Sunday, 16 December 2012

अरे बाप रे! बंगाल टाइगर की आँखों में मेरा चेहरा..

 
थियेटर में घुसने से पहले सर पर एडिडास की उलटी केप लगाए टिकट चेक करने वाले लड़के ने जब प्लास्टिक का चश्मा थमाया तो जितनी उदासीनता से उसके हाथों ने थमाया था उतनी उदासीनता से ही उसने हाथ बढ़ा अपनी कोट की जेब में सरका दिया... एक बार को तो जी में आया मना कर दे फिर शायद सफ़ेद चमड़ी के सामने अपने रंग और लिंग की लाज रखने की खातिर हाथ अपने आप ही उठ गया...   क्या सोचेगा पाकी पहली बार थियेटर में फिल्म देखने आई हैं...
 
थियेटर पॉपकार्न की खुशबू से खचाखच भरा है और अगले दस मिनट लोगों को आइल में आते -जाते देख और पैर सिकोड़ जगह देने में निकले ... विज्ञापनों के बाद फिल्म शुरू हो होती है .... अरे! तस्वीर हलकी सी आउट आफ फोकस धुंधली सी है कितने दिन से सोच रही हूँ ओपटीशियन के पास हो आऊं अब तो पढने में भी आखों पर जोर पड़ता है... यह फिल्म क्या अब ऐसे ही झेलनी होगी विज्ञापनों के समय तो ठीक थी...  अँधेरे में आस-पास, आगे पीछे नज़र घुमाई सभी के कानो पर वह टंगे थे...  पर मेरे कान दुखते हैं चश्मा लगाते ही... हाथ गोद में सोते काले कोट की जेब तलाशते हैं और दांत और अँगुलियों प्लास्टिक की थैली की चीर फाड़ पर टूट पड़े ... खुसड़ - फुसड, चर्र -मर्र... सन्नाटे का फायदा उठा कितना चीख रही है पन्नी ... दो चश्मे लगी आँखे पीछे मुड़ कर घूरते हैं उन्हें इग्नोर करते हुए चश्मा अपने कानो पर टांगती हूँ .... आहा! आह! आहा!... जादू!.. चमत्कार! ... आखे फटी और मुह खुला... कुर्सी में धंसा शरीर सीधा हो जाता है... मैं स्क्रीन के भीतर... मुह से हलकी सी चीख निकलने को है समुद्र के लहरें मुझे बहा ले जायेंगी... हाथ बढ़ा चाँद को छू सकती हूँ... अरे बाप रे! बंगाल टाइगर की आँखों में मेरा चेहरा... यह चाक़ू मछली के पेट में नहीं मेरी अंतड़ियों के आर-पार, यह जहाज टूट कर मेरे ऊपर गिरने वाला है, कितनी सुन्दर रात है सितारे मांग भरने खुद ब खुद चले आ रहे हैं, वो पर्स में रखा केला बन्दर को दे दूँ... पाई की पसलियाँ एक, दो, तीन, चार, पांच..., रिचर्ड पारकर पाई को ही नहीं मुझे भी खा जाएगा चेहरा गोद में डाइव मारता है.. यह समुद्री जीव की बारिश पाई की नंगी छाती से नहीं तड़ातड मेरी गर्दन से टकरा रही है... कितना खूबसूरत है यह आईलेंड और उससे सुंदर यह पेड़ पर बना बिस्तर तमाम उम्र अकेले बैठ कर यहाँ लिखा जा सकता है...
 
 
यह सब उस छोटी बच्ची के फिल्म देखने के अनुभव जैसा था जो फिल्म में ट्रेन आती देख आँखे बंद कर माँ की गोद में दुबक जाया करती थी... किसी भी फिल्म में चिंघाड़ता हुआ, धुंआ उगलता, दानव की शक्ल जैसा इंजन अपनी और आता देख उसकी चीख निकल जाती थी... फिल्मों के विलेन से उसे बहूत डर लगता था उनके हाथ में चाक़ू और खून देख उसकी कई रातों की नीद भयानक सपने निगल लेते थे... काठमांडू के भारतीय दूतावास में कौनसे इतवार को हिंदी फिल्म दिखाई जायेगी उसे जब भी स्कूल में सहेलियां खुश और उत्साहित होकर बताती... वो उदास हो जाया करती उसी शनिवार को उसे सर दर्द, पेट दर्द, उलटी या बुखार हो जाया करता था... 
      
बच्ची थियेटर से बाहर निकली है सभी लोग प्लास्टिक का चश्मा एक नीले ड्रम जैसे ढक्कन लगे बक्से में डाल रहे हैं।   
"मैं यह चश्मा अपने पर्स में रख लूँ ?..." बच्ची बड़ी मासूमियत से पूछती है।  
"तुम्हारा दिमाग सही है इस दो कोडी के चश्मे का क्या करोगी ... थ्री डी टी वी खरीदने की बात करो तो फ़िज़ूल खर्ची की दुहाई, सिंपल लिविंग का झंडा लिए, यह उपभोक्तावाद को बढ़ावा और जेब खाली करने की साजिशें हैं के नारे लगाती हो ..." वो उसी का वार उसी पर फेंक झुंझलाता है।    
"हमने टिकेट के साथ चश्मे के भी पैसे दिए होंगे ..." बच्ची अभी भी अड़ी हुई है।
"तो क्या हुआ? घर वैसे ही फ़ालतू के जंक से भरा है ..." वो बच्ची को अकेला छोड़ थियेटर से निकली भीड़ में गायब हो जाता है ...
उदास हाथ चश्मे के साथ छोटी बच्ची को भी धीरे से नीले ड्रम में सरका देते हैं...
 
कोट की चेब में चश्मे की पन्नी को अँगुलियों से मसलते हुए लम्बे - लम्बे कदम लेती हुई एक औरत एस्कुलेटर से उतर, शीशे के दरवाज़े को बिना जेब से हाथ निकाले अपने शरीर के भार से खोलती हुई बर्फीली हवा और अँधेरे को चीरते हुए पहचानी छाया को ढूंढते हुए आगे बढ़ती है ...

Friday, 31 August 2012

तुझे शौक है हमेशा जवाँ रहने का...

 
उम्मीद चली आती है दरारों में उग आए  पीपल की तरह और बैठ जाती आँखों में धूनी रमा कर .. उम्मीद आठ से अस्सी बरस की आँखों में सप्तऋषि तारों की तरह टिमटिमाती है. न कोई भेद, न कोई पक्षपात, न फर्क..उम्मीद हर किसी की है और हर किसी को..उम्मीद के तिनके पर टिका हुआ जंगल होता है और दूज के कुतरे हुए चांद पर सलमा-सितारों के साथ पूरा अंतरिक्ष.. प्यास की उम्मीद में वक्त और प्रदूषण से पहले की नदी है.. उम्मीद की हथेली पर सपने अपनी पगडंडी बनाते हैं. वो समय कितना खूबसूरत होता है जिस रात उम्मीद यकीन दिला देती है ... प्यार पूर्णिमा के चाँद जैसा साबुत वर्ताकार सिर्फ मेरा और अगले दिन  बिना पूछे वो संशयों को न्यौता देगी...देखते -देखते उन्हे चाँद की फांक काट -काट कर खिला देगी....और सामने रख देगी चुक गए प्यार की खाली तश्तरी -- अमावस्या की रात....
 
जिंदगी के पाँव  जब भी पथरीली पगडण्डी से ज़ख्मी हुए ... उम्मीद मखमली घास का दिलासा लेकर आई जैसे हल्के-से फाहा रख दिया हो खूंरेज चोट पर. जिंदगी जब भी मायूस होकर अंधेरों में गुमनाम होने लगी ...उम्मीद खिड़की के शीशे से छनी धूप लिए  हाथ सहलाती ... जब भी जिंदगी पतझड़ के संग डोलती और बसंत से कटने लगती... उम्मीद रास्तों में फूलों की कतार और तितलियों के झुण्ड बुलवा भेजती ... जब जिंदगी दोस्तों को कोसने और उनसे दूर रहने की साजिशें करती  उम्मीद इनबाक्स में जादू की तरह आकर होठों पर खिलने लगती... जीवन में जब भी उम्मीद  आती हैं जीवन की गाड़ी नीले पंछी की उड़ान सी जाती है जो दिन भर सारा आकाश अपनी कमर पर उठाये उड़ता है उम्मीद जब चली जाती है भाग्य, करम, हताशा, विवषता सगी बहनों से भी सगी हो जाती हैं ..दिल से भी ज्यादा नाज़ुक और स्वाभिमानी है उम्मीद, अकेले ही टूटती और जीती-  मरती है अपने टूटने और बिखरने का स्वयम के अलावा वो किसी को दोष नहीं देती  उम्मीद ने शौक भी तो कैसा पाला, हमेशा जवान रहने का,  वो उन्ही आँखों में, उसी रंग- रूप, उन्ही गुण-दोष के साथ बार - बार जन्म लेने से नहीं थकती। 
 
रिश्तों की घनिष्टता के बीच उम्मीद  सुख के धागे से आखों में सपनों के जाल बुनती...जिस रोज  इंतज़ार के समक्ष वो अपने घुटने टेक देती है और वो उसकी सारी नमी सोख यूकिलिप्टस के पेड़ की तरह बढ़ता नज़र आता है   ... जिस रोज जीर्ण-शीर्ण उम्मीद उस पेड़ पर  लटक कर आत्महत्या करती है उस दिन की तो पूछो मत...एक चलती- फिरती जीवित आत्मा बर्फ की सिल्ली पर रखी लाश से भी बदतर ... फिर भी उम्मीद तुझ में कितनी ताकत है यह किसी गुमशुदा के घरवालों से पूछो... तुझ में ताकत है युद्ध और विनाश के बाद शान्ति और अमन की, खून के सफ़ेद कतरों को लाल करने की, वेंटिलेटर पर मुर्दा देह में प्राण फूंकने की, बोतल में बंद प्रेम पत्र को समुद्र के रास्ते  सही पते पर पंहुचाने की,  माता -पिता के खाली घर में परदेस से लौटकर खिलखिलाहटों से भर जाने की , नितांत अकेले पल बांटने के लिए ज़मी के किसी कोने में दो कानों के होने की, गरीब माता-पिता के सपनों को औलाद की जिंदगी में हकीकत में बदलने की, कांच के टुकड़े हुए दिलों में प्यार के बीज बचाए रखने की, सर्दी में सूख गई तुलसी के बरसात में फिर से हरी होने की... उम्मीद के  कन्धों पर सर टिका आजीवन किसी के इंतज़ार में गुज़ार देने की...
 
जो उम्मीदें पूरी हुई इनका लेखा - जोखा जिन्दगी कहीं रख कर अक्सर भूल गई... जो पूरी नहीं होती उन्हें भूलने नहीं देती...  ना आया कर जिंदगी में उम्मीद.. कितना गहरा गड्ढा दिल पर खुद जाता है जिस रोज़ तू बिना बताये चली जाती है ...अँधेरा...अँधेरा...अँधेरा... फिर किसी रोज मैं आत्मा के दरवाजे खोल, बाहर निकल दूब पर नंगे पाँव रखती हूं...अनायास ही नज़र आकाश की ओर उठ जाती है फिर से उम्मीद पुतलियों में लौट कर, धमनियों में कुलमुलाती है और कंधे फड़फड़ाने लगते है उन पर पिछली बार के घावों का एक भी निशाँ मौजूद नहीं होता...
 
चित्र - गूगल सर्च इंजन से 

Thursday, 14 June 2012

सौ साल बाद भी वो ऐसी ही होगी....


वो फोन पर मेरा नाम तीन बार लेकर इतने जोर से चिल्लाई थी कि रसोई में काम करते हाथों को भी भनक लग गई...... बिना कुछः पूछे और सुने बस बोलती गई... मुझे मालुम था तुम जरूर फोन करोगी, मेरे शहर आओ और मुझसे मिले बिना भले कैसे जा सकती थी ...मैं सभी से पूछ रही थी तुम्हारा अता -पता और ऍफ़ बी ने बैचेन कर दिया जब पता चला तुम शहर में हो... अच्छा तो बताओ कहाँ हो और मैं अभी पहुँचती हूं... ज़रा फोन पकड़ो अपने घर का पता और रास्ता बताओ...मैंने रसोई में काम करते हाथों को फोन पकड़ाते हुए कहा...
उसकी आवाज़ की उर्जा कन्टेजीयस थी कई सौ केलोरी की एनर्जी शरीर के भीतर भर गई , बालकनी में लगे बोगनविला का रंग और सुर्ख हो गया, नीचे वो स्विमिंग पूल में सूरज की किरणों की झिलमिल जैसे पानी नहीं हीरों का तालाब है..उसके आने कि खबर पंखे की आवाज़ में संगीत की भाँती कमरे की दीवारों से टकरा कर गूंजती है ...

ऐसे होने चाहिए चाहने वाले कि नाम लो और मौजूद हो जाएँ.. ना आने की मजबूरियों और व्यस्त दिन का ब्यौरा दिए बिना ... वैसे यह है कौन जो इतनी जोर-जोर से तुम्हारा नाम लेकर फोन पर चिल्ला रही थी.?.. फोन बंद करते हुए हाथो ने पूछा आती होगी मिल लेना ...शब्दों की खिलाड़ी- सचिन तेंदुलकर की टक्कर की, जीवन को बिस्कुट की तरह शब्दों में डुबो कुतर -कुतर खाने वाली , एपाइनटमेंट लेटर और रेसिग्नेशन रेटर साथ लेकर घूमने वाली एक चलती फिरती 3D फिल्म की स्क्रिप्ट है ... संक्षिप्त सा परिचय इस बात के लिए काफी था उसके साथ मुझे अकेला छोड़ दिया जाए ...

उसने बीस मिनट कहा था और मैं पंद्रह मिनट बाद नीचे उतरती हूं नज़र आती है स्कूटर पर एक छोटी सी लड़की, हलके नीले ढीले -ढाले, घुटने तक लम्बे कुरते और नीली जींस में, पढ़ाकू बच्चों वाला काले फ्रेम का मोटा चश्मा लगाए...मुझ पर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा सूरजमुखी सा खिलता है और धूप का रंग फीका नज़र आता है.. जिस घर के रास्ते मुझे खुद नहीं मालुम, इस बड़ी इमारत में बिना खोये उसे भीतर ले आती हूं....
     
वो बोलती जा रही है लगातार...वो उन सबकी बात करती है, जिनको वो पढ़ती है, जो उसको पढ़ते हैं जिनसे वो प्रभावित है, जिनसे वो मिलना चाहती है, जिनके शब्दों से प्यार करती है, उनसे वो अपनी उदासी और ख़ुशी बाँट सकती है जो उसके जीवन का अंग बन चके है.. वो अपने बारे में बात करती है घर के एक कमरे में बिस्तर को यदि अपनी वार्डरोब बना लो कितनी सुविधा होती है कपड़े ढूँढने में... घर संभालना और खाना बनाना हम नहीं सीख पाए... कोशिश कर रहे हैं... हमारा प्राईम टाइम है बालों को शेम्पू करते हुए ... लिखने के बेहतर से बेहतर ख्याल आते है बाल धोते हुए ...घर का ताला लगाते समय दिमाग में कुछः कोंधा...तो बस हमे लेपटाप के सिवा कुछः प्यारा नहीं ... गुस्सा कम आता है हमे... पर जब आया कई मोबाइल तोड़े पर अब समझदार हो गए हैं मोबाइल भी तो महगें हो गए हैं उस पर आई फोन ... इसलिय कोने में वाशिंग बास्केट रख ली है बेचारा फोन दिवार ओर फर्श की मार से बच जाए... पता नहीं क्यों कुछः लोग जो उससे पहली बार मिलते हैं सबसे पहले यही पूछते हैं क्या तुम सिगरेट पीती हो?

वो फोन घुमाती है जानना चाहोगे किस के पास बैठी हूं... बात करोगे? शायद फोन के दूसरी तरफ वाली आवाज़ मेरी असहजता को भांप लेती है और ना कर देती है फोन बंद करते हुए उसकी मुस्कराहट में छुपी हेरानगी को नज़रंदाज़ करते हुए मैं राहत की सांस लेती हूँ ...

अपनी गर्दन घुमाए, उसके साथ राईट एंगल पर बैठी... हूँ! ...हाँ!...अच्छा!...के झांसे में फंसाए मैं उसे सुनती कम और उसके बारे में सोचती ज्यादा हूं...मेरा पुराना घिसा हुआ दीमाग अपने ढर्रे पर लगा है और उसके आने वाले पलों में झाँकने की कोशिश कर रहा है उसकी सनसनीखेज़, खूबसूरत बातों पर कम, चश्मे के पीछे पुतलियों में नाचती जिंदगी की अनोखी मुद्राओं पर फोकस करने में लगा है, मैं अभी तक बलि पर चढ़ने वाली बकरियों से वाकिफ रही हूँ और आज यह कहाँ से जंगल की शेरनी मेट्रो सिटी में... वो किस कदर जीवित है वो कितनी स्वतंत्र है, उन्मुख है निडर है... उसके भीतर की लेखिका और लड़की पर अभी पत्नी और गृहणी ने अपना साम्राज्य स्थापित नहीं किया है दफ्तर और घर के काम के तनाव ने जिसके बालों की जड़ों पर धावा नहीं बोला है, किचन की वर्क टाप और घर के फर्नीचर ने उसके हाथ-पाँव को अभी कठपुतली नहीं बनाया है, नापी बदलने और दूध नापने जैसे सुकर्मो से जो अभी अछूती है प्यार को कितनी लापरवाही से अपने आसपास खरपतवार की तरह उगा रखा है और दुनिया को बांटती उसे रोबिन हुड की तरह है .. एक समय में कई लोगों को प्यार किया जा सकता है यह तो मालुम है पर उन्हे खुश भी रखा जा सकता है यह रहस्य बस उसी को मालुम है ... एक समय में इतने लोगों को इतनी शिद्दत से प्यार करना और फिर जिसके साथ जीवन भर का नाता है उसे सूरज बना उसकी प्रथ्वी बने रहना, यह सब इतनी सहजता और सोम्यता से करना कि संवेदनाएं और शब्दों के लिए नए रास्ते मुकम्मल होते रहें और अजनबी से इतनी इमानदारी की इमानदारी खुद से लज्जित हो जाए...ऐसी बात नहीं अँधेरा उसकी जिंदगी में नहीं आता पर अंधेरों में रौशनी चिराग कैसे जलाते हैं यह कला उसने पेंटेंट कर ली है कई अन्घेरों को एक साथ घिसो कि वो बिजली घर बन जाए ...

क्या वह दस वर्ष बाद भी ऐसी होगी? मैं अपने आप से बार-बार यही सवाल करती हूं अनुभव कहता है नहीं और मेरी अंतरात्मा बार - बार क्योँ नहीं!...तीन घंटे बिना टी ब्रेक के उसे सुनने के बाद मुझे यकीन आ ही गया वो सौ साल बाद भी ऐसी ही होगी!!
 
(उससे क्षमा मांगते हुए जिसकी निजी मुलाक़ात की गुफ्तगू को इजाज़त लिए बिना अपनी बैठक की दिवार पर चिपका दिया  ... )

Tuesday, 20 March 2012

जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है?


सुख हाथों की पहुँच से दूर नहीं हुआ करता था... दाल में नमक की तरह सुख का स्वाद दिन में कम से कम एक- दो बार तो आ ही जाता... जिंदगी के रंगों से भरपूर .. सुख मामूली चीज़ों में गैर मामूली चमत्कार की तरह मौजूद होता ... लाल रीफिल का पेन ना हुआ अलादीन का चिराग हुआ... छोटे भाई ने यदि ले लिया उसकी जान सूखने लगती ... यह मेरी सारी स्याही खर्च कर देगा... वो बची कापियां भरती रहती फिर पन्नो पर लाल टिक लगाने का सुख, नंबर देने का सुख, अपना नाम लाल स्याही में लिखने का सुख... आज बुधवार है साढ़े आठ हो गए हैं... दिल में धुकधुकी... चित्रहार का समय हुआ जाता है... मेरे साथ चल ना पड़ोस में... अकेले शर्म आती है... वो लाल पेन दो मुझे अपना..मरते दिल से एक सुख के बदले दुसरा उसके हवाले .... सरकारी मकान के छोटे से कमरे में ठन्डे फर्श पर बैठ कर दूरदर्शन ज़न्नत की सैर करा देता ... फिर स्कूल में चित्रहार पर चर्चा ...ना देखती तो इस सुख से वंचित रह जाती ना... वो मीठा चूरन और आम पापड़ बेचने वाला, बंद गेट पर पाँव उठा भीड़ में उचक कर... चीभ पर रखो और चटकारे लेने का सुख... बाटा के नए जुते आगे से नोक वाले पीछे से डेढ़ इंच एडी वाले, उन पर सजी वेलवेट की छोटी सी एक बो टाई,  सुबह पहनने के सुख से लबालब बेहद खुशनुमा रात गुजारने का सुख ...पहली बार तवे पर जले- भुने दुनिया के नक़्शे पापा को खिलाने पर फूल कर गुब्बारा हो जाने का सुख, मां वो रोज बरामदे में खड़ा घूरता है .. इस शिकायत का सुख... जिस दिन वो नहीं दिखता सुख उसे ढूंढता है ...

कालेज के हास्टल में, गैर इजाज़त, सर्दी की रात में हीटर पर चाय बनाने का सुख... तुमने धुयाँ उड़ाने का सुख अभी तक नहीं लिया.. लो आज कोशिश तो करो ...... खों... खों...खों..खों... खिड़कियाँ खोलो...दम घुटता है... वार्डन के आफिस के बाहर पिजन होल में नीले लिफ़ाफ़े में बंद सुख... हर सप्ताह तेरे पापा इतना लम्बे ख़त में क्या लिखते है... आँखों में बल्ब की तरह टिमटिमाता सुख.. मां के ब्लाउज को सेफ्टी पिन से कस पहली बार साड़ी पहनने का सुख ... किसी अनजान का हास्टल के गेट पर आ धमकने, चौकीदार से झूठ बोल, उसकी हसरतों की धज्जियाँ उड़ा, सहेलियों के साथ लोटपोट होने का सुख... कालेज सोशल में शाही खाना खाने के बाद , मजनुओं को चकमा दे चौपट हो जाने का सुख... होली वाले दिन हसीनो को पानी से भरे गढे में मिट्टी की साबुन से नहाते देखने का सुख... जनपथ से कौड़ी के भाव खरीदे डिज़ाईनर कपड़े पहनने का सुख, मेस के बावर्ची से आटे, दाल सब्जी की खस्ता हालत पर नोक- झोंक करने सुख... गर्मियों की छुट्टियों में घर लौटने का सुख...मोहल्ले में मां के साथ देख, जानी -अनजानी आँखों में कोतुहल नाचता देखने का सुख , पड़ोस के घर में लम्बा उंचा मेहमान .... बहनजी देवर कह रहा था... भाभी पड़ोस में जानी -पहचानी अच्छी सुशील - सुंदर लड़की थी आपने कभी जिक्र भी नहीं किया...किसी अनजान का अनजाने में दिया हमेशा याद रहने वाला सुख...लोगों की भीड़ में, परदेसी से मुलाक़ात और उसकी आँखों में रात की नींद खो देने का सुख....उसी पल उसके साथ जिंदगी गुजारने का फैसला लेने का सुख...

नन्ही सी जान को नींद में कुनमुनाते -मुस्कुराते देख सातों धाम घूम आने का सुख, पहली कमाई से उसकी मां के लिए सोने के बुँदे खरीदने का सुख, सड़क पर हवा से तेज़ भागती आत्मनिर्भरता का सुख, तिनका-तिनका जोड़ कर बसाए आशियाने में स्टूल पर विराजमान ताजे फूलों की महक का सुख, उसकी तरक्की पर सारे आर्थिक संकट दूर हो जाने सुख, दाल में खूब सारा घी डाल घर आये भाई को गर्म फुल्का खिलाने का सुख, फोन पर मां की आवाज़ सुन सभी गम भुलाने का सुख, अंगुली पकड़ कर चलने वाली का उसके पैरों पर खड़े हो जाने का सुख... परिंदों का छत पर डबल रोटी के टुकड़े बाँट कर खाते देखने का सुख, मौसम की पहली बर्फ से बने स्नोमेन को धारीदार टोपी पहनाने का सुख, एकांत से लिपट कर खुद को ढूंढ लाने का सुख,  चाँद से उतर प्यार का दबे पाँव दिल में दाखिल हो अपना साम्राज्य घोषित करने का सुख, बारिश का खिड़की से धूल साफ़ कर आसमा नजदीक लाने का सुख, खुद को हल्का करने के लिए शब्दों से मिले सहारे का सुख, कच्चे -पक्के शब्दों पर बनवास में धरती के उस छोर से मिली बेशकीमती वाह-वाही का सुख ....
 
सुख सिर्फ उस पल का वफादार है जीवन भर का नहीं...वो उम्र के दौर से होकर जिंदगी से गुजर जाएगा ... इन्द्रियों से बुखार की तरह उतर जाएगा है वो दराज में बंद पड़ा किनारों और कोनो से घिस जाएगा...यादों के तहखानो में जंग की तरह खुरदरा हो जाएगा .. मानसून की तरह आकर पतझड़ की तरह झड़ जाएगा... जब कभी लौट कर दस्तक देगा यदि पहले जी लिया होगा तो ज़हन को झंझोरे बिना, आँखों को चुन्धियाये बिना, रगों में दोड़े बिना, होंठों पर सजे बिना, हाथ मिलाये बिना सामने से निकल जाएगा... एक समय आयेगा आँखे सुख को पहचान नहीं पाएंगी और सुख और दुःख की शक्ल एक लगने लगेगी ... मुक्ति का सुख खुली मुठ्ठी में बंद होगा ...सब सुखों के मिट जाने के बाद बस जीवित रहा ... शब्दों के सागर से मोती चुनने का सुख...