Friday 21 August 2009

गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.....

पता नहीं क्यों उसे लगता था अपने खून के कतरे से वो उसी तरह वाकिफ है जैसे अपने आँखों के रंग से, ठोडी के नीचे पड़े निशाँ से, हाथों पर उभरती नसों से, कलाई पर घडी के नीचे गोलाई में पड़े घेरे से, बालों में उम्र दर्ज करती स्लेटी चमक से, दीमाग में रोज के लिए लिखी टू-डू लिस्ट से, शाम को दबे पाँव आकर पैरों से लिपटती थकान से, रात को सोने से पहले कुछ देर किताब के पन्ने पलटने की तलब से, समय-असमय अतीत कुरेदती यादों से.....बाहर से तो अब भी वह लाल नज़र आता है किन्तु भीतर से कब में वो सफ़ेद हो गया?...अब तो सफ़ेद उजले पंख भी निकल आये हैं उसके...आसमान के नीचे ज़मी पर सभी छोटे और पिछड़े नज़र आते हैं.. ..

मोटी- मोटी आँखे, लम्बी गर्दन, गोल चेहरे पर नीचे निकली तिकोनी ठोडी, लंबी मोटी नाक कोई एक को देखकर दूसरी को पहचान लेता है ... जो पाँव बचपन में अंगुली पकड़ दोड़ते थे अब बड़े होने पर नाट्यडव और अडव सीखने के लिए होम वर्क छोड़, चूडीदार पहन उसका इन्जार करते और वो शाम को आफिस के बाद रसोई छोड़ टेक्सी किया करती, उसे उतार कर कम्यूनिटी सेंटर के कार पार्क में आफिस की फाइल को पहले तो बिना खोले घूरती फिर खोल कर... दोनों दबे पाँव घर घुसती... अपराधियों की तरह... कहीं यह सुनने को ना मिल जाए "भरत नाटियम सीखना जरूरी नहीं है पढ़ना जरूरी है"... हाई स्कूल में उसके साथ की लड़कियां पता नहीं क्या क्या कर रही हैं वह तो कभी - कभी सहेली के जन्मदिन में जाने की इजाज़त मांग रही है.. इतवार को मंदिर में कल्चर क्लास, बुधवार को कम्यूनिटी सेंटर में हिंदी और शुक्रवार को गुरूजी के घर क्लास्सिकल डांस..... वह सिर्फ उन लोगों के घर स्लीपोवर कर सकती है जिनके घर के किसी कोने में मूर्ति है या गुरुनानक का कलेंडर है... स्कूल की छुट्टियों में आत्मीयता और दुलार से भरी रिश्तों की छत पर दून घाटी में खुशबू बटोरने का टिकट हर साल....

दो संस्कृति के बीच रहना रस्सा खीचने के खेल के समान है आखिर जीत तो उन्ही की होगी जिस तरफ हाथ ज्यादा हैं जिनके पाँव के नीचे की ज़मी अपनी है हवा अपनी है आसमान अपना है ...वैसे भी किन्डर गार्डन से मैं मैं.... मैं... "सिर्फ मैं" के मन्त्र के सामने शाम की आरती की घंटी की आवाज़ हवा में गुम होनी ही थी... भेड़ के झुंड में भी अपनी अलग पहचान बना कर उनके साथ चलना सीखा सकती है, हजारों मील दूरी से भी अपने जड़ों की मिटटी की खुशबू सूंघा सकती है बेमौसम, बेहिसाब पड़ती बरफ, बिजली, आंधी से बचा सकती है... किन्तु वह उसे इतिहास के हर कोनो में अन्याय को न्याय, जुल्म को खिदमत साबित करती और स्वयं को दुनिया में सर्वेश्रेष्ठ घोषित करती मखमली ज़मी की फिसलन पर चलने से, गिरगिट की तरह रंग बदलते आकाश की चकाचक रौशनी को सूरज मान लेने से... बर्फीली, शुष्क, हड्डियों को भेद आत्मा को सुन्न करती हवा में सांस लेने से नहीं रोक सकती ... संवेदनाओं और भावनाओं को काफी में मिला कर नहीं पिला सकती..

हमेशा से घर की चौखट के बाहर सब पराया था... सड़क, पगडण्डी, घास, रौशनी, अँधेरा, बर्फ, आकाश, लेम्प पोस्ट, घड़ी की सुइयां, आचार- व्यवहार, मूल्य, आहार, चेहरे, शब्द, जुबान, संगीत, आलाप, भगवान् ... अब ऐसा क्यों लगता है चौखट के भीतर की छत, नींव और दीवारें भी पराई हो गई हैं ...क्या उसे मालुम नहीं था उदर की गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.......

फोटो- गूगल सर्च इंजन से