Tuesday 28 April 2009
"साब आप करते क्या हैं..... "
वो वहां रोज शाम आता है, कभी सात दिन, कभी दस दिन, कभी पंद्रह दिन, कभी बीस दिन लगातार. यह निश्चित नहीं था वह कब रोज़ आते -आते गायब हो जायेगा और कब इन रोज़ आने वाले दिनों के बीच चार महीने, छह महीने, आठ महीने का अन्तराल आ जाएगा, पर चाट कि दूकान पर आने और गायब होने का यह सिलसिला करीब दशकों से लगातार कायम है, इस बीच चाट वाले का बेटा भी कभी-कभी बाप की जगह दूकान पर दिखाई देने लगा है।
चाट वहां दोने में मिलती है, दही, इमली कि चटनी और पानी बताशे का चटपटा पानी चमकते हुए स्टील के भगोने में रखा होटा, चाट वाला अधेड़ उम्र का बुजुर्ग है वो मटमैली धोती और बनियान में पलोथी मार कर चाट खिलाने बैठता है, उसके कंधे पर टंगा हाथ पोंछने का तोलिया हमेशा साफ़ धुला हुआ होता है वह बड़े प्रेम से सबको चाट खिलाता है ... उसका नंबर आने पर चाट वाला बिना पूछे ही उसे चाट खिलाना शुरू कर देता, वह जानता था उसको क्या खाना है सूजी के नहीं, आटे के बताशे खिलाने हैं, बताशे में इमली कि चटनी कितनी डालनी है, कितनी मिर्च, कितना मसाला, कितनी दही, चाट खिलाने का क्रम भी उसे मालूम था. वह पानी-बताशे से शुरू करता, फिर टिक्की, दही पापड़ी, सबसे बाद में दम आलू... चाट कि दूकान पर उसके दुसरे ग्राहकों के बीच वह अलग ही दिखाई देता है, छ फिट ऊँची काठी, सर पर खड़े छोटे-छोटे बाल, चेहरे पर विनम्रता, गर्दन से टपकता पसीना, ढीली-ढाली डेनम की जींस और पसीने से भीगी उसकी टी शर्ट...
वो हमेशा अपनी बारी का इंतज़ार बिना कोई शिकायत किये करता और चाट वाले को सरजी कह कर बुलाता. उसके बारे में इतने साल से चाट वाला सोचता आया है और आज उससे पूछे बैगर ना रहा गया ..."साब आप करते क्या हैं?" चाट वाले ने बताशा पत्ते के ऊपर रखते हुए पूछा. वह बताशा सटक कर मुस्कुराया और बोला "सरजी कल सुबह जो पांच जहाज ऊपर से उड़ेंगे बाहर सड़क पर आकर देखना सबसे आगे वाले में कौन बैठा है ...."
अगले दिन चाट वाला हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों में छपी उसकी तस्वीर सबको दिखा रहा है वर्दी में वो कितना अलग रहा है ....आज उतरांचल का पांचवा जन्मदिन है... अखबार में लिखा है जो कभी इस घाटी कि पगडण्डी पर साइकल के पैडल घूमाता था आज वह उसी पगडण्डी के आकाश पर अपना नाम लिख रहा हैं...
केंद्रीय विधालय की दीवार फांदते,
बारह से तीन शो में आँखे चुराते,
पड़ोसियों की खिड़की के शीशे तोड़ते,
पिता के प्रहार से बेचते,
चंद अंको से जिंदगी में मात खाते,
कभी सोचा था?
एक दिन वह लिखेगा
अपना नाम बादलों कि स्याही से,
इन्द्रधनुष से सींचेगा
द्रोण नगरी का गगन,
शहर का बच्चा बूढ़ा
सर उठाएगा,
जब वह अर्पण करेगा
उतरांचल को अपना नमन,
घर की छत गूंजेगी
उसकी गर्जना से,
छत के नीचे
गर्व और सार्थकता से
चार आँखें होंगी नम…
फोटो - गूगल सर्च इंजन से
Tuesday 21 April 2009
आंखों की चमक और होंठों की मुस्कान पर पसरा जादू...
इस सबके बावजूद बिना आंधी आये कभी- कभी यादें बिखर जाती, कभी टूट जाती, कभी वो स्वयं पर अविश्वास करती, कभी उन्हें वो सब धोखा लगता, उनका घटित होना एक अभिशाप लगता, पाप लगता, उनका अस्तित्व फरेब लगता. जब-जब ऐसा होता वह अँधेरे में छत की दरारों, परदों पर चमकती हेड लाईट और ट्रेफिक की आवाज़ से बातें करते-करते रात भर तकिया भिगोती ...
यादों को अपना वजूद था, उनमें जो जिंदगी जी थी, सपने देखे थे, सफ़र तय किये थे, किले फतह किये थे, सीमायें लांघी थी, जंगल से तितलियाँ पकड़ एक स्पर्श में बंद की थी, बारिश में कागज़ की नाव तैराई थी, पार्क की बेंच पर एक दुसरे का इंजार किया था, दुष्यंत की कवितायें एक साथ गुनगुनाई थी, अँगुलियों में लपेट उसके बालों के छल्ले बनाए थे, समय, नियति और सूरज से आँख मिचोली कर जिंदा पल चुराए थे, अकेले में पाँव को हथेली के जूते पहनाये थे, सबके सामने मेज के नीचे हाथ सहलाए थे, पाँव के नीचे की ज़मी हरी और आकाश पर हाथों की पकड़ मजबूत की थी... यह सब सिर्फ कुछ मुट्ठी भर तारीखों में क़ैद था और हरी पत्तियों में क्लोरोफिल की तरह ज़िंदा पलों का जादू उन तारीखों में जड़ा हुआ था, उस जादू को जगाने के लिए धूप और पानी कि सख्त जरुरत थी जिसकी अब बहुत कमी थी. इसलिए अब वह अक्सर गायब रहता, यादें आवाज़ देती तो अनसुना कर देता कभी वह जानबूझ कर कानों में रुई भर लेता, तहखाने के गहरे अँधेरे में यादों को बंद कर देता।
वो सुबह उठती कलेंडर की तरफ देखती, यादों खिड़की अचानक खुल जाती, प्लेटफार्म पर जादू हाथ हिलाता मुस्कुराता दिखाई पड़ता और ट्रेन खिसकने लगती... उससे रहा ना जाता वह चलती ट्रेन से उतर उसकी और दौड़ने लगती और गले में बाहें डाल जादू से लिपट जाती और वो उसे ऊपर उठा लेता ... जो वह उस समय करने का हौसला नहीं जुटा पाई, वह सब करना कितना आसान हो गया था और उसे बड़ा आश्चर्य होता अपने आप पर और जादू के बरकरार रहने पर ...
यादों का जादू उस दिन की सबसे बड़ी सच्चाई बन उसके आगे पीछे घूमता, उसकी साँसों में महकता, हर पल उसके दिल में सितार के तार कि तरह झनझनाता, दिन भर आँखों की चमक और होंठों की मुस्कान पर पसरा रहता..
फोटो - गूगल सर्च इंजन से
Tuesday 14 April 2009
धरती का मोह...आकाश की चाह...रनवे से उड़ान...
धरती का मोह...आकाश की चाह...
Tuesday 7 April 2009
क्या मैं आज यहाँ बैठी होती?
उन दोनों के रिश्तों को तो कोई अंजाम नहीं मिला है, क्योंकि वो उसका सब कुछ चाहता है बिना किसी बंधन के... और वो ठहराव चाहती है नपी-तुली साधारण जिंदगी चाहती है। कभी-कभी दोनों साथ खाना खाने चले जाते, अब वह डाइवोर्स सेटेलमेंट से हुए नुक्सान को नहीं झींकता था और न ही वह अपने पति और घनिष्ट दोस्त से खाई चोट को लेकर दुखी होती, दोनों को एक दुसरे का साथ अच्छा लगता पर अधिकतर दोनों बहस करते हुए अपने- अपने घर लौटते.
इस तीन सालों में वह उसकी बहन और माँ की अच्छी दोस्त बन गई है । उसके घर में अक्सर आती- जाती रहती, उसके बुलावे पर नहीं बल्कि उसकी माँ और बहन के कहे पर, उनके साथ कभी फिल्म देखने, कभी खाना खाने या कभी उसकी माँ के साथ मंदिर जाने...
कभी- कभी उसे लगता उसके परिवार के साथ उसका इस तरह घुलना -मिलना उसे पसंद नही, कई बार चिढ जाता था वह क्यों डिश बना कर उसके घर पहुँच जाती है यह सिलसिला और बढ़ जाता जब वह छुट्टी पर बाहर गया होता। कभी जोहान्सबर्ग, कभी बार्सिलोना, कभी इस्तेम्बूल तो कभी पेरिस.... बहन अक्सर उसके मुंह को पढने की कोशिश करती क्या उसे मालूम है वह छुट्टी पर अकेला नहीं गया पर उसे कही विषाद नज़र नहीं आता...
एक दिन वह अपनी बहन से पूछ रहा था तुम्हारी यह दोस्त ठीकठाक तो है? बहन ने हंस कर जवाब दिया "क्यों वह तुम्हारी गर्म जेब और बिस्तर के पीछे नही है इसलिए पूछ रहे हो, नो शे इज नोट लेस्बियन!"
उसकी माँ हॉस्पिटल में है वह रोज आफिस के बाद उससे मिलने जाती रही है, उस शाम उसके पहुंचते ही माँ ने बेटा और बेटी को बाहर जाने को कहा है वह सिर्फ उससे बात करना चाहती है, दोनों को यह अच्छा नहीं लगा, उसकी और घूरते हुए वार्ड छोड़ कर बाहर लाबी में चले गए। माँ ने उसे अपने पास बिस्तर पर बैठाया और बोली " देख पुतर मैं चोरास्सी साल की हूँ पता नहीं कितने दिन की मेहमान हूँ... तुझे तो मालूम है उसने गोरी से शादी की थी और अठारह साल उसके साथ रहा है, बेटी ने मुसलमान के साथ, अब वह बीस साल बाद भाई के पास आ गई है इन दोनों को कुछ नहीं मालूम, मुझे कुछ हो जाए तो अपना पंडित बुलवाना, मेरे बक्से पर ॐ लिखवाना और मेरा सफ़ेद रंग का सूट जो मैंने दिखाया था तुझे वो पहनाना... " और पता नहीं क्या-क्या कहती रही... पता नही उसने कितनी बार कहा होगा "आंटी आप कैसी बात कर रही हैं आप ठीक होकर यहाँ से निकलेंगी" और आखरी बार यह कह कर वह भाई बहन को लाबी से बुलाने चली गई... वार्ड में घुसने से पहले वह उसे रोक कर बोला "तुमने मेरी माँ के लिये इतना किया है आई वांट तो ट्रीट यू ... "मैं अपनी दोस्त को मिलने आती हूँ यह महज़ इतिफाक है की वो तुम्हारी माँ है" उसने हँस कर जवाब दिया ...
और हुआ भी ऐसा ही वह दो सप्ताह बाद घर आ गई। एक दिन वह उनको मंदिर लेकर गई। जब वह माँ को घर छोड़ कर लौटने लगी तो वह उसे बाहर छोड़ने आया। गाड़ी का दरवाजा बंद कर खिड़की से सर बाहर निकाल कर वह बोली " हम वो घर के पास वाले पब में लंच सकते हैं अगले सन्डे मैं खाली हूँ फोन करके बता देना मुझे" हाथ हिला उसने एक्सीलेरेटर दबाया... वह बाहर खड़ा गाड़ी को आँखों से ओझल होते हुए देखता रहा...
उसकी माँ ने उसे फोन करके बुलाया है वह जब आफिस ख़त्म करके पहूँचती है तो मेज पर चाय तैयार है आज माँ घर पर अकेली हैं... वह सुनती रही एक माँ की कोशिश, माँ की लाचारी और उसकी एक चाह, अंत में वह उसे समझाने की कोशिश करती हैं "देख पुतर अब ज़माना बदल गया है तू पता नहीं किस सदी में जीती है आजकल ऐसे नहीं चलता, जब तक तुम दोनों एक दुसरे को ठीक से जान न लो तब तक कैसे आगे बात बढ़ेगी..." यह एक माँ की आखरी कोशिश है...
वह माँ का हाथ पकड़ लेती है आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुरा कर कहती है "आप अपने बेटे को अच्छी तरह जानती हैं यदि मैं भी वही करती जो और करती हैं तो क्या मैं आपके पास आज यहाँ बैठी होती? इसमें सदी और ज़माना बदलने की बात नहीं है मुझे अपनी इज्ज़त और आपकी इज्ज़त करने का अधिकार तो है न आंटी? "
माँ ने आँखे नीची कर उसे गले से लगा लिया अपना मुहं छुपाते हुए भरे गले से बोली "देख पुतर मैंने तेरे लिए ढोकरा बनाया है बता तो कैसा बना है?"
फोटो - गूगल सर्च इंजन वी जी गेलरी से