी के चीर की तरह कोई उसकी साड़ी खींच रहा है... धुप, सूरज, आसमान में उड़ता हवाईजहाज, मिटटी में उभरे जूतों और साइकल के पहिये के निशाँ, खम्बा, बिजली कि तारें, ट्रेफिक, दीवार पर चिपका पोस्टर, इधर उधर पड़ा कचरा और खाली बोतलें, सड़क के उस पार बने क्वाटर, रूकती बस और उड़ती धुल.. सभी उसके चारों तरफ घूम रहे हैं गले में एक बड़े धक्के के साथ काफी बाहर आ गई... यकायक सभी कुछ घूमता हुआ स्थिर हो गया... उसके भीतर का कोलाहल भी इस स्थिरता को थामना चाहता है वह पल्ले से अपना मुह साफ़ करती है और पहले से भी तीव्र काफी की गंध के साथ केफे के अन्दर आती है उसके सामने अपनी पुरानी जगह आकर बैठ जाती है और अपने आपको फिर से विशवास दिलाती है उसने सही सुना है...

"एक बात बताओगे .."

"क्या..." वो उसकी और देखता है

"क्या तुम अपनी पत्नी से भी यही कहते? " वो उसकी आँखों में आँखे डाल कर पूछती है

वह एक लम्बी सांस खींच टेबल पर रखे ग्लास को घूर रहा है उसकी खामोशी पहले की भांति जवाब देती है..

वह सामने रखा ग्लास को एक सांस में खाली कर अपने चारों तरफ देखती है उसकी नज़र सामने कि टेबल पर बैठे अधेड़ उम्र के आदमी के साथ सटकर बैठी यूवा लड़की पर पड़ी जिसने बेहद कसी जींस, बिना बाजू और नीचे गले का भड़कीला ब्लाउज पहना हुआ है यूवा लड़की से उसकी निगाह मिलती है वह उसकी और देख लगातार मुस्कुरा रही है....

Painting - Van Gogh