Sunday, 16 December 2012

अरे बाप रे! बंगाल टाइगर की आँखों में मेरा चेहरा..

 
थियेटर में घुसने से पहले सर पर एडिडास की उलटी केप लगाए टिकट चेक करने वाले लड़के ने जब प्लास्टिक का चश्मा थमाया तो जितनी उदासीनता से उसके हाथों ने थमाया था उतनी उदासीनता से ही उसने हाथ बढ़ा अपनी कोट की जेब में सरका दिया... एक बार को तो जी में आया मना कर दे फिर शायद सफ़ेद चमड़ी के सामने अपने रंग और लिंग की लाज रखने की खातिर हाथ अपने आप ही उठ गया...   क्या सोचेगा पाकी पहली बार थियेटर में फिल्म देखने आई हैं...
 
थियेटर पॉपकार्न की खुशबू से खचाखच भरा है और अगले दस मिनट लोगों को आइल में आते -जाते देख और पैर सिकोड़ जगह देने में निकले ... विज्ञापनों के बाद फिल्म शुरू हो होती है .... अरे! तस्वीर हलकी सी आउट आफ फोकस धुंधली सी है कितने दिन से सोच रही हूँ ओपटीशियन के पास हो आऊं अब तो पढने में भी आखों पर जोर पड़ता है... यह फिल्म क्या अब ऐसे ही झेलनी होगी विज्ञापनों के समय तो ठीक थी...  अँधेरे में आस-पास, आगे पीछे नज़र घुमाई सभी के कानो पर वह टंगे थे...  पर मेरे कान दुखते हैं चश्मा लगाते ही... हाथ गोद में सोते काले कोट की जेब तलाशते हैं और दांत और अँगुलियों प्लास्टिक की थैली की चीर फाड़ पर टूट पड़े ... खुसड़ - फुसड, चर्र -मर्र... सन्नाटे का फायदा उठा कितना चीख रही है पन्नी ... दो चश्मे लगी आँखे पीछे मुड़ कर घूरते हैं उन्हें इग्नोर करते हुए चश्मा अपने कानो पर टांगती हूँ .... आहा! आह! आहा!... जादू!.. चमत्कार! ... आखे फटी और मुह खुला... कुर्सी में धंसा शरीर सीधा हो जाता है... मैं स्क्रीन के भीतर... मुह से हलकी सी चीख निकलने को है समुद्र के लहरें मुझे बहा ले जायेंगी... हाथ बढ़ा चाँद को छू सकती हूँ... अरे बाप रे! बंगाल टाइगर की आँखों में मेरा चेहरा... यह चाक़ू मछली के पेट में नहीं मेरी अंतड़ियों के आर-पार, यह जहाज टूट कर मेरे ऊपर गिरने वाला है, कितनी सुन्दर रात है सितारे मांग भरने खुद ब खुद चले आ रहे हैं, वो पर्स में रखा केला बन्दर को दे दूँ... पाई की पसलियाँ एक, दो, तीन, चार, पांच..., रिचर्ड पारकर पाई को ही नहीं मुझे भी खा जाएगा चेहरा गोद में डाइव मारता है.. यह समुद्री जीव की बारिश पाई की नंगी छाती से नहीं तड़ातड मेरी गर्दन से टकरा रही है... कितना खूबसूरत है यह आईलेंड और उससे सुंदर यह पेड़ पर बना बिस्तर तमाम उम्र अकेले बैठ कर यहाँ लिखा जा सकता है...
 
 
यह सब उस छोटी बच्ची के फिल्म देखने के अनुभव जैसा था जो फिल्म में ट्रेन आती देख आँखे बंद कर माँ की गोद में दुबक जाया करती थी... किसी भी फिल्म में चिंघाड़ता हुआ, धुंआ उगलता, दानव की शक्ल जैसा इंजन अपनी और आता देख उसकी चीख निकल जाती थी... फिल्मों के विलेन से उसे बहूत डर लगता था उनके हाथ में चाक़ू और खून देख उसकी कई रातों की नीद भयानक सपने निगल लेते थे... काठमांडू के भारतीय दूतावास में कौनसे इतवार को हिंदी फिल्म दिखाई जायेगी उसे जब भी स्कूल में सहेलियां खुश और उत्साहित होकर बताती... वो उदास हो जाया करती उसी शनिवार को उसे सर दर्द, पेट दर्द, उलटी या बुखार हो जाया करता था... 
      
बच्ची थियेटर से बाहर निकली है सभी लोग प्लास्टिक का चश्मा एक नीले ड्रम जैसे ढक्कन लगे बक्से में डाल रहे हैं।   
"मैं यह चश्मा अपने पर्स में रख लूँ ?..." बच्ची बड़ी मासूमियत से पूछती है।  
"तुम्हारा दिमाग सही है इस दो कोडी के चश्मे का क्या करोगी ... थ्री डी टी वी खरीदने की बात करो तो फ़िज़ूल खर्ची की दुहाई, सिंपल लिविंग का झंडा लिए, यह उपभोक्तावाद को बढ़ावा और जेब खाली करने की साजिशें हैं के नारे लगाती हो ..." वो उसी का वार उसी पर फेंक झुंझलाता है।    
"हमने टिकेट के साथ चश्मे के भी पैसे दिए होंगे ..." बच्ची अभी भी अड़ी हुई है।
"तो क्या हुआ? घर वैसे ही फ़ालतू के जंक से भरा है ..." वो बच्ची को अकेला छोड़ थियेटर से निकली भीड़ में गायब हो जाता है ...
उदास हाथ चश्मे के साथ छोटी बच्ची को भी धीरे से नीले ड्रम में सरका देते हैं...
 
कोट की चेब में चश्मे की पन्नी को अँगुलियों से मसलते हुए लम्बे - लम्बे कदम लेती हुई एक औरत एस्कुलेटर से उतर, शीशे के दरवाज़े को बिना जेब से हाथ निकाले अपने शरीर के भार से खोलती हुई बर्फीली हवा और अँधेरे को चीरते हुए पहचानी छाया को ढूंढते हुए आगे बढ़ती है ...