Wednesday 2 December 2009
पचास गुलाब की खुशबू उसे काँटों सहित याद आएगी ...
Thursday 19 November 2009
तड़ाक की आवाज़ सारे गावं पर बिजली की तरह गिरी....
Thursday 5 November 2009
कहीं तुम उन्हे मसीहा और दोस्त ना समझ लो....
Tuesday 20 October 2009
नीले आसमान से स्लेटी बादल घुमड़- घुमड़ कर उसकी ओर आ रहे थे....
"तुम लड़की हो मुझे तुम्हारी बदनामी की चिंता होती है.."
"तुम्हे मेरी चिंता करने की कोई ज़रुरत नहीं है आई कन् लुक आफ्टर माइसेल्फ़... तुम अपने माता - पिता के आदर्श बेटे, कालेज के आदर्श विधार्थी और मेरे आदर्श दोस्त बने रहो.. यही तुम्हे सूट करता है"
Wednesday 30 September 2009
एक शाम की भूख और पचास हजार की रोटी..
Thursday 17 September 2009
उनकी नीली आँखों में अनगिनत किरणों की रौशनी....
Thursday 3 September 2009
"आई हेड ए वेरी लांग डे!....."
उसकी आँख खुली और घड़ी की और मुड़ गई... कमरे के भीतर अँधेरा वैसा ही बिखरा पड़ा था जैसे सोने से पहले था... इस मौसम में सूरज का अलार्म बजने से कोई लेना-देना नहीं है और ना ही सूरज ने रौशनी देने की गारंटी दी है की वह स्कूल और आफिस बंद होने तक रौशनी देता रहेगा... बिना चमक के, बिना पीले रंग के, बिना ऊष्मा के वह बादलों के पीछे छुप कर भी अपने होने का अहसास दिला देता है ताकि दिन और रात पर उसका विश्वास कायम रहे.. ...
उसके दिमाग का अलार्म अक्सर घड़ी के अलार्म को हरा देता है और आज भी यही हुआ... शरीर रजाई से बाहर निकालने कि इजाज़त मांग रहा है जो उसे रोज़ कि तरह नहीं मिलती...हाथ पैरों को दीमाग का आदेश जरूर मिल जाता है जिसे वो कभी नहीं ठुकराते... एक झटके से रजाई पलंग के दूसरी तरफ फेंक... बैठ जाती है उसके पाँव स्लीपर तलाशते हैं वो गाउन लपेटती हुई दुसरे कमरे में झाकती है... रजाई का ढेर ज़मीन पर कुंडली मारे बैठा है.. उसके ऊपर स्पाइडर मेंन सो रहा है और सुपरमेन घुटने पेट में दिए , पलंग के किनारे बिस्तर की चादर के नीचे सिमटा पड़ा है यदि वो जरा सा भी हिला तो बेचारा स्पाइडर मेंन उसके भार तले दब जाएगा ...वो अपने कमरे से गर्म रजाई ला उसके पाँव, कमर, पेट और कन्धों के नीचे दबा देती है ...चार वर्ष के सीखियाँ पहलवान, सुपरमेन की हड्डियों के नीचे रजाई टेंट कि तरह तन गई.. उसके ठंडे नर्म गाल पर अपनी गर्म हथेली रख दुसरे हाथ से स्पाइडर मेंन उठा वही पास के स्टूल पर टिका देती है .. उसकी नज़र सुपरमेन के मासूम चेहरे पर टिकी है बाल काटने के बाद उसके कान कितने बड़े लगते हैं सुपरमेन का विरासत में मिला नाम इसके कान के अनुरूप है "कपिल"...
रात दोनों तय करके सोये थे सुबह क्या करना है समझोता मज़बूत करने के लिए उसने बकायदा रिश्वत दी है... सोने से पहले दो कहानी ज्यादा सुनाई थी... वापस लौटने के बाद मेक्डोनाल्ड में बर्गर और शाम को "हल्क" फिल्म ... और इस नेगोसिअशन के दौरान उसके नन्हे से मुख से निकले शब्द ... परहेप्स... इनडीड... ..फॉर एक्साम्पल....एब्सोलुत्ली.. बट... बिकाज़.... लेट मी थिंक... इट्स नाट फेयर....लेट मी पुट दिस वे.... . नींद आने के बाद तक भी उसके कानों में तैरते रहे... उसने डेढ़ घंटे के भीतर पंद्रह वर्ष अनुभवी बेटियों की माँ कि वो सभी धारणाएं और ग़लतफ़हमीयाँ दूर कर दी जो उसने बेटों के पालने के बारे में पाल रखी थी. .
किताब और तौलिया उठा वह बाथरूम में घुस गई ... जब गीले सर बाहर निकली तो पर्दों के बीच से छनती रौशनी अंदर और बाहर से मिटते अँधेरे का ऐलान कर रही थी...अँगुलियों ने परदे का कोना पकड़ा और जोर से खींच दिया ...परदों कि रेलिंग और रिंग्स के बीच बजती खनक के साथ उसने कमरे में झाँका.. रजाई के टेंट में कोई हलचल नहीं हुई ...सुपरमेन के कमरे में आकर भी यही किया... कमरे में बिखरे उजाले और परदों के खिसकते से सोने वाले कि आँखों का कोई सरोकार ना था ...उसने खिड़की से बाहर झांका ... सूरज बिना दिखे भी आकाश का रंग बदल रहा है ...घास ने स्लेटी रंग कि चादर ओढी है ....मोर पंखी के पेड़ सावधान कि स्थिति में खड़े हैं पेड़ पर चिड़िया सेव कुतर रही है पेड़ के नीचे ऐसे ही कुतरे हुए कुछ सेव पड़े हैं.. पीछे के घरों की कतार में एक घर के भीतर बती जल रही है और उस घर के सामने से एक बस गुजर रही है उस बस के अलावा सुबह कि शान्ति अपनी पूरी तरंग से विराजमान है जिसे वह हेयर ड्रायर लगा बड़ी बेहरहमी से कुचल देती है.... वारड्रोब का दरवाजा खोलने और आज कि डायरी के पन्ने का आपस में गहरा सम्बन्ध है उसने काली गर्म पतलून, सफेद और काली बारीक धारी का पूरी आस्तीन का ब्लाउज और पतलून के साथ की मेचिंग जेकेट... मौसम के साथ-साथ कलर और कलर कोर्डिनेशन बोर्ड रूम की मांग भी है...
ड्रेसिंग टेबल के सामने मोस्चराइजर की ट्यूब दबाते हुए वह आवाज़ लगाना शुरू करती है .. उसके हाथ रजाई के टेंट को आगे पीछे हिला रहे हैं और चार-पांच बार हिलने के बाद सुपरमेन का मासूम सा चेहरा बिना आँखे खोले तकिया छोड़ हवा में झूल रहा है उसकी छाती पर चिपका सुपरमेन टी शर्ट की सिलवटों से निकलने कि कोशिश कर रहा है अचानक उसकी आँखें खुली दो बल्ब टिमटिमाये .. जैसे वो कभी सोये नहीं थे .. "बुआ आई फाउंड माई मिंटू" ... "मिंटू कौन?"... " माय लोस्ट रेबिट..हाओ केन यू फोरगेट मिंटू बुआ?".... .. .. वो अपनी नन्ही- नन्ही हथेलियों को हवा में उछाल कर, बंद- खोल कर उसे समझा रहा है ..."आई वाज़ चेजिग हिम आल नाईट.".. "वन मोमेंट ही वाज़ इन माई हेंड... अदर मोमेंट ही वाज़ गान" ... वो बिना पलक झपके बोल रहा है मुख से ज्यादा उसकी मोटी- मोटी आँखें बोल रही हैं उनमें तैरता हुआ मिंटू एक्वेरियम में मछली की तरह साफ़ दिख रहा है .... वह अपनी कलाई उठती है और आँखें भागते समय को पकड़ती है... इससे पहले वो कुछ कहे वह मुह खोल..आँख बंद कर.. जम्भाई और अंगडाई लेता हुआ धीरे से बुदबुदाता है "आई हेड ए वेरी लांग डे!....." और जिस तेजी से उसका चेहरा तकिये से हवा में उछला था उसी तेजी से वह चेहरा तकिये पर आखें मूंदे पसर गया है और सुबह की रौशनी में कमल की तरह खिल उठा है ... उसके होठ उसके गालों को चूमते हैं...
वह दो फोन लगाती है एक अपनी पी ऐ को और एक बेबी सीटर को... कपड़े बदल वह धीरे से उसकी रजाई में सरकती है.. आँखे मूंद आहिस्ता से उसके सपने में झांकती है रजाई के भीतर कस के सुपरमेन का हाथ पकड़ लेती है... आज वह दोनों मिंटू को पकड़ कर ही रहेंगे...
foto from - www.karanfincannon.com
Friday 21 August 2009
गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.....
मोटी- मोटी आँखे, लम्बी गर्दन, गोल चेहरे पर नीचे निकली तिकोनी ठोडी, लंबी मोटी नाक कोई एक को देखकर दूसरी को पहचान लेता है ... जो पाँव बचपन में अंगुली पकड़ दोड़ते थे अब बड़े होने पर नाट्यडव और अडव सीखने के लिए होम वर्क छोड़, चूडीदार पहन उसका इन्जार करते और वो शाम को आफिस के बाद रसोई छोड़ टेक्सी किया करती, उसे उतार कर कम्यूनिटी सेंटर के कार पार्क में आफिस की फाइल को पहले तो बिना खोले घूरती फिर खोल कर... दोनों दबे पाँव घर घुसती... अपराधियों की तरह... कहीं यह सुनने को ना मिल जाए "भरत नाटियम सीखना जरूरी नहीं है पढ़ना जरूरी है"... हाई स्कूल में उसके साथ की लड़कियां पता नहीं क्या क्या कर रही हैं वह तो कभी - कभी सहेली के जन्मदिन में जाने की इजाज़त मांग रही है.. इतवार को मंदिर में कल्चर क्लास, बुधवार को कम्यूनिटी सेंटर में हिंदी और शुक्रवार को गुरूजी के घर क्लास्सिकल डांस..... वह सिर्फ उन लोगों के घर स्लीपोवर कर सकती है जिनके घर के किसी कोने में मूर्ति है या गुरुनानक का कलेंडर है... स्कूल की छुट्टियों में आत्मीयता और दुलार से भरी रिश्तों की छत पर दून घाटी में खुशबू बटोरने का टिकट हर साल....
दो संस्कृति के बीच रहना रस्सा खीचने के खेल के समान है आखिर जीत तो उन्ही की होगी जिस तरफ हाथ ज्यादा हैं जिनके पाँव के नीचे की ज़मी अपनी है हवा अपनी है आसमान अपना है ...वैसे भी किन्डर गार्डन से मैं मैं.... मैं... "सिर्फ मैं" के मन्त्र के सामने शाम की आरती की घंटी की आवाज़ हवा में गुम होनी ही थी... भेड़ के झुंड में भी अपनी अलग पहचान बना कर उनके साथ चलना सीखा सकती है, हजारों मील दूरी से भी अपने जड़ों की मिटटी की खुशबू सूंघा सकती है बेमौसम, बेहिसाब पड़ती बरफ, बिजली, आंधी से बचा सकती है... किन्तु वह उसे इतिहास के हर कोनो में अन्याय को न्याय, जुल्म को खिदमत साबित करती और स्वयं को दुनिया में सर्वेश्रेष्ठ घोषित करती मखमली ज़मी की फिसलन पर चलने से, गिरगिट की तरह रंग बदलते आकाश की चकाचक रौशनी को सूरज मान लेने से... बर्फीली, शुष्क, हड्डियों को भेद आत्मा को सुन्न करती हवा में सांस लेने से नहीं रोक सकती ... संवेदनाओं और भावनाओं को काफी में मिला कर नहीं पिला सकती..
हमेशा से घर की चौखट के बाहर सब पराया था... सड़क, पगडण्डी, घास, रौशनी, अँधेरा, बर्फ, आकाश, लेम्प पोस्ट, घड़ी की सुइयां, आचार- व्यवहार, मूल्य, आहार, चेहरे, शब्द, जुबान, संगीत, आलाप, भगवान् ... अब ऐसा क्यों लगता है चौखट के भीतर की छत, नींव और दीवारें भी पराई हो गई हैं ...क्या उसे मालुम नहीं था उदर की गंगा को एक न एक दिन तो थेम्स नदी बनना ही था.......
फोटो- गूगल सर्च इंजन से
Friday 17 July 2009
कन्वेयर बेल्ट पर उगता अपनी माटी का सोना...
फ्लाईट आये घंटे से ऊपर हो चला था पर उन दोनों का कहीं अता-पता न था... उनके आने की ख़ुशी में उसे ढाई सो मील के सफ़र का पता न चला, पर अब मंजिल पर पहुँच कर एक- एक मिनट घंटो से कम नहीं... वो उसके घर पहली बार आ रहे थे... पिता को तो एतराज़ ना था किन्तु उनकी सरकारी नौकरी इजाजत नहीं देती बेटी के घर महीने भर से ज्यादा रह सकें और माँ को उनका बेटी की माँ होना रोकता था.. चलो दोनों आने को तो राज़ी हुए महीने भर को ही सही.... जिन बातों को अब तक वह चिठ्ठी और फोन पर बताती रही है वो खुद देख लेंगे जैसे सूरज का धरती से अक्सर नाराज रहना और बादलों को धरती से हद से ज्यादा प्यार करना... हर मोसम में जमीन के हर कोने में घास का धुल -मिटटी को जकड़े रहना... टायरों की चीख के बीच शमशान की शांति का सड़कों पर पसरे रहना.. बेचारे गीले कपडों को धुप नसीब ना होना उनका लांड्री की मशीनों में भभकती भाप में झुलसना... पानी के लोटे का बाथरूम के फर्श को तरसना, लोटे से पानी उड़ेल खुल कर नहाने पर पाबन्दी होना... हवा की नमी को विंड स्क्रीन पर सेलोटेप की तरह चिपक जाना और स्क्रेपर के साथ मिल कर बेहूदा आवाज़ निकालना... गाड़ी का पेट भी उसमें से निकल कर खुद भरना.. अनजान बच्चों का सड़क पर चलते चलते "पाकी" बुला कर अभिनन्दन करना...यदि आप सही और गलत वक्त पर थंकयू और सारी न कह पाए तो प्यार भरी आँखों के तीर के दर्द को अपनी नासमझी समझ कर भूल जाना ...
अब उसकी आँखे और कमर दोनों जवाब देने लगे थे ... वो सभी यात्री आने बंद हो गए थे जिनके सूटकेस और बेग पर एरो फ्लोट के टेग हों... कहाँ हो सकते हैं टायलेट में भी इतनी देर तो नहीं लग सकती .. इन्कुआरी पर यह उसका तीसरा चक्कर था ... वो फ्लाईट लिस्ट चेक कर के उसे उसे बता चुके हैं उनका नाम लिस्ट में है... उसका सयम टूटने और चिंता बढ़ने लगी थी...
वह समय की गंभीरता को हल्का- फुल्का बनाने और उसके माथे पर चिंता की लकीरों को गालों के गढों में बदलने के लिए अपने होंठों को उसके कानो के नज़दीक ला धीरे से फुसफुसाया...
"वो कहीं रशिया में अपने दुसरे हनीमून के लिए तो नहीं उतर गए..." और ही.. ही करने लगा... उसने घूर कर उसकी और देखा... ऐसे अवसरों पर उसका सेंस आफ हयूमर उसे चूंटी की तरह काठता है " बिना उससे कुछ बोले वह इन्क्वारी की तरफ बढ़ गई...
वह इन्क्यारी पर गिडगिडा रही है क्या वह बेगेज़ क्लेम तक जाकर उन्हें देख आये.. अब डेढ़ घंटा हो चला था... वो एक स्कुरिटी स्टाफ के साथ उसे अन्दर भेजने के लिए तैयार हो गए ... वह उसके आगे -आगे हो ली... डिपारचर लांज को पार कर साड़ी और पेंट, कमीज़, कोट में दो पहचाने चेहरों को ढूंढने में उसे ज्यादा समय नहीं लगा, वैसे भी वो अकेले ही थे कन्वेयर बेल्ट के पास ... कन्वेयर बेल्ट खाली थी उनके सूटकेस ट्राली में थे ... तभी उसे नजर आया कन्वेयर बेल्ट पर चावल का ढेर उग आया है जैसे ही वह ढेर उनके पास से गुजरता है ... चार हाथ बढ़ कर उस ढेर को बेग में उड़ेल रहे हैं और इन्जार करते हैं धरती के घूमने और सफ़ेद ढेर का फिर पास से होकर निकलने का... वह भाग कर पीछे से जाकर दोनों को बाहों भर लेती है वो तीनो एक दुसरे के कंधे भिगोते हैं...नाक से सू.....सू करते हुए मुस्कुराते हैं एक दुसरे को टीशू पास करते हैं माँ उसे ऊपर से नीचे तक देखती है और शिकायत करती है..
"तू ऐसी की ऐसी... ना सावन हरे ना भादों... लगता नहीं आखरी महीना है कभी तो लगे बिटिया ....." तभी सफ़ेद ढेर पास से गुजरता है वह भी हाथ बढाती है ... माँ पकड़ कर झिड़क देती है "ऐसी हालत में झुकना ठीक नहीं... तू बस खड़ी रह... बहूत थकी लगती है"..
पिता को कहती है सूटकेस उतार दो बैठने के लिए... वह माँ को क्या समझाए ऐसी हालत में वो यहाँ क्या नहीं करती...
" कहा था न इन्हें सूटकेस में भर लेते हैं" माँ शिकायत के लहजे में बोली..
"अरे! मैंने कौनसा मना किया था" पिता झल्ला कर बोले...
"अब क्या फरक पड़ता है वो बेग में थे या सूटकेस में" वो हमेशा की तरह दोनों के बीच रेफरी बनी
वो दोनों से जिद करती है वहां से चलने की ..
"रहने दो... माँ बहूत अच्छा बासमती चावल मिलता है यहाँ"...
"पर यह देहरादून का बासमती चावल है..."
वह स्कुरिटी स्टाफ की तरफ देखती है वो उसकी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए सर हिलाता मुड़ जाता है ...
वह पहाड़ों के बीच घाटी में खड़ी है उसके चारों तरफ धान के खेत हैं वह मुस्कुराते हुए देखती रहती है चार हाथ बड़ी तमन्यता से अपनी माटी का सोना बेग में भर रहे हैं..
उनके हाथों से गुजर अनगिनित सफ़ेद दानों की महक उसके ज़हन में हमेशा के लिए बसने जा रही है...
फोटो - गूगल सर्च इंजन से
Tuesday 7 July 2009
उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में....
वो दोनों केफे में बैठे हैं बहस कर रहे हैं बहस क्या सिर्फ वही बोल रही है वह चुप है या बीच -बीच में मुस्कुरा देता है आसपास के लोग आँखे बचा उसका लाल और हताश चेहरा पढ़ रहे हैं यह काफी का तीसरा कप है और केफीन उसके भीतर की उथल - पुथल को संतुलित करने के बजाये उसे और उष्मा दे रही है वह उसके लिए पानी मंगाता है उसका मन करता है पानी को गले में नहीं अपने सर पर उडेल ले .... इतने बरसों से उसे जानने के बाद भी उसे लग रहा है आज वह किसी अजनबी के पास बैठी है जैसे पहली बार मिल रही हो ... .... उसके दीमाग में उपजने से पहले, कोई भी भ्रम को उसका विशवास उन्हें विंड स्क्रीन पर पड़ी बारिश कि तरह वाइपर से पोंछ देता था उसने एक बार भी नहीं पूछा क्यों इस बार मुझे जल्दी जाने को क्यों कह रहे हो... ? प्यार और विशवास उसकी ख़ुशी के केडिट कार्ड का पिन नंबर था वह सालों से उसे कहीं भी, किसी भी समय केश करा सकती थी... अब उसका बेलेंस हमेशा के लिए माइनस में........
वो बार - बार कह रही थी... "तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हो? " .. "यदि ऐसी बात थी तो क्यों आने को कहा...क्या इमानदार होना इतना मुश्किल था.... कोई बहाना बना सकते थे नौकरी का, छुट्टी का, तबियत का, हालात का... जरूरी तो नहीं था मुझसे मिलना " ... वो थक गई थी, हार गई थी उसका मौन उसे तोड़ रहा था कुचल रहा था... वो हार कर फिर कहती है "हाव कुड यू ......"
उसने अपना मौन तोड़ा और मुस्कुरा कर कहा "तुम बेवजह भावुक और पोजेसिव हो रही हो ...... आई वोंट माइंड इफ यू स्लीप विद यौर एक्स और सो..... "
उसे लगा आसमान से पत्थरों कि बारिश हो रही है सारे पत्थर उसके सर पर गिरे हैं.... वह केफे से बाहर निकल आई ... बस स्टाप पर खड़ी भीड़ उसे घूर रही है ... वह साड़ी के पल्ले को गले और दोनों बांहों पर लपेट लेती है फिर भी लगा द्रोपदी के चीर की तरह कोई उसकी साड़ी खींच रहा है... धुप, सूरज, आसमान में उड़ता हवाईजहाज, मिटटी में उभरे जूतों और साइकल के पहिये के निशाँ, खम्बा, बिजली कि तारें, ट्रेफिक, दीवार पर चिपका पोस्टर, इधर उधर पड़ा कचरा और खाली बोतलें, सड़क के उस पार बने क्वाटर, रूकती बस और उड़ती धुल.. सभी उसके चारों तरफ घूम रहे हैं गले में एक बड़े धक्के के साथ काफी बाहर आ गई... यकायक सभी कुछ घूमता हुआ स्थिर हो गया... उसके भीतर का कोलाहल भी इस स्थिरता को थामना चाहता है वह पल्ले से अपना मुह साफ़ करती है और पहले से भी तीव्र काफी की गंध के साथ केफे के अन्दर आती है उसके सामने अपनी पुरानी जगह आकर बैठ जाती है और अपने आपको फिर से विशवास दिलाती है उसने सही सुना है...
"एक बात बताओगे .."
"क्या..." वो उसकी और देखता है
"क्या तुम अपनी पत्नी से भी यही कहते? " वो उसकी आँखों में आँखे डाल कर पूछती है
वह एक लम्बी सांस खींच टेबल पर रखे ग्लास को घूर रहा है उसकी खामोशी पहले की भांति जवाब देती है..
वह सामने रखा ग्लास को एक सांस में खाली कर अपने चारों तरफ देखती है उसकी नज़र सामने कि टेबल पर बैठे अधेड़ उम्र के आदमी के साथ सटकर बैठी यूवा लड़की पर पड़ी जिसने बेहद कसी जींस, बिना बाजू और नीचे गले का भड़कीला ब्लाउज पहना हुआ है यूवा लड़की से उसकी निगाह मिलती है वह उसकी और देख लगातार मुस्कुरा रही है....
Painting - Van Gogh
Saturday 27 June 2009
खोई चाबी कि तरह खुशियाँ ज़मीन पर पड़ी....
इन्बोक्स में मुट्ठी भर कोतुहूल छुपा दो, दरवाज़े पर धागे से गुलाब कि पंखुडियों कि पुड़िया बांधों जैसे ही वो दरवाजा खोले, उसका चेहरा एक क्लिक में क़ैद कर लो, गर्मी में अपने हिस्से कि छाया और सर्दी में धुप उसके नाम कर दो, आम कि गुठली खुद के लिए और फांकें उसके लिए छोड़ दो, रात को चुपके से उठ उसकी शक्ल केनवस पर उतार दो, टी वी के आगे सिकुड़ी देह को कम्बल उढ़ा दो, अँधेरे में उसके हाथ की उभरी नस को अंगुली से दबा दो, उसके तिलों और ठोडी के निशाँ को चश्मे बद्दूर बना लो, रेड लाईट पर खरीदा गजरा उसके हाथों में थमा दो, बिना वज़ह अंधरे कमरे में जलती मोमबत्तियों की चादर बिछा दो, जन्मदिन पर खरीदी कोरी किताब के पहले पन्ने पर कविता छुपा दो, खिड़की पर चाँद को बुला उसकी आँखों से अपना हाथ हटा दो, चलते- चलते रिक्शा मोड़ फलूदा कुल्फी कुल्हड़ में पेक करा लो, उसकी बचपन कि फोटो को वाल पेपर बना दीवार पर चिपका दो, भीड़ में उसके लिए जगह बनाने को उससे कदम भर आगे हो लो, चटनी पीसती अँगुलियों पर जीभ घुमा शहद चाख लो, पहली बारिश कि मिट्टी डिब्बी में बंद कर माटी का इतर मरुस्थल में सूंघा दो, मंदी बारिश में छतरी मजबूती से, तेज बारिश में हवा को घूस दे आसमान में उड़ा दो, उसकी नीद में झांक सारे सपने चुरा सुबह चाय की चुस्कियों पर उसे लजा दो, सुबह शाम एक नाम उसके कान में मन्त्र कि तरह बुदबुदा उसकी आँखों के जंगल को पन्नो पर उगा दो...
सच! खुशियाँ देना कितना आसान है ....
प्रभात की पहली
किरण की तरह
उदित होता है
आत्मा पर
प्रकाशित करता है
अंधरों में खोई जिंदगी
जिसको मैं अक्सर
जीना भूल जाती हुं
खोई चाबी कि तरह
मिल जाती हैं खुशियाँ
वहीं ज़मीन पर पड़ी
Painting by Bonnie Lanzillotta
Tuesday 16 June 2009
छन-छन की धुन पर हवा में उड़ती..
ताऊ ने सभी बहनों की शादी धूम - धाम से की थी और अब तो बस वही रह गई थी. किसी चीज़ की कमी ना छोड़ी थी... ताऊ जी का बिरादरी में बड़ा नाम था, वो गावं के सबसे बडे ज़मीदार और बिरादरी के सभापति थे. ताऊ जी पति को तब से जानते थे जब वो कालेज में पढ़ने की लिए बिरादरी की सभा से ऋण लेने आये थे. सगाई के बाद उनके घर से आकर ताऊ के लड़के ने उससे कहा भी था... कच्चा घर है... छत से पानी टपक रहा था, बर्तन भी घर में ठीक से नहीं थे..तू कहे तो मैं पिता से कह कर मना करवा दूं ...उसने उसे यह कह कर रोक लिया रिश्ता तोड़ कर किसी का अपमान करना ठीक नहीं.. जो उसकी किस्मत में होगा देखा जाएगा...
गावं की औरते सामान से भरे घर, उसके रूप और उसके पहनने - ओढ़ने को देख कर सास को उल्हाना देती तुम तो चोधराइन बन गई हो... सास फूल कर कुप्पा हो जाती ...उसे अक्सर टोकती "बहू रोटी पर घी कम लगाया कर थाली में चू जाता है" ... ससुर कहते "बड़ी भाग्यवान है बहू! खुला हाथ है घर में बरक्कत रहेगी"...वो घूंघट के भीतर मुस्कुरा एक और फुल्का उनकी थाली में सरका देती...
गोने के बाद वो पति के साथ चली आई... सात कमरों वाली हवेली से निकल कर, दिल्ली में एक कमरे के माचिस नुमा क्वाटर को अपना महल बनाना मुश्किल नहीं हुआ, अच्छा हुआ दहेज़ का सोफासेट, डाइनिंग टेबल कुर्सी, पलंग यहाँ नहीं लाये... यह क्वाटर तो पूरा स्टोरेज बन जाता, वैसे भी इनकी छोटी बहन की शादी होनी है अगले साल तक लड़का मिल ही जाएगा, वो सामान उसके काम आयेगा. सिर्फ गोदरेज की अलमारी और पढ़ने की टेबल कुर्सी हैं और चारपाई बिछने के बाद तो कमरा भर जाता था.
जो काम उसने कभी पहले नहीं किये ..धीरे- धीरे सब सीख लिए.. जैसे स्टोव जलाना, कपड़े इस्त्री करना, फेरी वाले से मोल- भाव करके सब्जी लेना, चक्की पर आटा पिसाना, घर के दरवाजे खोलना- बंद करना, कूड़े का कनस्तर नीचे रख कर आना, दूध की डिपो से बोतल का दूध लेकर आना, अखबार वाले का हिसाब करना... जब भी वह किसी काम से बाहर निकलती आस- पड़ोस की निगाहें उसका पीछा किया करती...उन आखों में कोतुहल के साथ शायद कुछ और भी था जानने और कहने को....
दोपहर में अब वह बोर नहीं होती. उसने नयी दुनिया खोज ली है मेज पर पड़ी धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बरी, नवनीत, सारिका को पन्नो में वह खुद को ढूढ़ लेती है कभी कहानी की नायिका बन कर तो कभी कविता की पंक्ति बन कर... शब्दों का जादू उसे छूने लगा है और वो जादू उसे कभी परिंदा बना देता है तो कभी पतंग, कभी तिनका, तो कभी कपास का फूल, कभी हवा तो कभी बूंद ... आकाश में भी बराबर उसे अपनी पाजेब की छन - छन सुनाई देती है...
वो पहली बार घर में आई है ... रूबी नाम है उसका... वो उससे मिलवाते हैं.. उसने पीले और लाल रंग की लंबी ड्रेस पहनी हुई है पतली, लम्बी, साँवली, सर पर छोटे छोटे बाल..मेम जैसी दिखती है .. उन दोनों की बातें उसके समझ से बाहर हैं वो चाय बनाने रसोई में गई और दोनों के ठहाके सुनती रही... वो सोच रही है यदि वो खाने के लिए रुकी तो एक सब्जी और होनी चाहिए... वो चाय लेकर गई तो दोनों यकायक चुप हो गए.... उनका चुप होना उसे खलता है और जब चाय की चुस्की के साथ उनकी बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो उसे अच्छा लगा ... वो चाय ख़तम कर जाने की बात करती है .. उसने मेहमान से खाने पर रुकने को कहा... उसने मना कर दिया और कहा वो घर जाकर ही खायेगी... उसने शनिवार को दुबारा आने का वादा किया. पास के सिनेमा हाल में, शाम के शो में, संगम फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया है ...
"में रूबी को बस स्टाप पर छोड़ कर आता हुं" ..वो हाथ हिला कर उससे विदा लेती है ... उसके कान उन दोनों के कदमों को नीचे उतरते हुए पीछा करते हैं और खिड़की से उसकी आँखे उनकी ओझल होती छाया को... वो वहीँ खड़ी है ...डूबते सूरज की रौशनी उसे भिगो रही है बाहर बच्चों के खेलने का कोलाहल शोर होते हुए भी अच्छा लग रहा है एक छोटी बच्ची उसकी और देख कर हाथ हिलाती है ... वो भी मुस्कुरा कर हाथ हिलाती है वो इशारे से पूछती है वो बच्चों के साथ क्यों नहीं खेल रही?... वो उसे अंगूठे पर लगी पट्टी दिखाती है ... वो भी अपना सीधा हाथ हिलाती है और सब्जी काटते हुए कटी अंगुली पर लगी पट्टी की तरफ इशारा करती है... दोनों जोर जोर से हँस रही हैं ...
दरवाज़े पर आहट हुई तो वो पीछे मुड़ी... पडोसन अन्दर आ रही है काफी घबराई लगती है उसके निकट आकर कान में कुछ कहती है... वो हँस देती है है उसे चाय के लिए पूछती है ... तभी यह भीतर आते हैं और पड़ोसन घर के काम का बहाना बना... इनकी और घूरती हुई कमरे से निकल जाती है... "तुम इनकी बातो में मत आना लगाईं- बुझाई के अलावा इन्हें कोई काम नहीं.." वो चाय के बर्तन समेट रही है और प्लेट पर हिलते हुए प्यालों की आवाज़ में वो जवाब मिल जाता है जो वह सुनना चाहता है...
उस दिन इनका दोस्त दफ्तर से साथ आया था और खाना बीच में छोड़ रसोई में आकर पूछ रहा था " वो अब तो यहाँ नहीं आती?" हँस कर पूछती है "कौन भला" .. "कोई नहीं भाभी" कह कर वो जोर से चिल्लता है "देख भाभी फुल्के कितने बढ़िया बनाती है" .. "तू जी भर के खा में तो रोज़ खाता हुं" कमरे से आवाज़ आती है...
वो कपड़े इस्त्री कर रही थी ..गावं से अचानक ताऊ का लड़का मिलने आ पहुँचा .. माँ ने बेसन की लडू, देसी घी और दालें भेजी हैं... .बड़े ध्यान से वह उसके घर को और उसे काम करते देख रहा है .. जब वह खाना खा चुका तो उसने धीरे से पूछा "तू खुश तो है ना?" वो आँखे नचा कर बोली "तुम्हे क्या लगता है?" और खिलखिला कर हँस दी ... शाम को विदा लेने से पहले वह इनको धीरे से कह रहा था इसने कभी कपड़े प्रेस नहीं किये हैं वो भी बिजली की प्रेस से! घर पर अकेली होती है कहीं कुछ झटका लग गया तो पछताओगे... वो उसे प्रेस करने को मना करते हैं... भाई के लौटते हुए चहरे पर तसल्ली और संतोष झलक रहा है उसे ख़ुशी है वह संतोष भी सही सलामत माँ तक ऐसे ही पहुँचेगा जैसे उसके हाथ से सिले ठाकुरजी के कपड़े ....
आज शनिवार है साढ़े सात बज चुके हैं वो अभी तक नहीं आई है वो खाने को पूछती है वह अनमने ढंग से हाँ कहता है... वो खाना परस देती है और रसोई में पानी लाने गई है... जीने में कदमो की आहट होती है वह खाना छोड़ जीने की तरह भागता है वह रसोई की खिड़की से, सबसे ऊपर की सीढ़ी पर, दरवाज़े की ओट में दोनों को एक दुसरे की बाहों में देखती है...
वह रूबी लिए खाना लगाती है... आज उसने बादामी स्कर्ट और सफ़ेद ब्लाउज पहना है आज रूबी उस दिन की तरह सहज नहीं है ... वो उन दोनों की तरफ देख कर देर से आने की माफ़ी मांगती है.. "कोई बात नही! हम रात का शो देख लेंगे" यह मेरी और देख कर पूछते हैं? "क्यों नहीं" उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया..
रसोई का काम निपटा कर वह बाथरूम में साड़ी बदल रही है कोशिश के बावजूद भी फर्श पर गिरे पानी में साड़ी गीली हो जाती है नीली सिल्क साड़ी के आसमान पर पानी के गीले धब्बे काले बादल की तरह नज़र आ रहे हैं साड़ी की कोमलता वह अपने भीतर उसी तरह महसूस करती है जैसे रात में वो उसके स्पर्श को महसूस करती है... मचल जाती है अपनेआप को आईने में देखने को... यह उनकी मन पसंद साड़ी है सबसे अधिक बार पहनी हुई पर इससे कभी उसका मन नहीं भरता .... आज पहली बार बाथरूम में तैयार हो रही है चोटी- बिंदी करने के लिए बाथरूम में आईने की कमी खल रही है ... लज्जा के मारे उन दोनों के सामने कमरे में आइना नहीं देख सकेगी...उसे बड़ा अजीब लगता है जब रूबी अपने बेग से शीशा निकाल लिपस्टिक होंटों पर घुमाती है वो इनका नाम लेकर बुलाती है उसे वह भी अजीब लगता है पर बुरा नहीं. रसोई की खड़की के धूल लगे शीशे में लाल सिन्दूर की बिंदी भवों के बीचों - बीच लगा.. थोड़ा बालों के बीच छिड़कती है और नाक पर छिटक आई नन्ही नन्ही लाल बूदों को अगुलियों से साफ़ करती है जैसे ही वो कमरे में आती है वो दोनों उसके तरफ देखते हैं वो दीवार पर लगे आईने के सामने चाबी ढूँढने के बहाने एक दो चक्कर लगा... उड़ती निगाह से अपने आप को आईने में देखती है...
वो दोनों अपनी बातों में मगन आगे- आगे चल रहे हैं वह चार कदम पीछे है ... वह राहत की सांस लेती है चलो अँधेरा काफी गहरा है और सभी कोतुहल भरी निगाहें घरों के भीतर बंद हैं...
फिल्म लम्बी थी आधी रात के बाद समाप्त हुई, बाहर हवा तेज़ चल रही है, बादल घिर आये हैं... बिजली चमक रही है ... तीनो तेज़ कदमो से घर की और भागते हैं... वह दोनों का बिस्तरा फर्श पर और रूबी का चारपाई पर..उसके लिए नयी चादर, खेस और दुतई निकालती है...रूबी चारपाई पर उन्हें फैलाने में मदद करती है ...कपड़े बदलने के लिए रूबी को अपना नया कफ्तान दिया है जो उसको काफी ऊँचा है ...
सुबह नाश्ते के बाद वो घर से तैयार होकर निकलते हैं... इतवार को इनके एक दोस्त ने लंच पर बुलाया है रूबी को उसके घर छोड़, वह दोनों दोस्त के यहाँ चले जायेंगे... इनके दोस्त का घर रूबी के घर के पास है...
बस स्टाप पर उतर कर रूबी जिद करती है हम भी उसके घर चलें... वह काफी घबराई हुई है ... यह मना कर देते हैं वह रूबी का हाथ पकड़ कर उसके साथ हो लेती है और महसूस करती है उनके पीछे - पीछे कोई चल रहा है और रूबी के घर की गली आ जाने पर वहीँ नुक्कड़ पर रूक गया है...
रूबी के घर में दाखिल होते ही उसके पिता बाहर बरामदे से उठ कर आते हैं वह साड़ी का पल्ला सर पर कर लेती है ... रूबी को देखते ही चिल्लाने लगते हैं भला-बुरा बोलते हैं और उसे घर से निकल जाने को कहते हैं... वो गुस्से से उबल रहे हैं उनके गुस्से को देख वह भी सकपका गई है... उसके हाथ कांप रहे हैं...रूबी ने दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढक लिया है दीवार की और मुहं कर सिसक रही है... वह उसके कंधे पर हाथ रखती है उसके पिता की और देख कर कहती है..
" बाउजी इसमें रूबी की कोई गलती नही है ... बारिश तेज़ थी ...रात काफी हो चुकी थी मैंने ही जिद कर के रूबी को रोक लिया था यह तो वापस लौटना चाहती थी .. गलती सारी मेरी है..". उनकी आँखे अब उस पर हैं सवाल कर रही हैं " तुम कौन हो" बिना जवाब दिए वो समझ जाते हैं "तुम अंदर जाओ रूबी!" वो सख्ती से कहते हैं रूबी उसकी और देखती है उसकी आखों में आँसू हैं वो उससे वो सब कह जाते हैं जो सारी दुनिया उससे इतने दिन से कहना चाह रही थी ...और तेजी से अंदर चली जाती है...
"आप रूबी को कुछ मत कहिये..." वो उसके पिता के सामने हाथ जोड़े खड़ी है वो उसके नज़दीक आते हैं उसके सर पर अपना हाथ रखते हैं वो उनके पैर छू कर विदा लेती है..
"तुम्हे इतनी देर क्यों लगी" वो मुझसे पूछते हैं "कुछ नही उसके पिता ने मुझे बैठा लिया था " वो आश्चर्य से उसकी और देखता है और आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लेता है वो तेज़ कदमो से उसके साथ चलने की कोशिश में, छन-छन की धुन पर हवा में उड़ती है...
उस दिन के बाद रूबी कभी घर नहीं आई सिर्फ उनकी यादों में बसती और महकती है...
पेंटिंग - राजा रवि वर्मा
Thursday 28 May 2009
वसंत के बाद पतझड़...
पुरानी टहनी जोर से ना हिलाओ
उसकी सारी पत्तियां ना गिराओ
सिर्फ धरकनो को सही
प्रकृति को ना आंसू पिलाओ
कदमो के नीचे की जमींन मांग
आँखों को ना धूल दिखाओ
देखो!
वो तने से लिपटी लता
ऊपर बयाँ का घोंसला
शाखा पर अटकी पतंग
छाया में खिली हमारी सुगंध
ना दो हवाला
सड़े गले फलों का
पत्तियों पर चलते कीड़ों का
गुम हो गई तितलियों का
काला होते इन्द्र्धनूश का
वसंत के बाद
पतझड़ को आना था
यह पाठ क्यों नयी टहनी
उगने के बाद पढ़ाना था
पेंटिंग- केन बुशी (गूगल सर्च इंजन से)
Tuesday 19 May 2009
बर्फ में बने लोगों के कदमो पर कदम...
फोटो - गूगल सर्च इंजन से
Wednesday 6 May 2009
कोई तीसरा भी है जो उनके राज़ जानता है...
कम्पनी के सारे लोग दोनों को घूर-घूर कर देखते और उन दोनों की मुस्कराहट उन्हें वो सब कुछ सोचने पर मजबूर ही नहीं करती बल्कि यकीन भी दिलाती उनके बीच वो सब कुछ चल रहा है जो एक स्त्री पुरुष के नाजायज़ और जायज़ संबंधों में चलता है... दोनों को अपने सहकर्मियों से इस खूबसूरत रिश्ते कि सफाई देने कि कभी ज़रुरत महसूस नहीं हुई क्योंकि उन दोनों के बीच वही है जो सब देखते हैं और वो क्या सोचते हैं इसकी दोनों को परवाह नहीं है।
वह उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहती है "तुम उससे बात करते रहना और संपर्क में रहना तुम्हारा इतना उदास होना मुझे दुःख दे रहा है" ...."नहीं वो पोलेंड वापस जा रही है और कभी लौटेगी नहीं" ...उसने यह कह कर मुह छुपाने के लिए सामने पड़ा अखबार उठा लिया, वह उसके हाथों से अखबार छीन कर नीचे जमीन पर डाल देती है दोनों बाहों में उसे समेट छोटे बच्चे कि तरह उसका चेहरा अपने सीने में छुपा लेती है...
तस्वीर - गूगल सर्च इंजन से
Tuesday 28 April 2009
"साब आप करते क्या हैं..... "
वो वहां रोज शाम आता है, कभी सात दिन, कभी दस दिन, कभी पंद्रह दिन, कभी बीस दिन लगातार. यह निश्चित नहीं था वह कब रोज़ आते -आते गायब हो जायेगा और कब इन रोज़ आने वाले दिनों के बीच चार महीने, छह महीने, आठ महीने का अन्तराल आ जाएगा, पर चाट कि दूकान पर आने और गायब होने का यह सिलसिला करीब दशकों से लगातार कायम है, इस बीच चाट वाले का बेटा भी कभी-कभी बाप की जगह दूकान पर दिखाई देने लगा है।
चाट वहां दोने में मिलती है, दही, इमली कि चटनी और पानी बताशे का चटपटा पानी चमकते हुए स्टील के भगोने में रखा होटा, चाट वाला अधेड़ उम्र का बुजुर्ग है वो मटमैली धोती और बनियान में पलोथी मार कर चाट खिलाने बैठता है, उसके कंधे पर टंगा हाथ पोंछने का तोलिया हमेशा साफ़ धुला हुआ होता है वह बड़े प्रेम से सबको चाट खिलाता है ... उसका नंबर आने पर चाट वाला बिना पूछे ही उसे चाट खिलाना शुरू कर देता, वह जानता था उसको क्या खाना है सूजी के नहीं, आटे के बताशे खिलाने हैं, बताशे में इमली कि चटनी कितनी डालनी है, कितनी मिर्च, कितना मसाला, कितनी दही, चाट खिलाने का क्रम भी उसे मालूम था. वह पानी-बताशे से शुरू करता, फिर टिक्की, दही पापड़ी, सबसे बाद में दम आलू... चाट कि दूकान पर उसके दुसरे ग्राहकों के बीच वह अलग ही दिखाई देता है, छ फिट ऊँची काठी, सर पर खड़े छोटे-छोटे बाल, चेहरे पर विनम्रता, गर्दन से टपकता पसीना, ढीली-ढाली डेनम की जींस और पसीने से भीगी उसकी टी शर्ट...
वो हमेशा अपनी बारी का इंतज़ार बिना कोई शिकायत किये करता और चाट वाले को सरजी कह कर बुलाता. उसके बारे में इतने साल से चाट वाला सोचता आया है और आज उससे पूछे बैगर ना रहा गया ..."साब आप करते क्या हैं?" चाट वाले ने बताशा पत्ते के ऊपर रखते हुए पूछा. वह बताशा सटक कर मुस्कुराया और बोला "सरजी कल सुबह जो पांच जहाज ऊपर से उड़ेंगे बाहर सड़क पर आकर देखना सबसे आगे वाले में कौन बैठा है ...."
अगले दिन चाट वाला हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों में छपी उसकी तस्वीर सबको दिखा रहा है वर्दी में वो कितना अलग रहा है ....आज उतरांचल का पांचवा जन्मदिन है... अखबार में लिखा है जो कभी इस घाटी कि पगडण्डी पर साइकल के पैडल घूमाता था आज वह उसी पगडण्डी के आकाश पर अपना नाम लिख रहा हैं...
केंद्रीय विधालय की दीवार फांदते,
बारह से तीन शो में आँखे चुराते,
पड़ोसियों की खिड़की के शीशे तोड़ते,
पिता के प्रहार से बेचते,
चंद अंको से जिंदगी में मात खाते,
कभी सोचा था?
एक दिन वह लिखेगा
अपना नाम बादलों कि स्याही से,
इन्द्रधनुष से सींचेगा
द्रोण नगरी का गगन,
शहर का बच्चा बूढ़ा
सर उठाएगा,
जब वह अर्पण करेगा
उतरांचल को अपना नमन,
घर की छत गूंजेगी
उसकी गर्जना से,
छत के नीचे
गर्व और सार्थकता से
चार आँखें होंगी नम…
फोटो - गूगल सर्च इंजन से
Tuesday 21 April 2009
आंखों की चमक और होंठों की मुस्कान पर पसरा जादू...
इस सबके बावजूद बिना आंधी आये कभी- कभी यादें बिखर जाती, कभी टूट जाती, कभी वो स्वयं पर अविश्वास करती, कभी उन्हें वो सब धोखा लगता, उनका घटित होना एक अभिशाप लगता, पाप लगता, उनका अस्तित्व फरेब लगता. जब-जब ऐसा होता वह अँधेरे में छत की दरारों, परदों पर चमकती हेड लाईट और ट्रेफिक की आवाज़ से बातें करते-करते रात भर तकिया भिगोती ...
यादों को अपना वजूद था, उनमें जो जिंदगी जी थी, सपने देखे थे, सफ़र तय किये थे, किले फतह किये थे, सीमायें लांघी थी, जंगल से तितलियाँ पकड़ एक स्पर्श में बंद की थी, बारिश में कागज़ की नाव तैराई थी, पार्क की बेंच पर एक दुसरे का इंजार किया था, दुष्यंत की कवितायें एक साथ गुनगुनाई थी, अँगुलियों में लपेट उसके बालों के छल्ले बनाए थे, समय, नियति और सूरज से आँख मिचोली कर जिंदा पल चुराए थे, अकेले में पाँव को हथेली के जूते पहनाये थे, सबके सामने मेज के नीचे हाथ सहलाए थे, पाँव के नीचे की ज़मी हरी और आकाश पर हाथों की पकड़ मजबूत की थी... यह सब सिर्फ कुछ मुट्ठी भर तारीखों में क़ैद था और हरी पत्तियों में क्लोरोफिल की तरह ज़िंदा पलों का जादू उन तारीखों में जड़ा हुआ था, उस जादू को जगाने के लिए धूप और पानी कि सख्त जरुरत थी जिसकी अब बहुत कमी थी. इसलिए अब वह अक्सर गायब रहता, यादें आवाज़ देती तो अनसुना कर देता कभी वह जानबूझ कर कानों में रुई भर लेता, तहखाने के गहरे अँधेरे में यादों को बंद कर देता।
वो सुबह उठती कलेंडर की तरफ देखती, यादों खिड़की अचानक खुल जाती, प्लेटफार्म पर जादू हाथ हिलाता मुस्कुराता दिखाई पड़ता और ट्रेन खिसकने लगती... उससे रहा ना जाता वह चलती ट्रेन से उतर उसकी और दौड़ने लगती और गले में बाहें डाल जादू से लिपट जाती और वो उसे ऊपर उठा लेता ... जो वह उस समय करने का हौसला नहीं जुटा पाई, वह सब करना कितना आसान हो गया था और उसे बड़ा आश्चर्य होता अपने आप पर और जादू के बरकरार रहने पर ...
यादों का जादू उस दिन की सबसे बड़ी सच्चाई बन उसके आगे पीछे घूमता, उसकी साँसों में महकता, हर पल उसके दिल में सितार के तार कि तरह झनझनाता, दिन भर आँखों की चमक और होंठों की मुस्कान पर पसरा रहता..
फोटो - गूगल सर्च इंजन से