Friday 16 September 2011

उसे तूफ़ान से डर नहीं लगता पर इंसानों से अभी भी लगता है...

 
अखबार, टी वी, आफिस के कम्पूटर का होम पेज खोलते ही खबर है आज के तूफ़ान की...तूफ़ान का नाम है केटिया! शाम तक यह अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका होगा ऐसा ही कुछः सुना है ... आफिस से लौटते हुए बस स्टाप पर इंतज़ार करते हुए केटिया की चाप सुनी ... हाई स्ट्रीट में दुकानों के ओटोमेटिक डोर खुलते ही ग्राहकों से पहले, पत्तियां और कूड़े दान से उड़ते कचरे की भीड़ भीतर घुस आती, शहर की सड़कों पर चहल -कदमी करती भीड़ हवा को जगह देने के लिए पाँव जमा कर ज़मीन को पकड़ खड़े हो जाते..उनके कपड़े शरीर से अलग होने के लिए एक पल में कई बार आगे-पीछे झूलते झंडे की तरह हवा में लहलहाते ... केटिया तूफ़ान के आने की खबर और सड़कों पर खलबली मचाने से किसी का कोई काम रूका नहीं था ...
"अरे तुम आज भी सैर को जाओगी?...
"क्यों? "
"कोई पेड़ गिर गया तुम पर तो "...
"अच्छा है गिर जाए तुम्हारा मैदान साफ़..". वो बेपरवाह होकर हूडी की जिप बंद करती है ...
"ममी आज भी घुमने जाओगी?" ... उसे जुते पहनते देख टोकती है
"आज क्यों नहीं?" ..
"आप हवा में उड़ गई तो?"
"कितना अच्छा होगा न रसोई में चमचा हिलाने की जगह आकाश में हाथ हिलाउंगी..."
आँखे फाड़े चेहरे से निकले "बी केयरफुल" पर मुस्कान फेंक वह धड़ाम से दरवाज़ा बंद करती है उन्हे कैसे समझाए ...यह ढाई मील की सैर अपने आप से जुड़ने, बात करने, खोजने, संभलने के लिए करती है ... प्रक्रति, प्यार और अपनेआप से मिलने का अपाइंटमेंट है उसका ....सड़क, पेड़, मैदान, घरों की कतारें, गोल्फ कोर्स, पब के बाहर पड़ी बेंच, वर्तमान, भविष्य, अतीत सभी उसका इंतज़ार करते हैं और वह जिसका फोटो चिपका है रोज उसे देखते ही लकड़ी की फेंस के पास आकर खड़ा हो जाता है उसके वियोग में बेचारा चेहरे से कितना उदास दिखता है, पता नहीं किस दिन लकड़ी की फेंस फांद, रास्ता रोक, पीठ पर बिठा, हवा में उड़ा ले जाने की हिम्मत जुटा पायेगा?...
 
आज पेड़ों की आँखों में केटिया का डर नाच रहा है आकाश की और मुह किये, पेंडुलम की तरह झूल रहे हैं हमारी जड़ों को और मजबूती से पकड़ लो, धरती से रहम की भीख मांग रहे हैं, उसके अलावा और कौन समझ सकता है अपनी जड़ों से अलग होने का दर्द..पत्तियों की हालत तो देखो कैसे तड़प कर फड़-फड़  करती हैं केटिया उन्हे महीनो पहले पेड़ से अलग करने पर जो आमदा है .. सड़क और फूटपाथ पर भटकती हुई हवा के वेग के साथ वो हज़ारों की तादात में उसके पैरों से लिपटती है... पेड़ों से बारिश की तरह गिरती है.... आज से पहले हवा की सायं- सायं इतने ऊँचे स्वर में कभी नहीं बोली ... यह सायं -सायं किसी को फोन पर सुनाई जाए ...पर किसको? जिनकी धडकनों में सायं-सायं ऑक्सीजन फूंक सकती हो... वो सब बहुत दूर हैं और वहां आधी रात होगी वो सब सो रहे होंगे... जिनके सिर्फ कानों में शोर की तरह गूंजेगी उन्हे सुनवाने का कोई फायदा नहीं वो सिर्फ उसे खतरों की लिस्ट गिनवायेंगे .... आज तो कहीं कोई कुत्ते घुमाने वाले का भी नामोनिशाँ नहीं ....... तभी उसकी नज़र सामने धीरे - धीरे अलसाती चाल चलते दो यूवकों की पीठ पर पड़ती है जिनके कन्धों पर भारी बेग हैं ...एकाएक उसे औरत और शाम गहरी होने का अहसास होता है ...कहीं वह कार्ड पर चिपकी अपनी फोटो दिखा, पिछले जन्म में मुजरिम होने का परिचय देते हुए, समाज में स्थापित होने की कोशिश में, उसकी मदद मांगेगे ? .. बैग से सामान निकाल कर खरीदने को कहेंगे ...जब पास से गुजरेगी तो उन्हे दिख ही जायेंगे उसके हाथ खाली हैं ...जब भी ऐसे युवा ने घर का दरवाज़ा खटखटाया है  कोई तो उन्हे समाज में बसने, अपने पैरों पर खड़ा होने का मौक़ा दे... इस दलील का जवाब अधिकतर उन्हे नोट पकड़ा गैर जरूरी सामान खरीदने से दिया है ....भले ही घर वालों ने उस पर सड़कों पर घुमने वालों की ड्रग हेबिट को प्रोत्सहान देने की तोहमत लगाई हो ...
यह रास्ते बरसों से उसके भीतर -बाहर का सब जानते है शांत, सुनसान, सकून और मौसम के जादू से भरे उसे अपनी ओर खींचते हैं छ बजते ही इनसे मिलने के लिए वो बैचैन हो जाती है यहाँ चलते हुए कभी असुरक्षित महसूस नहीं किया ....दो पीठ और उसके बीच की दूरी कम होती जा रही है...इन नजदीकियों के बीच उनकी चाल- ढाल और आपस में बात करने के अंदाज़ ने उसकी धडकने तेज़ कर दी है जब वह तेज़ कदमो से पास से गुजरी तो उनमे से एक ने सामने आकर पूछा ... यू स्मोक? डू यू हेव अ लाईट? नो कह कर कदम तेज़ी से आगे बढ़ गए... सड़क के उस सिरे तक पहुंची जहाँ से रोज़ का ढाई मील का चक्कर पूरा करने के लिए दायें मुड़ना था ....उसकी आँखों ने महसूस किया केटिया ने शाम को समय से पहले ही अंघेरे में धकेल दिया है ..आगे रास्ते में लेम्प पोस्ट भी नहीं हैं ....पूर्णिमा की रात होते हुए भी चाँद पर भरोसा करने की दिल इजाजत नहीं देता... सायं - सायं को चीरती हुई ठहाके की आवाज़ आती है ...दिल आगे बढ़ने को रोकता है सरकारी रौशनी अपनी और खींचती है.... भले ही उन दोनों से दोबारा सामना होगा....जैसे पुलिसवाला ख़तरा देख अपने बचाव के लिए कमर पर लगी पिस्तोल को पकड़ सुरक्षित महसूस करता है ...वैसे ही हूडी की जेब में मोबाइल को मुट्ठी में भींच कर वह अपने को भरोसा देती है और कदम वापस मोड़ लेती है .... उसे लौटता देख वह दोनों खड़े हो जाते है उसके पाँव फूटपाथ को छोड़ सड़क पर हैं ... इस बार दुसरा यूवक सड़क पर उतर कर रास्ता रोकता है ..." हेव यू लोस्ट यौर वे? वी केन ड्राप यू इन अवर कार" उसकी नीली आँखों में पता नहीं ऐसा क्या देख उसके कदमो में टर्बो मोटर लग जाती है और घर के दरवाजे पर ही ब्रेक लगता है.... उसे तूफ़ान से डर नहीं लगता पर इंसानों से अभी भी लगता है...
 
दरवाज़ा खुलते ही ... " हाव वाज़ यौर वाक् मम? "
हांफती हुई सांस जवाब देती है "इट वाज़ गुड....जस्ट ऐ बिट स्केयरी "      
 

Friday 15 April 2011

एक्सपाइरी डेट के बाद भी दूर नहीं होना चाहते ...

वो खुशी में स्फूर्ति से और उदासी में फुर्सत से उसके हम सफ़र रहे हैं उन्होंने देखा है उसे देवदार की कतारों के पीछे किसी को ढूंढते हुए... मैदान में घोड़े को घास से दोस्ती करते हुए... तलवों के छूते ही सूखे पत्तों को चरमरा कर शर्माते हुए, पत्तों का फूटपाथ का घूंघट बनते और निर्लज्ज हवा का सभी के सामने वह घूँघट उघाड़ते हुए... घर लौटते परिंदों को दाने के तलाश की कहानी आसमा को सुनाते हुए... चिमनी से निकलते धुएं की महक को दिल से निकले धुंए से पहचान बढ़ाते  हुए ... जंजीर से मुक्त होने को गर्दन खींचते  अल्सेशियन को देख अपनी खैर बचाते हुए... हाथ में हाथ लिए  झुर्री दार चेहरे की मुस्कान का अभिवंदन करते हुए... नुकीली छतों पर से पिघलती बर्फ का रंग उसके गालों पर लुढ़क आये पानी के रंग से मिलते हुए... घोड़े की कमर पर ऊपर-नीचे उछलती छाया को  टप -टप की आवाज़ के साथ दूर जाते हुए... किसी अजनबी गेट पर गुब्बारों का बार -बार सर हिला उसका स्वागत करते हुए, दोड़ते हुए बहरों के आई पोड्स को जगह देने के लिए सड़क पर उतरते हुए...  जानी-अनजानी आँखों का खेत की बगल में  रोज उसी वक्त मोड़ पर टकराते हुए... परछाई को लम्बी, तिरछी, आड़ी हो झाड़ियों , पगडण्डी,  सड़क, पानी, घास पर से गुजरते हुए....

विरासत में मिली पहिये  जैसी चाल, पिता के विचारशील कदम, वातावरण में गूंजती पढ़ी ना पढ़ी किताब के पन्नो की आवाज़ और मां का साया दस कदम पीछे होने का आभास इनको पहन कर ना जाने कितनी बार हुआ.. सबसे पहले मौसम की पहली बर्फ छूने का सुख हर वर्ष दशकों से इन्होने अपने ज़हन में समेटा है... वसंत के डेफोडिल , पतझड़ के चार सौ चोरास्सी रंग,  मानसून से  निखरे जंगल       के बीच भीगी- लजाती  ज़मी  से महकते  कुदरत के करिश्मो का  अलग - अलग स्वाद सार्ष्टि के साथ मिल बाँट कर चखा है... ख़ुशी में वो गौरिया के घोंसलों में झांकते, राह में ठहरे हुए बारिश के पानी से चुहल करते , फ़िल्मी स्टाइल में देवदार के तने पर हाथ टिका गोल-गोल घूम सुबह रेडियो पर सुना प्रेम गीत गुनगुनाते, फीते कसने को खाली बेंच पर बैठ कर थोड़ा सुस्ताते, गोल्फ कोर्स से लापता सड़क पर पड़ी लावारिस सफ़ेद गेंद को बादलों में छेद करने को हवा में पूरे जोश से उछाल देते ... दुःख में उसके दिल को टोहते, भरोसा दिलाते मुझे पहनो और बाहर झांको  देखो! जिंदगी कितनी   खूबसूरत  है  कभी आगे बढ़कर आंसू पोंछने की कोशिश नहीं की... ना ही कारण जानने के लिए प्रश्नों की बौछार की ... जब कोई बूंद गर्दन से लुढ़क कर उन पर ठहर जाती, वो तुरंत सोख लेते और अगले दिन बारिश को बुला कर उसके गोल निशाँ धुलवा देते ... नर्म, गुदगुदे, मखमली ... वो उसके  पैरों  के लिए इटली से बन कर आये थे... उनको बनाने वाला शायद उसे जानता था जिसने क़दमों को अपनी हथेलियों  में भींच कर कहा था... एक दिन इनके लिए अपने हाथों से जुते सीयूंगा .... ये जुते उसकी हथेलियाँ थी जो पाँव के आकार में ढल गई .... उनको पहनते ही उसके साथ का सफ़र तय था... और बादलों से निकल सूरज सामने खड़ा मुस्कुरा रहा होता...

समय के साथ वो अब उसके जैसे हो चले हैं त्वचा से ढीले - ढाले, चहरे से बदरंग, शरीर से कमज़ोर, एडी से घीस गए हैं जोड़ों से उधड़ने लगे हैं वो आराम चाहते हैं थक गए हैं जिंदगी से, थके भी क्यों ना ... पिछले गयारह साल में वो इतना सफ़र तय कर  चुके हैं जितना हवाई जहाज़ दो दिन में करता   होगा...   उनके साथ किया रोज पांच-सात  कोस का सफ़र इंच दर इंच ज़मीन पर हज़ारों बार दर्ज है सिर्फ मिट्टी के कणों को मालुम हैं उन्होंने कितनी बार तलवों को चूमा है...

उनकी जगह मजबूत, नीली सफ़ेद धारियों वाले, खुरदरी सोल के जुते खरीदे जा चुके हैं पर वो एडी के ऊपर की त्वचा से नरमी से पेश नहीं आते... वहां एक गुलाबी पिलपिला, पारदर्शी बुलबुला उभर आया है... मेड इन चाइना जो ठहरे.. भारतीयों से वही पुराना ऐतिहासिक बैर... पुराने जूतों के लिए घर में जगह नहीं...उनके शरीर की मुनियाद ख़त्म हो चुकी है ... इनसे छुटकारा पा लो, अब तो नए आ गए हैं... जुते वाली अलमारी कह रही है... घर कह रहा है... घरवाले कह रहे हैं सही तो कह रहे हैं...अब यह किस काम के.... चेरेटी बेग में डाल देना चाहिए ... इतने जीर्ण -जीर्ण जुते कौन पहनेगा?... उसकी हथेलियों में किसी और के पाँव?...नहीं बिन में ठीक है ... रीसाइकल बिन में? या कबाड़ वाले में? सफ़ेद प्लास्टिक के बेग में लिपटे वो अपनी अंतिम यात्रा की प्रतीक्षा में दो सप्ताह से लेंडिंग के कोने में पड़े हैं आज शाम देखा  तो वह कोना वीरान है ...

उसे पूरी रात जंगल में आग के सपने आये और नसों में बिच्छु रेंगते महसूस हुए ... ठीक उन्ही रातों की तरह जब उसने कहा था प्यार एक चमत्कार की तरह फिर घटित हुआ है उसके जीवन में और वह उससे दूर होना चाहता है ... पर कहाँ हो पाई प्यार से दूर ... वो यादों से निकल दरारों में यहाँ - वहाँ पीपल की तरह उग आता है यह जूते भी बिलकुल उसके जैसे हैं एक्सपाइरी डेट के बाद भी दूर नहीं होना चाहते ...

बाहर गहरा कोहरा हैं, बगीचे के हर कोने, घास के हर तिनके, घर की छतों और गाड़ी की देह को आज की सुबह, जमे पानी की स्लेटी चादर में लपेटे है वह शाल लपेटे ठिठुरते हाथों का काँटा कमर से ऊँचे हरे रंग के रिसाइकल बिन में फेंकती है अखबार और जंक मेल के बीच से सफ़ेद बेग में लिपटे सफ़र के साथी को उँगलियाँ में फंसा कर भीतर ले आती है और उन्हे जगह देती हैं यादों से सजी अलमारी में ... खुशियों वाली ऊपर की शेल्फ को छोड़,   नीचे वाली शेल्फ पर सबसे खामोश और नम जगह के बीच, दर्द की बगल में ....

Wednesday 23 February 2011

उसकी बाहों में जन्नत नसीब होती...

दोबारा गर्म किए हुए चिकन, चावल, मटर पनीर, अचार, ब्रेड, कस्टर्ड, काफी, चाय ,  बीयर, वाइन,  रम की मिली जुली  मितली  लाने वाली  गंध वातावरण में झूल रही है.. कोई उनसे पानी ना मांग ले, वो ट्रे समेट,   बत्ती बुझा, ब्लेंकेट  इधर- उधर फेंक, उजाले की तश्तरियों  पर फटाक -फटाक ढक्कन   गिरा, पिछले हिस्से में परदे खींच आराम कर रही हैं..  खामोशी ने बंद खिड़कियों को देख सेंध लगा ली..  लोग सो  रहे हैं,  सोने की कोशिश में ऊँघ रहे हैं या कुर्सी से खीचा -तानी करते  स्क्रीन पर आँखे चिपकाए  बैठे है,  उसे महसूस हुआ  जो भी थोड़ा बहुत खाया वो यूँ ही पेट में तैर रहा है उसे वाइन नहीं लेनी चाहिए थी... उसके डाइजेस्टिव सिस्टम और अल्कोहल की नहीं बनती ... शायद  सोने में मदद करे.. "यस प्लीज़ ..."  ट्राली पर रखी बोतल और उसके बीच खुदबखुद कूद पड़ा... सभी सोने- जागने वाले लोग सांस लेने के लिए कम्पीट कर रहे हैं आक्सीजन के बाद  कार्बनडाईकसाइड के लिए...वो भी  उसके हिस्से में बहूत कम आई  है  दम घुट रहा है.... नज़रों ने  गर्दन घुमा कर पास वाले को भांपा  उसे  निढाल देख धीरे से दो अंगुलियाँ  फ्लेप के नीचे लगाई और  ऊपर सरका दी  ... पों फटे की सिंदूरी रौशनी में उसका चेहरा नहा गया... होंठ खुले के खुले  ....   फटी आँखें  बस देखती रह गई... हज़ारों बार पहले भी मिला  है.... नए - नए भेस में, नए से नए रंग - रूप में, नयी -नयी जगह पर, छिपते, उगते, भागते, रूकते, पीछा करते,  ढीठ बन कर  छत पर  खड़े रहते, विंड स्क्रीन पर आँख मारते ... यह चाँद है या उसका महबूब?   दुनिया भर के  सूफियों,  कवियों, लेखकों, प्रेमियों ने इसके बारे में सदियों से कई आसमान भर लिखा है पर वो उनको  सपनो में ही करीब से मिला है...  बचपन में चन्दा मामा और फिर महबूब की तरह  हमेशा  दिल में  रहा है आज दूरियां और चांदनी बिना उसकी राह रोक खड़ा है... आँखे उसे अमृत की तरह पीती हैं...  अंगुलियाँ गुलाब की पंखुड़ी की तरह छूती हैं... धड़कने उसे पहले चुम्बन के अहसास की तरह दर्ज करती हैं आत्मा इस आलोकिक सुख को अपने भीतर उसके लिखे खतों की तरह सहेजती है .. वह दोनों बांह उठाये अपने पास बुला रहा  है...जैसे ही उसने खिड़की से निकल पंख पर पाँव  रखा...चाँद ने उसे बाहों में भर ऊपर उठा लिया..  वो अपना आँचल भर रही है तारों से, वो उसे  आकाश के कोने - कोने में ले गया... उसने सारा आकाश खाली कर दिया... चाँद एक हाथ में उसे थाम और दुसरे हाथ से  उसके आँचल से एक- एक तारा उठा वो उन्हें वापस आकाश में टांक रहा है और सारा आकाश जगमगा रहा है  जिधर  देखो  उसका नाम लिखा है... इस पल  को जीने के लिए कई जीवन कम थे...   

परिचारिका हाथ में पानी भरा ग्लास लिए उसके कंधे हिला रही है वो चाँद की बाहों से छूट, धम्म  से ज़मीन पर आ गिरी है ... हाथों ने टटोल कर जल्दी में नीचे से पर्स उठाया, जेब में हाथ डाला, पहली, दूसरी, तीसरी  कंघा, शीशा, लिपस्टिक, एक, दो, तीन पेन, चश्मा, क्रेडिट कार्ड, सौंफ की पुडिया, इलायची,  रसीदें, हेयर बैंड, सेफ्टी पिन, बिंदी का पेकेट,  पोलो ट्यूब,  पाकिट डायरी, टाफी, मास्चराजिंग क्रीम,  डीओडरएंट, सेब, टूथ पिक, टिशु..  कहाँ गया?कहाँ गया? यहीं तो डाला था...   हाथों की उलट- पलट से और पैरों की उठक- पटक से,  चिंकी आखों, चपटी नाक और साल्ट- पेपर  बाल वाला पड़ोसी  कसमसाया, उसकी अधखुली आँखे माथे में सिलवट डाल, इसकी याचना भरी  आँखों को नज़रंदाज़ करते हुए, निगल  जाने के अंदाज़ में घूरती हैं...वो सीधा बैठ कर अपनी टाँगे सिकोड़ता  है,  सेंडल छोड़  उसकी टांगों से बचती वह खिसकती है उचक कर  छत से लटकता  बहुत बड़ा मुह खोलती है, एक भरकम चीज़  को नीचे उतार कर  फिर से शुरू होती है तलाश...  हथेलियाँ जगह  बनाती हैं  ठुसे हुए कपड़ों, पेकीटों, अचार की शीशी,  मिठाई  का डिब्बा,  किताबों   के पन्नो ,  फोन चार्जर, ब्रुश, शेम्पू.... खटर  -पटर, खसर -पसर ...  बैचैनी बढ़ती जा रही है वो सूरज की रौशनी के आँचल में ना छिप जाए ...पड़ोसी की अधखुली आँखे  खुलते -खुलते बड़ी होती जा रही है...  अंगुलियाँ जिप खींचती है  उसे वापस  टिका  ...फटाक! से बड़ा खुला  हुआ मुह बंद कर ... वापस  धम्म से सीट पर... आँखों में पानी और चेहरे पर मुर्दानगी... हाथ झुकते हैं टिशु तलाशने को ..अरे   यह क्या है? ..मिल गया ! ... हथेलियाँ  छूते ही मजबूती से पकड़ लेती हैं उसकी सफुर्ती और मुस्कराहट देखते ही पड़ोसी को टेटनस का दौरा पड़ गया  है ..तेज़ी से कांपते हाथ- पाँव, चटखती  हड्डियाँ,  बदहवास और घबराया हुआ वह अपनी जगह से खड़ा हो गया ... इससे पहले की वो  बम!.. बम! ...चिल्लाए... वो हथेली उठा और उसके सामने खोलकर समर्पण कर देती है ...  उसके चेहरे का रंग बदलता है लेकिन तेवर  नहीं ... "यू आर नोट अलाउड  टू  स्विच आन इन फ्लाईट"...वो अंगुली से इशारा करती है खिड़की से बाहर अपने टारगेट का... वो जितनी बार क्लिक करती है उतनी बार खुद को कोसती है काश उसके पास बम होता आज उसकी बाहों में जन्नत  नसीब होती ...  पड़ोसी उससे अधिक से अधिक दूरी रखते हुए  पास से गुजरती परिचारिका से धीरे से बुदबुदाता है "इन्डियन वीमेन आर मैड... इज देयर अ एम्प्टी  सीट? "