Wednesday 26 November 2008
अब तो उसे माफ़ कर दो...
Monday 24 November 2008
बस इतना सा ख्वाब है ...
( यह कविता मुझे ऋतुराज जी ने भेजी है उन्होंने बताया है की यह १९९१ में लिखी थी। जबकि उनका बेटा-बेटी अभी चौदह और बारह वर्ष के हैं। इंतनी सुंदर कविता के लिये उन्हें शुभकामनाये देती हुं और उम्मीद करती हुं वो अपनी रचनाये और अन्य खवाब भी हम से बांटते रहेंगे... )
बस इतना सा ख्वाब है...
अंगुली पकड़ बेटा मुझे घसीटता है
मै उसकी खोजी राह पर चलना चाहता हूँ।
बे-सबब दौड़ती है, इधर-उधर मेरी बेटी
वो जहाँ जाना चाहे, जाने देना चाहता हूँ।
अच्छे नही लगते, मुझे सड़क पर लावारिस बच्चे
हर बच्चे को माँ के साथ देखना चाहता हूँ।
मै कब उस-से उसकी खुदाई चाहता हूँ,
इंसान हूँ इंसानियत देखना चाहता हूँ।
ऋतुराज
Friday 21 November 2008
हवा के संग उड़ सकती हो...
उसने दो पत्थर घिसे
चिंगारी चमकी
तड़क उठी
दीवार पर लगी तसवीरें
देखो! कपड़े जल रहे हैं,
नही जल सकते प्रियेबादल उढ़ा दिया है तुम्हे,
देखो! बदन पर छाले पड़ गए हैं,
दमक रही हो तुम
अपनी आभा से,देखो! धुंआ निकल रहा है
दिल से,प्रिये! कल्पना है तुम्हारी
वहां तो मानसून, बारिश
और नदी बहती है,देखो! राख बन गई हूँ,
अरे! यह में नही चाहता था!
प्रिये अब तुमहवा के संग उड़ सकती हो
आकाश छू सकती हो,
मेरे पास रहेंगे
सदा के लिए
तुम्हारी आत्मा और अतीतTuesday 18 November 2008
वो चली गई तो क्या मैं हूं ना!
वो हैदराबाद में पोस्टिंग पर था और उससे मिलने हर सप्ताह अंत में दिल्ली आता। एयर फोर्स में नौकरी की शुरुआत थी और उन दिनों डोमेस्टिक फ्लाईट भी इतनी सस्ती नही थी, उसकी सारी तनखा किराए में निकल जाती। वह दोनों सप्ताह अंत का बेसब्री से इन्जार करते। वह इंडियन एयर लाइंस में एयर होस्टेस थी। वैसे एक फाइटर पायलेट का एयर होस्टेस से टकराना आसान नही होता क्योंकि न तो फाइटर प्लेन में एयर होस्टेस होती है और न ही उनके डिपारचर और अराइवल लाउंज होते हैं। उन्हें एक मित्र ने मिलवाया था और पहले ही दिन से दोनों न्यूटन के सेब और पृथ्वी की तरह आकर्षित थे। एक दिन वह फ्लाईट लेट होने पर डेढ़ घंटा देर से केफे में मिलने पंहुचा, वह मधु मक्खी की तरह भुन भुना रही थी और बिना कुछ पूछे एक चांटा उसके मुह पर रसीद दिया जिसकी गुंज लाबी में देर तक रही और आस- पास बैठे लोगो की निगाहें उन पर उससे भी ज्यादा देर तक टिकी रही। वह खिलखिला कर हँसता रहा और वो उस पर बरसती रही। बाकी सब अपने कान और आँखे गरम करते रहे।
वह दस दिन की छुट्टी लेकर दिल्ली आया हुआ था। उन दोनों ने अपने माँ बाप को मिलवाने का फैसला किया। लड़के की माँ चुप थी पर उनके चेहरे पर लिखी नाखुशी बोल रही थी। लड़की की माँ ने काफ़ी कोशिश की दोनों परिवार किसी निर्णय पर पहुच जाएँ पर नाकाम रही। विदा लेते वक्त बस इतना कहा हमारे पास दो रिश्ते हैं एक आस्ट्रेलिया में इंजिनियर और दुसरा आपका बेटा, और आपका बेटा हमारी और हमारी बेटी की पहली पसंद है।
एक सप्ताह हो चला था वह दोनों मिले नही थे। ना उन दिनों मोबाइल फ़ोन हुआ करते थे और ना ही घर में लैण्ड लाइन थी। उसने माँ से कुछ नही कहा और ना कुछ पुछा। वह अपने आप से लड़ता रहा स्वयम को समझाता रहा। हर रोज़ खा-पी कर, हर बात का हूँ हाँ में जवाब देकर वह ओंधे मुह बिस्तर में बेजान सा पड़ा रहता। ऐसे ही एक सप्ताह गुजर गया। माँ से उसका यह हाल ना देखा गया वह इतवार को उसके सर पर हाथ फिराते हुए बोली जा उन लोगों से कह दे शादी की तारीख पक्की कर लें। माँ तुम खुश तो हो ना? माँ ने सर हिलाया और मुस्कुरा दी। वह उठ खड़ा हुआ और माँ को बाहों में जकड़ लिया। फुर्ती से तैयार हुआ और अपनी मोटर साइकल निकाली और मोती बाग़ से जनक पुरी उसी तेजी से दोडाई जैसे वह रन वे पर जेगुअर दौड़ाता हुआ हवा में उड़ता है।
घर का दरवाज़ा खुला था, घर के आस- पास और घर के भीतर चहल- पहल थी। घर के आँगन में लड़की की माँ दिखी उसे देखते ही बोली "अरे बेटा तुम ! थोड़ी देर कर दी तुमने आज सुबह ही उसकी विदाई हुई है। वह आस्ट्रलिया से आया हुआ था सब कुछ बहुत जल्दी में हुआ। उसने आगे बढ़ कर माँ के पाँव छुए और फ़िर गले से लगा लिया दोनों की आखें नम थी। वह उनके कंधे पर हाथ रख, मुस्कुरा कर बोला आप फ़िक्र ना करें, वो चली गई तो क्या मैं हूँ ना!
इस बात को अरसा हो चला है। वो जब भी दिल्ली आता है जनक पुरी जाता है, उसके बच्चों की तस्वीर देखने, अपने बच्चों के किस्से सुनाने, उनका अकेलापन बांटने और अपनी नयी पोस्टिंग की जगह बताने।
अक्सर सपने में उस तमाचे की गूंज उसे नींद से जगा देती है।
Friday 14 November 2008
बहा ले आते उसे...
आइना पूछता आखों से
वो दिखाई नही देता,
आखें मुह छुपाती चाँद से
वो कहीं रास्ता न रोक ले
जंगल कहता नदी से
ना चलो सड़क पर
छाले पड़ जायेंगे पाँव में....
अंगुलियाँ खोजती गुमी हथेली
ज़मीन पर गिरी पत्ती में,
विंड स्क्रीन पर जमी बर्फ में,
खिड़की पर छाये अंधेरे में,
प्लेटफार्म पर घटे एतिहासिक पल में,
खुली आंखों की नींद में,
रेडियो पर बजते प्रेम गीत में,
धरकनो में बसे जिन्दा पल में,
गिरने से पहले रोज़ कहते
आंसू
उसके कंधे पर गिरते तो
बहा ले आते उसे तुम्हारे कदमों में ....
Monday 3 November 2008
काहे को दीजे दहेज...
बिदेस जाना था, ज्यादा सामान नही देना पर माँ नही मानी थी। कम-कम करने पर भी शगुन और नेग की तुर्प चाल फैंक उसकी और पापा की हर दलील को हरा देती, बर्तन और बिस्तर तो शगुन के होते हैं, जोड़े के लिये शनील की रजाई और सास- ससुर, जेठ- जेठानी, ननद-नन्दोई के लिये गर्म और ठंडे बिस्तर, दूतई और खेस तो माँ के देहेज़ के रखे थे। जब वो फ्राक पहनती थी और ऊँची हो जाने पर खींच- खींच कर लंबा करने की कोशिश में उन्हें फाड़ डालती, तबसे माँ ने उसके लिये बर्तन जोड़े थे। बाज़ार से खरीदे नही थे, अपनी जरी की रेशमी साड़ी, शनील का शाल, पापा की घिसी कमीज़, पुरानी पतलून, पुराने जूते, दादी का पुरानी गर्म चादर, मेरी बिना फटी फ्राक, भाई की घुटने से फटी नई पेंट, सब के बदले मिल जाते थे चमकते स्टील के नए बर्तन, कभी बारह थाल तो कभी छ कटोरी, कभी किनारी वाले छ ग्लास, परात, पानी का जग, छोटे बड़े सब साइज़ के कटोरदान, डोंगे और गोल चकोर छ -छ तश्तरी। हर बर्तन पर उसका नही तो पापा का नाम खुदा होता, वह बड़े ध्यान से बर्तन बेचने वाले के हाथों कील और हथोडी का कमाल देखती और भाई को चीढाती... मेरा नाम लिखा है तेरा नही... प्रेशर कूकर और स्टील की पानी की टंकी माँ ने पापा से जिद कर शादी से सप्ताह भर पहले खरीदवाई थी। सास ने कहा था घर में पहले ही मुझे इतने सारे बर्तन और बिस्तर संभालने पड़ते हैं जो जरूरत हो साथ लेजाना नहीं तो यहाँ तेरा समान ऐसे हे रखा है ट्रंक में..... बीस किलो तो साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज का वज़न हो गया था एक चम्मच की भी जगह न थी.....जब भी सास गाँव जाती, आकर बताती बिस्तर धुंप में सुखा कर फिनाइल की गोली दाल दी हैं बर्तनों को भी हवा लगा दी....
अब दस साल से जयादा हो चुके थे उन्हें धुंप और हवा लगे......वो भूल चुकी थी ट्रंक को और फिनाइल की गोलियों को ..... बड़ी भाभी ने इस बार लौट कर कहा मैं अपना सामान ले आई हुं, तुम जाओगी तो चाबी लेजाना, अपना सामान गाँव से ले आना...
माँ बड़े-बड़े बैग दो, छोटों में नही आयेगा ...देहरादून से मेरठ का सफर, सुबह जाकर शाम तक वापस लौटना था.... गाँव का घर पहचान में नही आया, पहले सड़क पर दूर से दिखाई देता था... स्टोर में अपना ट्रंक भी नही पहचान सकी...चार जन जुटे हैं गुच्छे की चाबियों को ट्रंक के तालों में फिट करने, कभी मिटटी का तेल तो कभी सरसों का तेल...कभी ईंट तो कभी हथोड़ा...बारी-बारी कर के सारे ट्रंक खुल गए .... जिनकी तली पर सिर्फ़ फिनाइल की गोलियां लुढ़क रही थी ..... उसे शर्म महसूस हुई उन लोगों से जिन्होंने अगस्त की उमस में, धूल भरे कमरे में, चार घंटे पसीना बहा सारे ट्रंक खोले ....
बीस साल पुराने बर्तनों की चमक आज भी आखों को चुन्ध्याती है जिन पर आंखों ने सिर्फ़ एक बार नाम पढा था ....
यू आर फायर्ड जानेमन...
तुम मेरी प्रेरणा हो, आखों का सबसे सुंदर ख्वाब हो, आत्मा की आवाज़ हो, हथेली पर जिंदगी की लकीर हो, मेरी धरकनो का नाद हो, नदी की तरह मेरी रगो में प्रवाहित हो, पतझड़ के पेड़ का वसंत हो, ताजी हवा का झोंका हो, घास पर ओस की बूंद हो, प्रभात की पहली किरण हो, किसी सूफी का लिखा सोल्हवी सदी का पुराना गीत हो, मेरी ना लिखी कविता हो, मेरी जलती आखों पर गिला फोहा हो, रेगिस्तान में पानी की धार हो, खिड़की पर उगता चाँद हो, मानसून की पहली बारिश हो, मिट्टी की सोंधी खुशबू हो, सुबह रेडियो में बजता आलाप हो, मेरी हर पढ़ी किताब की नायिका हो, पत्ती और सूरज की बीच होती फोटो सेन्थसिस हो, प्रार्थना से मिला वरदान हो, मेरी चाहत, मेरी जिंदगी, मेरी पहचान, मेरी धरती, मेरा आकाश हो....
सुनो! अब कोई और है वो सब कुछ जो तुम थी...