Wednesday 2 December 2009

पचास गुलाब की खुशबू उसे काँटों सहित याद आएगी ...



घर वालों के साथ, गत्ते के तीन फीट ऊँचे डिब्बे में बंद, पचास लाल गुलाब भी बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहे थे.. घर में घुसते ही वह गाड़ी कि चाबी और पर्स टेबल पर फेंक डिब्बा खोलने बैठ गई ...उसने उन्हे डिब्बे से  बाहर निकाला, पानी से भरी थेली में बंधे और गोल्डन टिशु से लिपटे गुलाब की लाली पचास गुनी खुशबू के साथ उसके चेहरे पर खिल गई...

"पहली बार जिंदगी में मुझे किसी ने फूल भेजे हैं" ..."जन्मदिन मुबारक हो काश मैं भी तुम्हारे पास होता"... उसने बड़े उत्साह से भेजने वाले का नोट पढ़ा .. ... "अरे! सिंक ऊपर तक भर गई है पत्तियों के ढेर से" ..." लो दस्ताने पहन लो नहीं तो कांटे चुभ जायेंगे ..".... "यह क्या आपने सारी पत्तियां तोड़ डाली .."हरा धनिया थोड़ी ना है ऊपर की तो थोड़ी रखनी थी " ... " यह इस गुलदस्ते में नहीं आ रहे बड़ा गुलदस्ता लाओ ना..."  उसकी आवाज़ और पैर आसमान में थे .. हवा में चारों तरफ ख़ुशी तैर रही थी....वो फूल पचास राजदूत कि तरह एक राजकुमार का पैगाम एक राजकुमारी के लिए लेकर आये थे ....जिस हाँ का वो कई दिन से इंतजार कर रहे थे आज उसके बिना कहे उन्होंने उसकी आँखों में पढ़ ली...
गुलाब कि खुशबू ने कमरे के चारों कोनो, दीवार, छत, परदे, पेंटिंग, सोफा, टेबल, लेम्प, फ्रेम, केंडल स्टेंड, बुद्धा कि मूर्ति, क्रिस्टल बोअल, कुशन, कालीन हर खाली और भरी जगह पर अपने वहां होने का ऐलान कर दिया, उनके लाल रंग कि अलग पहचान थी जैसे तारों के बीच चाँद की होती है... कमरे में बैठते - उठते गुज़रते वो आखों को बुलावा देते और नाक को चढ़ावा...
अगले दिन जब पूछने पर उसने अपना फैसला सुनाया तो पचास गुलाब के कांटे एक साथ उनके दिल और शरीर में चुभे ... उसके फैसले के आगे सर झुका लेना मज़बूरी थी और ऐसे वक्त में उसे गले लगा लेना कर्तव्य... पर उसके प्रति उनका क्या कर्तव्य था जिसने यह गुलाब भेजे थे और जो कुछ दिन पहले उसकी एक पुकार सुन कई बागीचों के फूलों को अनदेखा कर, पहाड़ों की आवाज़ को अनसुना कर, सात समुन्दर पार, धरती के एक कोने से दुसरे कोने में दिल लेने और देने आया था ....

गुलाब को घर वालों के हवाले कर वह तो लौट गई अपने शहर.. कमरे मैं घुसते ही गुलाब को देखते ही आँखों में अजीब सा सूनापन घिर आता.. कांटो की चुभन साँसों में भर, दिल के भीतर एंठ्ती  ...जो ना किसी के साथ बाँट कर कम होती और न ही भीतर दफ़न होती ... रोज उन्हे देखा ...किस तरह एक-एक कली फूल बनी और धीरे - धीरे पंखुड़ी गहरी होने लगी, अपने में सिकुड़ने लगी ...खिड़की से झांकती धुप उन्हे सुखा रही थी, पर्दा खींचने से सोते से जागती नाज़ुक हवा अनजाने में ही उन्हे फूल से अलग कर देती .. रोज़ सुबह पंखुड़ियां टीक फ्लोर पर ऐसे चमकती जैसे आने वालों के स्वागत में बिछी हों .. जब भी उन्हे उठा आँगन की मिटटी के हवाले किया ऐसा लगता जैसे दोनों के लिए देखे सपनों पर मिट्टी डाल रही हो ... सपने देखने वालों में बहुत लोग थे... विश्व के कोने - कोने में...पर उन्हे फ्लोर से उठा मिट्टी के हवाले करने को वो अकेली थी ...
फूलों पर गिनी- चुनी पंखुड़ी रह गई .. उन्हे मटमैले पानी से निकाला और आँखे फाड़, मुह पर हाथ रख एक कदम पीछे हट गई ... गुलाब कि हर टहनी से नन्ही - नन्ही हरे रंग कि चमकदार नरम पत्तियां फूट आई थी उन पत्तियों में एक भी काँटा नहीं था... प्रक्रति, स्रष्टि और भगवान् भी उन दोनों के लिए सपने देखने से नहीं चूके...

उसकी भरी आँखे देख रही है समय के उस पार, एक अंतराल, एक काल चक्र... आँगन कि कली जो हवा में बिखरी पचास गुलाब की सज्जनता, सहीष्णुता, अधीरता, और चाह अभी देख ना सकी.. एक दिन वो उम्र कि सीढ़ी पार कर जब सफेद बालो में रंग लगाएगी... पचास गुलाब की खुशबू उसे काँटों सहित याद आएगी ...