Friday, 15 April 2011

एक्सपाइरी डेट के बाद भी दूर नहीं होना चाहते ...

वो खुशी में स्फूर्ति से और उदासी में फुर्सत से उसके हम सफ़र रहे हैं उन्होंने देखा है उसे देवदार की कतारों के पीछे किसी को ढूंढते हुए... मैदान में घोड़े को घास से दोस्ती करते हुए... तलवों के छूते ही सूखे पत्तों को चरमरा कर शर्माते हुए, पत्तों का फूटपाथ का घूंघट बनते और निर्लज्ज हवा का सभी के सामने वह घूँघट उघाड़ते हुए... घर लौटते परिंदों को दाने के तलाश की कहानी आसमा को सुनाते हुए... चिमनी से निकलते धुएं की महक को दिल से निकले धुंए से पहचान बढ़ाते  हुए ... जंजीर से मुक्त होने को गर्दन खींचते  अल्सेशियन को देख अपनी खैर बचाते हुए... हाथ में हाथ लिए  झुर्री दार चेहरे की मुस्कान का अभिवंदन करते हुए... नुकीली छतों पर से पिघलती बर्फ का रंग उसके गालों पर लुढ़क आये पानी के रंग से मिलते हुए... घोड़े की कमर पर ऊपर-नीचे उछलती छाया को  टप -टप की आवाज़ के साथ दूर जाते हुए... किसी अजनबी गेट पर गुब्बारों का बार -बार सर हिला उसका स्वागत करते हुए, दोड़ते हुए बहरों के आई पोड्स को जगह देने के लिए सड़क पर उतरते हुए...  जानी-अनजानी आँखों का खेत की बगल में  रोज उसी वक्त मोड़ पर टकराते हुए... परछाई को लम्बी, तिरछी, आड़ी हो झाड़ियों , पगडण्डी,  सड़क, पानी, घास पर से गुजरते हुए....

विरासत में मिली पहिये  जैसी चाल, पिता के विचारशील कदम, वातावरण में गूंजती पढ़ी ना पढ़ी किताब के पन्नो की आवाज़ और मां का साया दस कदम पीछे होने का आभास इनको पहन कर ना जाने कितनी बार हुआ.. सबसे पहले मौसम की पहली बर्फ छूने का सुख हर वर्ष दशकों से इन्होने अपने ज़हन में समेटा है... वसंत के डेफोडिल , पतझड़ के चार सौ चोरास्सी रंग,  मानसून से  निखरे जंगल       के बीच भीगी- लजाती  ज़मी  से महकते  कुदरत के करिश्मो का  अलग - अलग स्वाद सार्ष्टि के साथ मिल बाँट कर चखा है... ख़ुशी में वो गौरिया के घोंसलों में झांकते, राह में ठहरे हुए बारिश के पानी से चुहल करते , फ़िल्मी स्टाइल में देवदार के तने पर हाथ टिका गोल-गोल घूम सुबह रेडियो पर सुना प्रेम गीत गुनगुनाते, फीते कसने को खाली बेंच पर बैठ कर थोड़ा सुस्ताते, गोल्फ कोर्स से लापता सड़क पर पड़ी लावारिस सफ़ेद गेंद को बादलों में छेद करने को हवा में पूरे जोश से उछाल देते ... दुःख में उसके दिल को टोहते, भरोसा दिलाते मुझे पहनो और बाहर झांको  देखो! जिंदगी कितनी   खूबसूरत  है  कभी आगे बढ़कर आंसू पोंछने की कोशिश नहीं की... ना ही कारण जानने के लिए प्रश्नों की बौछार की ... जब कोई बूंद गर्दन से लुढ़क कर उन पर ठहर जाती, वो तुरंत सोख लेते और अगले दिन बारिश को बुला कर उसके गोल निशाँ धुलवा देते ... नर्म, गुदगुदे, मखमली ... वो उसके  पैरों  के लिए इटली से बन कर आये थे... उनको बनाने वाला शायद उसे जानता था जिसने क़दमों को अपनी हथेलियों  में भींच कर कहा था... एक दिन इनके लिए अपने हाथों से जुते सीयूंगा .... ये जुते उसकी हथेलियाँ थी जो पाँव के आकार में ढल गई .... उनको पहनते ही उसके साथ का सफ़र तय था... और बादलों से निकल सूरज सामने खड़ा मुस्कुरा रहा होता...

समय के साथ वो अब उसके जैसे हो चले हैं त्वचा से ढीले - ढाले, चहरे से बदरंग, शरीर से कमज़ोर, एडी से घीस गए हैं जोड़ों से उधड़ने लगे हैं वो आराम चाहते हैं थक गए हैं जिंदगी से, थके भी क्यों ना ... पिछले गयारह साल में वो इतना सफ़र तय कर  चुके हैं जितना हवाई जहाज़ दो दिन में करता   होगा...   उनके साथ किया रोज पांच-सात  कोस का सफ़र इंच दर इंच ज़मीन पर हज़ारों बार दर्ज है सिर्फ मिट्टी के कणों को मालुम हैं उन्होंने कितनी बार तलवों को चूमा है...

उनकी जगह मजबूत, नीली सफ़ेद धारियों वाले, खुरदरी सोल के जुते खरीदे जा चुके हैं पर वो एडी के ऊपर की त्वचा से नरमी से पेश नहीं आते... वहां एक गुलाबी पिलपिला, पारदर्शी बुलबुला उभर आया है... मेड इन चाइना जो ठहरे.. भारतीयों से वही पुराना ऐतिहासिक बैर... पुराने जूतों के लिए घर में जगह नहीं...उनके शरीर की मुनियाद ख़त्म हो चुकी है ... इनसे छुटकारा पा लो, अब तो नए आ गए हैं... जुते वाली अलमारी कह रही है... घर कह रहा है... घरवाले कह रहे हैं सही तो कह रहे हैं...अब यह किस काम के.... चेरेटी बेग में डाल देना चाहिए ... इतने जीर्ण -जीर्ण जुते कौन पहनेगा?... उसकी हथेलियों में किसी और के पाँव?...नहीं बिन में ठीक है ... रीसाइकल बिन में? या कबाड़ वाले में? सफ़ेद प्लास्टिक के बेग में लिपटे वो अपनी अंतिम यात्रा की प्रतीक्षा में दो सप्ताह से लेंडिंग के कोने में पड़े हैं आज शाम देखा  तो वह कोना वीरान है ...

उसे पूरी रात जंगल में आग के सपने आये और नसों में बिच्छु रेंगते महसूस हुए ... ठीक उन्ही रातों की तरह जब उसने कहा था प्यार एक चमत्कार की तरह फिर घटित हुआ है उसके जीवन में और वह उससे दूर होना चाहता है ... पर कहाँ हो पाई प्यार से दूर ... वो यादों से निकल दरारों में यहाँ - वहाँ पीपल की तरह उग आता है यह जूते भी बिलकुल उसके जैसे हैं एक्सपाइरी डेट के बाद भी दूर नहीं होना चाहते ...

बाहर गहरा कोहरा हैं, बगीचे के हर कोने, घास के हर तिनके, घर की छतों और गाड़ी की देह को आज की सुबह, जमे पानी की स्लेटी चादर में लपेटे है वह शाल लपेटे ठिठुरते हाथों का काँटा कमर से ऊँचे हरे रंग के रिसाइकल बिन में फेंकती है अखबार और जंक मेल के बीच से सफ़ेद बेग में लिपटे सफ़र के साथी को उँगलियाँ में फंसा कर भीतर ले आती है और उन्हे जगह देती हैं यादों से सजी अलमारी में ... खुशियों वाली ऊपर की शेल्फ को छोड़,   नीचे वाली शेल्फ पर सबसे खामोश और नम जगह के बीच, दर्द की बगल में ....