वो दोनों पैबन्द सिल रहे थे, बिखरे आकाश पर,परों तले खिसक गई ज़मी पर, किताब के फटे पन्नो पर, आखों से गुम हुए सपनो पर, चौखट पर सिमट आई पगडण्डी पर,जागी हुई इंसानियत पर और मासूम चाहत पर... वह इसलिए पैबन्द लगाता है क्योंकि उसे दुःख है उसे दुःख पहुंचाने का और उसे आइना दिखाने का और वह इसलिए लगाती है उसे दुःख है उससे दूर हो जाने का और सच से ना लड़ पाने का...
वह बड़े-बडे पैबन्द लगाता है जब वह चाँद का पैबन्द लगाता तो वह सिर्फ दाग देख पाती, जब वह बादल का लगाता उसमें से हवा निकल जाती,जब वह धरती का लगाता तो उसकी मुट्ठी से रेत फिसल जाती ... वह छोटे-छोटे पैबैन्द लगाती है जब वह पत्ती का पैबन्द लगाती तो वह सिर्फ मुरझाई शाख देख पाता, पुरानी यादों का लगाती तो उसे बासी महक आती, उम्मीदों का लगाती तो वह अपनी नज़रें झुका लेता ...
बारिश से पैबंद गल जाते, हवा से उधड़ जाते, बर्फ में अकड़ जाते और सूरज के लाल-पीले होने से वो उखड़ जाते... वो दोनों अनजान बने चुपचाप पैबन्दों का गलना, उधड़ना, अकड़ना, उखड़ना देखते और फिर दोनों की खामोशी की कैंची उसमें बड़े-बड़े छेद करती और फिर आंधी आती। जब उन्हें लगता आकाश के दो टुकड़े हो जायेंगे, धरती फटेगी और वो धंस जायेंगे, उनकी कोरी किताब के पन्ने स्याही भी ना सूंघ पायेंगे ...वो दोनों एक साथ भागते पैबन्द लगाने... पैबन्द लगाते - लगाते जब कभी उनकी अंगुलियाँ एक दुसरे को छु जाती तो वो थोड़ी देर के लिए एक दुसरे का हाथ थाम लेते...
उन क्षणों में उन्हें अपना आसमान साबूत, पाँव के नीचे की जमी हरी और शब्दों का सागर एक दुसरे की आँखों में उमड़ता और बहता नज़र आता ...
फोटो गूगल सर्च इंजन से



