पिता उस जमाने में बी ए पास थे, जिस समय गावं में चिठ्ठी पढ़वाने के लिए लोग इक्के दुक्के का सहारा ढूँढ़ते थे. वो दिल्ली में अखबार के सम्पादक थे. केंसर को पहले उनके दायें हाथ से प्यार हुआ, वो हाथ उसे सौपने के बाद उन्होंने बाएँ हाथ से लिखना सीख लिया था किन्तु उसे अब हाथों के अलावा बहूत कुछ चाहिए था .. पिता के चले जाने के बाद ... माँ चार बेटियों के साथ वापस गावं लौट आई थी.. घर में, सप्ताह में एक बार मास्टरनी पढ़ाने आती थी उसमें भी ताई कोई ना कोई काम निकाल कर बुलवा भेजती.... वो रामायण, गीता, सुख सागर, हनुमान चालीसा पढ़ लेती थी इसके अलावा ना ही मन हुआ और ना ही कुछ और पढ़ने को मिला .. ताऊ ने सभी बहनों की शादी धूम - धाम से की थी और अब तो बस वही रह गई थी. किसी चीज़ की कमी ना छोड़ी थी... ताऊ जी का बिरादरी में बड़ा नाम था, वो गावं के सबसे बडे ज़मीदार और बिरादरी के सभापति थे. ताऊ जी पति को तब से जानते थे जब वो कालेज में पढ़ने की लिए बिरादरी की सभा से ऋण लेने आये थे. सगाई के बाद उनके घर से आकर ताऊ के लड़के ने उससे कहा भी था... कच्चा घर है... छत से पानी टपक रहा था, बर्तन भी घर में ठीक से नहीं थे..तू कहे तो मैं पिता से कह कर मना करवा दूं ...उसने उसे यह कह कर रोक लिया रिश्ता तोड़ कर किसी का अपमान करना ठीक नहीं.. जो उसकी किस्मत में होगा देखा जाएगा...
गावं की औरते सामान से भरे घर, उसके रूप और उसके पहनने - ओढ़ने को देख कर सास को उल्हाना देती तुम तो चोधराइन बन गई हो... सास फूल कर कुप्पा हो जाती ...उसे अक्सर टोकती "बहू रोटी पर घी कम लगाया कर थाली में चू जाता है" ... ससुर कहते "बड़ी भाग्यवान है बहू! खुला हाथ है घर में बरक्कत रहेगी"...वो घूंघट के भीतर मुस्कुरा एक और फुल्का उनकी थाली में सरका देती...
गोने के बाद वो पति के साथ चली आई... सात कमरों वाली हवेली से निकल कर, दिल्ली में एक कमरे के माचिस नुमा क्वाटर को अपना महल बनाना मुश्किल नहीं हुआ, अच्छा हुआ दहेज़ का सोफासेट, डाइनिंग टेबल कुर्सी, पलंग यहाँ नहीं लाये... यह क्वाटर तो पूरा स्टोरेज बन जाता, वैसे भी इनकी छोटी बहन की शादी होनी है अगले साल तक लड़का मिल ही जाएगा, वो सामान उसके काम आयेगा. सिर्फ गोदरेज की अलमारी और पढ़ने की टेबल कुर्सी हैं और चारपाई बिछने के बाद तो कमरा भर जाता था.
जो काम उसने कभी पहले नहीं किये ..धीरे- धीरे सब सीख लिए.. जैसे स्टोव जलाना, कपड़े इस्त्री करना, फेरी वाले से मोल- भाव करके सब्जी लेना, चक्की पर आटा पिसाना, घर के दरवाजे खोलना- बंद करना, कूड़े का कनस्तर नीचे रख कर आना, दूध की डिपो से बोतल का दूध लेकर आना, अखबार वाले का हिसाब करना... जब भी वह किसी काम से बाहर निकलती आस- पड़ोस की निगाहें उसका पीछा किया करती...उन आखों में कोतुहल के साथ शायद कुछ और भी था जानने और कहने को....
दोपहर में अब वह बोर नहीं होती. उसने नयी दुनिया खोज ली है मेज पर पड़ी धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बरी, नवनीत, सारिका को पन्नो में वह खुद को ढूढ़ लेती है कभी कहानी की नायिका बन कर तो कभी कविता की पंक्ति बन कर... शब्दों का जादू उसे छूने लगा है और वो जादू उसे कभी परिंदा बना देता है तो कभी पतंग, कभी तिनका, तो कभी कपास का फूल, कभी हवा तो कभी बूंद ... आकाश में भी बराबर उसे अपनी पाजेब की छन - छन सुनाई देती है...
वो पहली बार घर में आई है ... रूबी नाम है उसका... वो उससे मिलवाते हैं.. उसने पीले और लाल रंग की लंबी ड्रेस पहनी हुई है पतली, लम्बी, साँवली, सर पर छोटे छोटे बाल..मेम जैसी दिखती है .. उन दोनों की बातें उसके समझ से बाहर हैं वो चाय बनाने रसोई में गई और दोनों के ठहाके सुनती रही... वो सोच रही है यदि वो खाने के लिए रुकी तो एक सब्जी और होनी चाहिए... वो चाय लेकर गई तो दोनों यकायक चुप हो गए.... उनका चुप होना उसे खलता है और जब चाय की चुस्की के साथ उनकी बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो उसे अच्छा लगा ... वो चाय ख़तम कर जाने की बात करती है .. उसने मेहमान से खाने पर रुकने को कहा... उसने मना कर दिया और कहा वो घर जाकर ही खायेगी... उसने शनिवार को दुबारा आने का वादा किया. पास के सिनेमा हाल में, शाम के शो में, संगम फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया है ...
"में रूबी को बस स्टाप पर छोड़ कर आता हुं" ..वो हाथ हिला कर उससे विदा लेती है ... उसके कान उन दोनों के कदमों को नीचे उतरते हुए पीछा करते हैं और खिड़की से उसकी आँखे उनकी ओझल होती छाया को... वो वहीँ खड़ी है ...डूबते सूरज की रौशनी उसे भिगो रही है बाहर बच्चों के खेलने का कोलाहल शोर होते हुए भी अच्छा लग रहा है एक छोटी बच्ची उसकी और देख कर हाथ हिलाती है ... वो भी मुस्कुरा कर हाथ हिलाती है वो इशारे से पूछती है वो बच्चों के साथ क्यों नहीं खेल रही?... वो उसे अंगूठे पर लगी पट्टी दिखाती है ... वो भी अपना सीधा हाथ हिलाती है और सब्जी काटते हुए कटी अंगुली पर लगी पट्टी की तरफ इशारा करती है... दोनों जोर जोर से हँस रही हैं ...
दरवाज़े पर आहट हुई तो वो पीछे मुड़ी... पडोसन अन्दर आ रही है काफी घबराई लगती है उसके निकट आकर कान में कुछ कहती है... वो हँस देती है है उसे चाय के लिए पूछती है ... तभी यह भीतर आते हैं और पड़ोसन घर के काम का बहाना बना... इनकी और घूरती हुई कमरे से निकल जाती है... "तुम इनकी बातो में मत आना लगाईं- बुझाई के अलावा इन्हें कोई काम नहीं.." वो चाय के बर्तन समेट रही है और प्लेट पर हिलते हुए प्यालों की आवाज़ में वो जवाब मिल जाता है जो वह सुनना चाहता है...
उस दिन इनका दोस्त दफ्तर से साथ आया था और खाना बीच में छोड़ रसोई में आकर पूछ रहा था " वो अब तो यहाँ नहीं आती?" हँस कर पूछती है "कौन भला" .. "कोई नहीं भाभी" कह कर वो जोर से चिल्लता है "देख भाभी फुल्के कितने बढ़िया बनाती है" .. "तू जी भर के खा में तो रोज़ खाता हुं" कमरे से आवाज़ आती है...
वो कपड़े इस्त्री कर रही थी ..गावं से अचानक ताऊ का लड़का मिलने आ पहुँचा .. माँ ने बेसन की लडू, देसी घी और दालें भेजी हैं... .बड़े ध्यान से वह उसके घर को और उसे काम करते देख रहा है .. जब वह खाना खा चुका तो उसने धीरे से पूछा "तू खुश तो है ना?" वो आँखे नचा कर बोली "तुम्हे क्या लगता है?" और खिलखिला कर हँस दी ... शाम को विदा लेने से पहले वह इनको धीरे से कह रहा था इसने कभी कपड़े प्रेस नहीं किये हैं वो भी बिजली की प्रेस से! घर पर अकेली होती है कहीं कुछ झटका लग गया तो पछताओगे... वो उसे प्रेस करने को मना करते हैं... भाई के लौटते हुए चहरे पर तसल्ली और संतोष झलक रहा है उसे ख़ुशी है वह संतोष भी सही सलामत माँ तक ऐसे ही पहुँचेगा जैसे उसके हाथ से सिले ठाकुरजी के कपड़े ....
आज शनिवार है साढ़े सात बज चुके हैं वो अभी तक नहीं आई है वो खाने को पूछती है वह अनमने ढंग से हाँ कहता है... वो खाना परस देती है और रसोई में पानी लाने गई है... जीने में कदमो की आहट होती है वह खाना छोड़ जीने की तरह भागता है वह रसोई की खिड़की से, सबसे ऊपर की सीढ़ी पर, दरवाज़े की ओट में दोनों को एक दुसरे की बाहों में देखती है...
वह रूबी लिए खाना लगाती है... आज उसने बादामी स्कर्ट और सफ़ेद ब्लाउज पहना है आज रूबी उस दिन की तरह सहज नहीं है ... वो उन दोनों की तरफ देख कर देर से आने की माफ़ी मांगती है.. "कोई बात नही! हम रात का शो देख लेंगे" यह मेरी और देख कर पूछते हैं? "क्यों नहीं" उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया..
रसोई का काम निपटा कर वह बाथरूम में साड़ी बदल रही है कोशिश के बावजूद भी फर्श पर गिरे पानी में साड़ी गीली हो जाती है नीली सिल्क साड़ी के आसमान पर पानी के गीले धब्बे काले बादल की तरह नज़र आ रहे हैं साड़ी की कोमलता वह अपने भीतर उसी तरह महसूस करती है जैसे रात में वो उसके स्पर्श को महसूस करती है... मचल जाती है अपनेआप को आईने में देखने को... यह उनकी मन पसंद साड़ी है सबसे अधिक बार पहनी हुई पर इससे कभी उसका मन नहीं भरता .... आज पहली बार बाथरूम में तैयार हो रही है चोटी- बिंदी करने के लिए बाथरूम में आईने की कमी खल रही है ... लज्जा के मारे उन दोनों के सामने कमरे में आइना नहीं देख सकेगी...उसे बड़ा अजीब लगता है जब रूबी अपने बेग से शीशा निकाल लिपस्टिक होंटों पर घुमाती है वो इनका नाम लेकर बुलाती है उसे वह भी अजीब लगता है पर बुरा नहीं. रसोई की खड़की के धूल लगे शीशे में लाल सिन्दूर की बिंदी भवों के बीचों - बीच लगा.. थोड़ा बालों के बीच छिड़कती है और नाक पर छिटक आई नन्ही नन्ही लाल बूदों को अगुलियों से साफ़ करती है जैसे ही वो कमरे में आती है वो दोनों उसके तरफ देखते हैं वो दीवार पर लगे आईने के सामने चाबी ढूँढने के बहाने एक दो चक्कर लगा... उड़ती निगाह से अपने आप को आईने में देखती है...
वो दोनों अपनी बातों में मगन आगे- आगे चल रहे हैं वह चार कदम पीछे है ... वह राहत की सांस लेती है चलो अँधेरा काफी गहरा है और सभी कोतुहल भरी निगाहें घरों के भीतर बंद हैं...
फिल्म लम्बी थी आधी रात के बाद समाप्त हुई, बाहर हवा तेज़ चल रही है, बादल घिर आये हैं... बिजली चमक रही है ... तीनो तेज़ कदमो से घर की और भागते हैं... वह दोनों का बिस्तरा फर्श पर और रूबी का चारपाई पर..उसके लिए नयी चादर, खेस और दुतई निकालती है...रूबी चारपाई पर उन्हें फैलाने में मदद करती है ...कपड़े बदलने के लिए रूबी को अपना नया कफ्तान दिया है जो उसको काफी ऊँचा है ...
सुबह नाश्ते के बाद वो घर से तैयार होकर निकलते हैं... इतवार को इनके एक दोस्त ने लंच पर बुलाया है रूबी को उसके घर छोड़, वह दोनों दोस्त के यहाँ चले जायेंगे... इनके दोस्त का घर रूबी के घर के पास है...
बस स्टाप पर उतर कर रूबी जिद करती है हम भी उसके घर चलें... वह काफी घबराई हुई है ... यह मना कर देते हैं वह रूबी का हाथ पकड़ कर उसके साथ हो लेती है और महसूस करती है उनके पीछे - पीछे कोई चल रहा है और रूबी के घर की गली आ जाने पर वहीँ नुक्कड़ पर रूक गया है...
रूबी के घर में दाखिल होते ही उसके पिता बाहर बरामदे से उठ कर आते हैं वह साड़ी का पल्ला सर पर कर लेती है ... रूबी को देखते ही चिल्लाने लगते हैं भला-बुरा बोलते हैं और उसे घर से निकल जाने को कहते हैं... वो गुस्से से उबल रहे हैं उनके गुस्से को देख वह भी सकपका गई है... उसके हाथ कांप रहे हैं...रूबी ने दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढक लिया है दीवार की और मुहं कर सिसक रही है... वह उसके कंधे पर हाथ रखती है उसके पिता की और देख कर कहती है..
" बाउजी इसमें रूबी की कोई गलती नही है ... बारिश तेज़ थी ...रात काफी हो चुकी थी मैंने ही जिद कर के रूबी को रोक लिया था यह तो वापस लौटना चाहती थी .. गलती सारी मेरी है..". उनकी आँखे अब उस पर हैं सवाल कर रही हैं " तुम कौन हो" बिना जवाब दिए वो समझ जाते हैं "तुम अंदर जाओ रूबी!" वो सख्ती से कहते हैं रूबी उसकी और देखती है उसकी आखों में आँसू हैं वो उससे वो सब कह जाते हैं जो सारी दुनिया उससे इतने दिन से कहना चाह रही थी ...और तेजी से अंदर चली जाती है...
"आप रूबी को कुछ मत कहिये..." वो उसके पिता के सामने हाथ जोड़े खड़ी है वो उसके नज़दीक आते हैं उसके सर पर अपना हाथ रखते हैं वो उनके पैर छू कर विदा लेती है..
"तुम्हे इतनी देर क्यों लगी" वो मुझसे पूछते हैं "कुछ नही उसके पिता ने मुझे बैठा लिया था " वो आश्चर्य से उसकी और देखता है और आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लेता है वो तेज़ कदमो से उसके साथ चलने की कोशिश में, छन-छन की धुन पर हवा में उड़ती है...
उस दिन के बाद रूबी कभी घर नहीं आई सिर्फ उनकी यादों में बसती और महकती है...
पेंटिंग - राजा रवि वर्मा