Friday, 30 July 2010

आज थेंक यू कहने के लिए नीली आँखों वाली पास नहीं है...


बशीरा ने नज़रें उठाई और बस स्टाप के अन्दर लगे स्क्रीन पर झांका, जो पिछले पंद्रह मिनट से बता रहा है कि छत्तीस नंबर बस तीन मिनट में आ रही है, पुश चेयर में बंधे साजिद और जावेद, पलट -पलट कर उसकी और देख, हाथ उठा बेल्ट से मुक्त होने को मचल रहे हैं, पुश चेयर के नीचे टोकरी में दो बड़े प्लास्टिक के शापिंग बैग हैं एक में चार छोटी- छोटी टी शर्ट हैं, दो कार्डराय की पैंट हैं दुसरे थैले में उनके नए जूते और तीन - तीन जोड़ी नयी जुराबें... उसके कंधे पर पर्स नुमा बड़ा बेग... जिसमें पड़ी पानी, दूध की बोतल अपना भार कंधे को प्रत्येक क्षण तुलवा रही थी..हाई स्ट्रीट में उसके पास से गुजरते लोगों की आँखों में छिपा परायापन जो आँखें मिलते ही आँखों से बाहर आ जाता है यहाँ बस स्टाप पर उसके पास लाइन में आकर खड़ा हो गया है जिसने बस का इंतज़ार और लंबा कर दिया ... उसे लगता है उसका सारा वजूद और पहचान उसके सर पर बंधे एक मीटर कपड़े में है वो समझ सकती है चार दिवारी के बाहर सूरज और हवा को एतराज़ है वह उसके बालोंऔर बालों में लगी क्लिप को कभी छू नहीं पाए.. किन्तु आस पास खड़ी परछाइयाँ क्यों चश्मा बदल -बदल कर देखते है एक चश्मा कहता है बेचारी को रोज़ पीटता है, दुसरा दो बच्चे पुश चेयर में हैं चार स्कूल में होंगे, तीसरा बस में इसके पास वाली सीट ना मिले लहुसन की बदबू बर्दाश्त नहीं होती, चौथा सरकारी खजाने पर परिवार ऐश करता है, पति बेरोजगार है या टेक्सी चलाता है और टेक्स चुराता है,पांचवा इन्हें सरकार वापस क्यों नहीं भेज देती, छटा लिबास के भीतर छाती का भार और आकार नाप चुका है...

बड़ा सोच समझ कर घर से निकली थी... आसमान साफ़ है हवा में सब्र है हाई स्ट्रीट में सेल लगी है... दो घंटे में, दो बच्चों के साथ, दो बड़ी दुकानों में जाकर ही उसके हाथ- पाँव, कंधे और सब्र सभी ने जवाब दे दिया था .... घर से खिला - पिला कर लाइ थी... आते हुए बस में सो गए थे और सोते रहे.. लौटने के समय जागे है... बस स्टाप के भीतर, बिल बोर्ड पर बदलते पोस्टर्स को दोनों बड़े ध्यान से देख रहे हैं .. बस स्टाप अब बारह - पंद्रह लोग है सभी बूढ़े लाइन में हैं और जवान लाइन से बाहर ... यदि बस स्क्रीन पर बताये समय पर आ गई होती तो अब तक वह घर में होती... तभी उसने देखा एक नीली आखों वाली डबल पुश चेयर को धकेलती हुई लाइन में पीछे आकर खड़ी हो गई, उसकी घुटनों तक लम्बी काली स्किर्ट पर उसकी नज़र गई,जो उसकी स्किर्ट से थोड़ी ही ऊँची है यह राज़ सिर्फ बशीरा को मालुम है.. दोनों की निगाह एक दुसरे की पुश चेयर पर है जिसका मेक एक है, डिजाइन और साइज़ एक है, बच्चों का जुडवा और उनकी उम्र बराबर होना एक है और पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफ़र करने का संघर्ष एक है इन सभी समानता को आखों ही आखों में दर्ज करती चार आँखे मुस्कुराई ...

तभी छत्तीस नम्बर बस आ गई.. तीन लोग जो लाइन में आगे थे उनके चढ़ने के बाद बशीरा ने पुश चेयर आगे धकेली..
"तुम वहीं रुको यह पुश चेयर बड़ी है अन्दर नहीं आ सकती.." ड्राइवर ने सीट बैठे हुए हाथ बढ़ा कर रोकते हुए कहा..
"लेकिन यह तो आ रही है..." बशीरा पुश चेयर के अगले पहीये उठा बस के पायदान पर लगाने को थी...
"नहीं यह इस तरह नहीं आ सकती ..." ड्राइवर सीट से उठ कर बस के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया...
बशीरा अपने से पीछे अन्य यात्री को रास्ता देती हुई बस के दरवाज़े की बगल में सरक गई ... साजिद और जावेद को बेल्ट से मुक्त किया .. उन्हे फूटपाथ पर खड़ा कर ...पुश चेयर के दोनों हत्थों को क्लिक करके बंद किया..
सबसे बाद में नीली आँखों वाली जुड़वां बच्चों को पुश चेयर में धकेलती आई और पुश चेयर के अगले पहिये उठा दोनों बच्चों सहित बस के अन्दर चली गई... वह पुश चेयर को बच्चों सहित अन्दर छोड़ बाहर निकली...उसने जावेद को गोद में लिया... साजिद बशीरा की गोदी में था... बशीरा ने हत्थों से और नीली आखों ने पहियों की तरफ से उठा कर पुश चेयर को बस में लाकर खोला और सलीम और जावेद को उसमें बैठा दिया ...दोनों के माथे पर पसीना चमक रहा था ... ड्राइवर टिकट देने के लिए बशीरा का इंतज़ार कर रहा था...

बशीरा ने नीली आँखों वाली को ना जाने कितनी बार थेंक यू कहा...वो दोनों पुश चेयर खड़ी करने वाली जगह के सामने खाली सीट पर बैठ गई....

"तुम कुछः करोंगी नहीं?" नीली आँखों वाली ने बशीरा से कहा..

"क्या मतलब?.." बशीरा ने आखें गोल करते हुए कहा...
"जाओ ड्राइवर का नाम पूछ कर आओ..." बशीरा को अब कुछः -कुछः समझ आने लगा ... वह अपनी सीट से उठी, हेंडल पकड़ झूलती हुई आगे बढ़ी... ड्राइवर ने नाम देने में आनाकानी की... और एक बहस के बाद अपना नाम दे दिया...

"तुम्हारे पास कागज़ और पेन है?" नीली आँखों वाली ने पूछा...
बशीरा ने बेग टटोला और पिछले महीने का हास्पिटल अपाइंटमेंट लेटर निकाला.. इतनी देर में नीली आखों वाली ने पिछली सीट से पेन का इंतजाम कर लिया.. .

"चलो लिखो तुम्हारे साथ क्या हुआ... " नीली आँखों वाली ने लेटर को उलट कर मुड़े -तुड़े पन्ने को अपने पर्स पर रख लिखने का सहारा दिया... बशीरा ने जल्दी - जल्दी आठ लाइने लिखी...
"जाओ बस में बैठे लोगों से .. इस कागज़ पर हस्ताक्षर लो.. मैं बच्चों पर नज़र रखती हूं .."
बशीरा एक-एक कर सभी के पास गई... किसी ने कहा मैंने कुछः नहीं देखा और किसी ने देख कर भी हस्ताक्षर देने से इनकार किया ... और कुछः को हस्ताक्षर देने के लिए आठ लाइने पढ़ने की ज़रुरत महसूस नहीं हुई...बशीरा अपनी सीट पर लौटी तो नीली आँखों वाली ने अपने हस्ताक्षर किये... आई फोन से उसने पता ढूंढ लिया था नीचे लिख दिया...
बशीरा का बस स्टाप आ गया और वह उस कागज़ को अपने बेग में समेट नीली आँखों वाली का थेंक यू करती रही.. पुश चेयर को धकेलती बस से उतर गई...

एक सप्ताह बाद बशीरा के नाम ख़त आया ... ट्रांसपोर्ट ऑथोरिटी ने उसकी शिकायत दर्ज कर ली है और तहकीकात शुरू हो गई है... इस तहकीकात के परिणाम के बारे में उसे छ सप्ताह बाद सूचित किया जाएगा...

बशीरा को परिणाम और तहकीकात से कुछः ज्यादा उम्मीदें नहीं थी ... लेकिन अपने भीतर के विश्वास और एकता की ताकत से मिलने के बाद आईने ने उसकी शक्ल बदल दी ... इस दुनिया में वह अकेली नहीं है उसका संघर्ष भी अकेला नहीं है ... नीली आँखों वाली का चेहरा अक्सर उसे आईने में नज़र आता ... वह सोचती उसने उसका नाम और फोन नंबर भी नहीं पूछा....

आठवें सप्ताह के मध्य में उसे पत्र मिला ... ट्रांसपोर्ट ऑथोरिटी उसके साथ हुए सलूक के लिए क्षमा चाहती है, ड्राइवर पर नस्ली भेदभाव और लिंग भेदभाव का गुनाह साफ़ साबित होता है ऐसा कर्मचारी ट्रांसपोर्ट ऑथोरिटी की नौकरी के लिए अनुपयुक्त है और ऐसे लोगों को समक्ष लाने के लिए ट्रांसपोर्ट ऑथोरिटी उसका धन्यवाद करती है...

आज थेंक यू कहने के लिए नीली आँखों वाली पास नहीं है... वह एक क्रान्ति और शक्ति की तरह हमेशा उसके भीतर रहेगी और सही वक्त पर, सही जगह पर, स्त्री के अधिकारों के लिए, अन्नाय के विरुद्ध उसकी आवाज़ बन कर...

फोटो गूगल सर्च इंजन से

Sunday, 20 June 2010

तुम कैसे पिता हो?

जन्म पर


दादी ने मुह छुपाया,


मौसम ने आँख दिखाई,


गर्भ से बरसों पूर्व


"गुप्त" की किताब से


पापा ने दे दिया


बिटिया को नाम






गुड़िया नहीं लाये,


माला नहीं लाये,


सफ़ेद, नेवी ब्लू सिलवटें मिटाने,


सिंड्रेला के जूते चमकाने,


कापी पर जिल्द चढ़ाने,


मच्छरों के यमराज बन,


पापा घर जल्दी आये,






थके कन्धों पर झूलता,


खाकी थले से झांकता,


किताबों के पन्नो पर,


लाया काबुलीवाला


एक नया आकाश सुनहला,






नहीं समझाए घोंसले के कायदे क़ानून,


नहीं दिखाए गलतियों को तेवर,


नहीं खींची रीती-रिवाजों की लक्ष्मण रेखा,


नहीं बने जवान पाँव के दरबान,


नहीं पूछा "वो कौन" सड़क पर मिला था,


नहीं डराया यौवन को अँधेरे और अकेले से,


नहीं चुनी सपनों के लिए पगडण्डी और उड़ान,


नहीं लगाई पंखों पर डाक्टर, इंजिनियर, आई ऐ एस की मुहर,


पापा! तुम कैसे पिता हो?



विदा के समय


बिलख-बिलख रोता बालक,


निर्णायक पलों, फैसलों में मेरे


विश्वास की चादर ओढ़


एक मूक गवाह हो ...

Friday, 11 June 2010

यह कैसा स्पंदन है... यह कैसी अनुभूति है... यह कैसा भय है...

वो बचती फिरती थी सौरभ से... जैसे राहगीर बचते है रास्ते में आ जाने वाली बिल्ली से... दो कमरों के सरकारी क्वाटर में रोज आने वाले मेहमान से कितना बचा जा सकता है.. पिछले दो बरस से शाम को उसका घर आना उसी तरह निश्चित था, जैसे शाम को सूरज का छिपना, सुबह को सभी के नलों में ताज़ा पानी आना, दिन में फेरी वालों का आवाज़ लगाना, दोपहर में दो घंटे बिजली का चले जाना, रात को चौकीदार ने डंडे खडखडाना... शाम के छ बजते ही सीढ़ियों में धूल को रगड़ती उसकी चमड़े की चप्पल, वातावरण का स्वाद बदलती एक कर्कश ध्वनि ... जिसे दिव्या अपने कानों में कम दांतों के बीच अधिक महसूस करती , वह घर के किसी भी कोने में हो यह आवाज़ सौरभ के आने का ऐलान करती उसके कानो और मुह में किरकिराहट लेकर रोज़ पहुँच जाया करती... वह दरवाज़ा खोलने के बजाए... उससे बचने के लिए कहीं और पनाह लेने के लिए उठ जाती, फिर भी कितनी कोशिश करे आमना -सामना हो ही जाता... मां को भी आदत थी उसी को आवाज़ लगाती " दिव्या पानी तो लाना सौरभ का गला सूख गया होगा... "अब जरा चाय ले आ..." अँधेरी रसोई में उसे बत्ती जला कर जाने में भय खाता था...अँधेरे में बाहर पिकनिक करते मकोड़े और झींगुर को छिप जाने का अवसर प्रदान करने लिए वो अक्सर बत्ती जलाकर, आँखें मीच कुछ देर दरवाज़े पर खड़ी रहती ... पानी का ग्लास लेकर रसोई से ऐसे भागती, जैसे सभी झींगुर रसोई छोड़ उसके पीछे दौड़ेंगे ... उसका भयभीत चेहरा देख वह समझ जाता... " देखो यह डाक्टर बनेंगी ... कीड़े को देख बेहोश होने को हैं..." उसका यह कटाक्ष, उसके आत्मविश्वास को लहुलुहान करने को काफी था और सौरभ के होंठों की मुस्कराहट, उसके आँखों में अंगारों को दहकाने का इंधन बनती.... उन अंगारों पर पलकों की ठंडी चादर थी इसलिए उन अंगारों को कभी कोई देख नहीं पाया ... वह आँखे नीची किये सौरभ की ओर देखे बिना, पानी का ग्लास मेज पर टिका, उसी तेज़ी से कमरे से निकलती जितनी तेज़ी से वह रसोई से निकली थी... सौरभ की आवाज़ उसे पकड़ने पीछे भागती "अरे रुको तो मुझे एक ग्लास पानी और चाहिए.."

वो दीपा दीदी को घंटो पढ़ाते नहीं थकता.... दीपा दीदी बी एस सी कर रही थी और शायद उनका दिल सभी से छुप कर सौरभ से प्रेम, यह बात उन्होंने कभी नहीं बताई .... . दीदी का गोरा रंग, गोल चेहरा, मोटी-मोटी आँखे , तीर कमान सी भवें , पंखुड़ी जैसे होंठ ... सौरभ के आने से पहले आईने से गिफ्त्गु करते .... और आईने की तो आदत है उसके पेट में कोई बात नहीं पचती ...उसी ने चुगली की थी ... उसे पूरी तरह यकीन नहीं हुआ था और ना ही उसने दीदी से पूछने की हिम्मत की जबकि वह उससे सिर्फ दो साल ही बड़ी थी.. अक्सर वह सोचा करती काश उसका भी चेहरा दीदी जैसा होता, आईने को भी उससे प्यार होता...

सौरभ इलेक्ट्रानिक इन्जिनीरिंग के फाइनल इयर में था और जब देखो वह दीदी, माँ और पिताजी के सामने आई आई टी में होने का बिगुल बजाने लगता ... और दिव्या हर सत्रह वर्षीय छात्र की तरह, बारहवी क्लास में अच्छे नंबर के साथ, डाक्टरी में दाखला मिलने की लाटरी निकल जाने के सपने देख रही थी, उस सब में सबसे अधिक आड़े आती थी ... रोज़ - रोज़ आने वाले मेहमान की खिदमत ... दीपा दीदी को वह केमेस्ट्री पढ़ाता, वो भी मुफ्त क्योंकि उसकी मां और मां सहेली थी... बहुतसे काम साथ-साथ करती... जैसे स्वेटर बुनना, कचरी -पापड़ बनाना, सब्जी खरीदने जाना और मंदिर जाना.. जब उसका मन चाहता बिना उसे सतर्क किये लगे हाथों उसे भी अपने किताबी ज्ञान के पंजों से दबोच लेता ....ज़रा इंटर मोलिक्यूलर फोर्सीज़ के नाम गिनाना? .... उसकी जुबान वहीं फ्रीज़, खुलती तो कभी हकलाने तो कभी तुतलाने लगती .... जानते हुए भी घबराहट में जवाब हमेशा गलत निकलता .. जवाब सुनते ही उसको तोप का निशाना बनाया जाता .. "तुम्हारी जगह लड़का होता तो मैं उसे पंखे पर उलटा लटका देता..." दिव्या की आखों में चिंगारियों तैरती उन्हे बुझाने के लिए वह चुपचाप दुसरे कमरे में चारपाई पर औंधी लेट आंसू बहाती.... मां हमेशा उसकी तरफदारी करती "तेरा भला चाहता है तभी तो पूछता है..." किताब लेकर उसके पास बैठा कर...नंबर अच्छे आयेंगे... "मुझे फेल होना मजूर है उससे पढ़ना नहीं... " वह मन ही मन बुदबुदाती हुई कमरे से बाहर निकल छत पर पनाह लेती...और तब तक नीचे नहीं उतरती जब तक वो घर से ना चला गया हो... जिस दिन सौरभ का मन पढ़ाने का नहीं होता वह झक मारता माँ और पिताजी से... कभी राजनीति पर, तो कभी वेदों पर, कभी मार्क्स वादिता पर, कभी जातिवाद, कभी समाजवाद, कभी चेतन्य महा प्रभु , कभी हिंदी साहित्य ... इतवार का दिन खुशगवार गुज़रता उस दिन वह कभी घर नहीं आया..

"अरे! दिव्या तुम्हें बालों से दुश्मनी थी या अपनेआप से ... पर कटा कर बिलकुल मुंडी भेड़ दीखती हो"... कमरे में बैठे सभी हंस पड़े... वो दनदनाती हुई कमरे से निकली बिना बत्ती जलाए और बिना छ्पकलियों की परवाह किये भाग कर छत की सीढियां चढ़ गई ... एकादशी के चाँद, मई की गर्म हवा, जंग लगे कपड़े सुखाने वाले तार को पार कर ...पानी की टंकी की ओट में, सफेदी लगी मुंडेर पर, फुर्सत से रोने बैठ गई और आँखों से बहते पानी को अपने दुपट्टे से नहीं पैरों के नीचे प्यासी इंटों को सोखने दिया ... दीदी उसे मनाने आई थी यह कह कर कि वो चला गया है नीचे उतरी तो वह दरवाज़े पर खड़ा, माता -पिता से विदा ले रहा था... और उसे देखते ही बोला "दे आई छत पर मच्छरों को दावत?... " दिव्या ने जल्दी से कोहनी को बेरहमी से खुजलाते अपने नाखुनो को अलग किया ..... "आंटी आपकी बेटी गूंगी है क्या?" फिर सब ज़ोरों से हंस दिए ... वो कमरे की तरफ मुड़ी और सौरभ की आवाज़ ने दिव्या का पीछा किया ... "अरे! बचो! .. सफ़ेद भूत से चिपट कर आ रही हैं " दिव्या ने गर्दन घुमा कर देखा .. जान कर भी अपने उनाबी कुरते से सफेदी झाड़ने की ज़रूरत महसूस नहीं की.. रुके हुए आंसुओं को रफ़्तार देती हुई तेज़ी से कमरे के भीतर घुस गई...

आजकल वह अक्सर लड़कियों की फोटो लेकर आता है "देखो आंटी यह कैसी लगती है... दीपा तुम बताना ज़रा?" माँ आँख, नाक, रंग, कद का निरिक्षण कर अपनी राय दिया करती और दीदी "अच्छी है..." कह कर किताब पर नज़र गड़ा लेती ... आजकल आईने ने चुगली करनी बंद कर दी है और अब तो उसे भी यकीन हो गया है वह सिर्फ चुगली कर रहा था .. आजकल दीपा दीदी किसी ना किसी बहाने शाम को पड़ोस की आंटी के यहाँ अपनी सहेली से मिलने चली जाती है .. इन दिनों आईने से हट कर दीदी को बालकनी में खड़े देखा है... सामने कोई नया आया है... दिव्या उसे स्कूल जाते हुए रोज़ सुबह मोटर साइकल से जाते हुए देखती है ..उसे अनदेखा करती हुई सामने से निकल जाती है वह शाम को अपनी बालकनी से दीदी को देखता है ...नहीं वो दोनों एक दुसरे को देखते हैं ...
सौरभ मिठाई का डिब्बा लेकर आया है उसने इंजीनियरिंग पास कर ली है और उसकी नौकरी लग गई है... माँ सब्जी लेने गई है, दीदी पड़ौस में, पिता दौरे पर और वह भूल गई थी आज इतवार नहीं है... वो सोच रही थी सौरभ दरवाज़े से ही लौट जाएगा... लेकिन ऐसा नहीं हुआ...
"यह क्या पढ़ रही हो ..." सौरभ ने भीतर घुसते हुए पूछा..
उसने आँखे नीची किये किताब उसके हाथ में थमा दी..
"अच्छा तो तुममे भावनाये हैं... " वह मैला आँचल के पेज पलटते हुए बोला ...किताब मेज पर रख कुर्सी पर बैठते हुए ट्रीग्नोमेट्री की खुली किताब देख कर बोला ..
"चलो तुम्हारी ट्रीग्नोमेट्री टेस्ट करता हूं " फ़टाफ़ट उसने अपने साथ वाली कुर्सी खींच दी..
दिव्या के सर के एंटिना खड़े हो गए ... किन्तु वह एक कबूतर की तरह आँखे बंद किये उसके बगल की कुर्सी पर जा बैठी... सौरभ ने उससे कुछः नहीं पूछा और वह उसकी कापी में लिखे सवालों का हल धर्य और धीरे से उसे समझाने लगा..बीच - बीच में जब भी उससे पूछता "समझ आया ...?" वो आँखे नीची किये सर हिला देती ...
सौरभ की नज़र मेज़ पर पड़े लिफ़ाफ़े पर गई "यह यहाँ रह गया था ...मैं इसे घर में ढूंढ रहा था..." और उसने लिफ़ाफ़े से फोटो निकाल उसके सामने रख दी और पूछा ... " कैसी लगी तुम्हें? "
उसने कुछः क्षण फोटो पर नज़रें टिकाई और धीरे से बोली ... "बहुत सुंदर है..." फोटो में कोई वाकई दीदी से भी ज्यादा सुंदर थी..
" पर तुम्हारे जैसी नहीं है..."
"मतलब? " बोलना चाहती थी लेकिन जीभ तालुओं पर चिपक गई ..पेरों के नीचे की ज़मीन हिलने लगी .. वह एकदम घबरा गई जैसे अपने जीवन का सबसे बड़ा गुनाह करने जा रही हो ...
वो कापी पर लकीरें खींच रहा था, एक घर जैसा आकार बनाने की कोशिश में जुटा था.. पन्ने को दिव्या के सम्मुख कर बोला "तुम्हारे सिवा मैंने इस घर में किसी और की कल्पना भी नहीं की है....मैं तुम्हारे डाक्टर बनने का इंतज़ार करूंगा .. "
दिव्या की मुठ्ठियाँ भींच गई थी, चेहरे पर रक्त की गुलाबी पसीने के साथ चमकने लगी... उसने अपना पूरा जोर लगा गर्दन हलकी सी ऊपर उठाई, आँखों से पलकों के परदे उठा दिव्या ने सौरभ की तरफ देखा ...
"तुमने कभी मुझे आँख उठा कर नहीं देखा और इस पल की प्रतीक्षा में मैं दो वर्ष से तुम्हारे घर आ रहा हूं ... " सौरभ ने दिव्या की आँखों में झांकते हुए कहा ....
वह कापी का पन्ना फाड़ ... उसे अपनी जेब में डालकर, कुर्सी छोड़ खड़ा हो गया...
"मैं चलता हूँ दरवाज़ा बंद कर लो" और जीना उतर गया...

धरकनो की आवाज़ ने उसे बहरा कर दिया, खून रगों में नदी पर टूटे बाँध की तरह दौड़ रहा है वो स्तब्ध है, अवचेतन है, उसकी सोई इन्त्रियाँ अचानक संचार पाकर चेतन हो उठी हैं ... भीतर- बाहर सब जगह उथल-पुथल है ...वह हवा के वेग से आगे उड़ रही है नहीं वह सागर की लहरों पर फिसल रही है नहीं वह धरती में धंस रही है ... यह कैसा स्पंदन है? यह कैसी अनुभूति है? यह कैसा भय है?

आने वाले वर्षों के लिए सौरभ ने दिव्या से कुछः माँगा ... "मेरे लिए पानी लाओ तो एक घूँट पीकर ग्लास थमाना ..." वह सबके सामने स्टील के ग्लास का मुह घुमाता और जहाँ दिव्या के होठों को छु पानी की बूंद चिपकी होती उसपर अपने होंठ लगा धीरे -धीरे उस अमृत को भीतर उड़ेलता ... जिस दिन उसे ग्लास पर चिपकी बूंद नहीं मिलती वह दिव्या से दोबारा पानी मंगाता ..

धीरे-धीरे पलकों के परदे उठ गए ओर उनकी जगह सौरभ की आहट का इंतज़ार दिव्या की आँखों में पसरने लगा...
पेंटिंग-गूगल सर्च इंजन से..  

Wednesday, 28 April 2010

फोन कुछ पलों के लिए गुंगा हो गया.....

हज़ारों मील दूर जिस ज़मीन के टुकड़े का विस्तार और मिट्टी का रंग भी याद नहीं उस पर सोने की बालियाँ उगी नज़र आती हैं... जिस बाग़ के पेड़ों के फल का स्वाद जुबान से घीसे पत्थर की तरह उतर चुका है उसकी रखवाली के लिए हर साल बागवान बदला जाता है शायद नया बागवान आठ हज़ार मील दूर आम का टोकरा लिए दरवाज़े पर आवाज़ लगाएगा..मेढ़ पर बिना लगाये कितना बथुए का साग उतरता था यह जरूर उसे बेचते होंगे... और वो मोड़ की ज़मीन सड़क से लगती है उस पर किससे पूछ कर काँटा लगवा बुग्गियों की लाइन लगी रहती है और फिर भी उनकी जेब खाली रहती है... दीवारों से उखड़ा हुआ प्लास्टर, छत में दरार पड़ी कड़ी ठीक नहीं करा सकते... नल का हत्था पिछले आठ साल से टूटा है... यह बेंत की कुर्सी मां के दहेज़ की, तार -तार हुई पड़ी है मां की आत्मा को कितना कष्ट होता होगा, पिछली बार भी कहा था बुनवा लो... पिछले सोलह साल से कोई हिसाब नहीं दिया, कई लाख निकलते होंगे.. बेटिया जवान होने से पहले ही बूढी नज़र आती है कम से कम उन्हे ही ब्याह दें...कुरते पजामे का वही बरसों पुराना मटमैला रंग जिसे याद भी नहीं वो कभी सफेद था.. नाख़ून में कालिख भरी अँगुलियों में पांच सौ पचपन की बीड़ी और गले से वही खों - खों...

दीवारों की परछाई, छत के कबूतर, खम्बे पर अटकी पतंग, पड़ौस  के बैल, ताई की गालिया, सड़क पर आवारा कुते , घेर में वो हुक्के की आवाज़ बिना नज़र उठाए पहचान लेते थे और अब नयी सड़क ही नहीं, घर की पुरानी इंट भी नाम पूछती है और इस घर की इंटों में वो जिंदगी बसी है जो वहां रहते लाचार लगती थी और परदेस रहते आपार... कोई घर-ज़मीन बेचने की सलाह दे तो लगता है मुफ्त में हथियाना चाहते है, भाव कितने बढ़ गए है और क्यों बेच दें .... क्या मुह दिखायेंगे ऊपर जाकर पिता, दादा, परदादा, पूर्वजों को ....

दरवाज़े पर मोटरसाइकल रूकती है... जिसे नाक बहता छोड़ कर गए थे वो मोबाइल जेब से निकालता है...
"यह दहेज़ में मिली है बुलेट तुझे सत्तू? .." एक बेहुदा मुस्कराहट पूछती है....  
"लल्लन! मैं तो बहुत मना किये हमे ना जरुरत सफ़ेद हाथी की पर लड़की वाले नहीं माने ..अब क्या करें .."
"क्यों सत्तू तेरे ससुराल वाले डालते है इसमें पेट्रोल या मेरे हिस्से की ज़मीन?... " 
तीन पाँव की टेबल पर मक्खी से भिनभिनाते पीतल के कटोरे में रखी बर्फी और समोसे के सामने बेन-शर्मन की टीशर्ट, केल्विन-क्लाइन की जींस, आँखों पर रेबंस का काला चश्मा, अपने से बड़े और छोटों का अपमान करने का दुस्साहर दे ही देते है...
"अरे लल्लन एक-एक पैसे का हिसाब करूंगा...तू चिंता ना कर इसकी नौकरी लग जाए जरा.... "
जैसा हमेशा से होता आया है आसमान से तकाजा और अपमान फिर एक-दो बरस के लिए बाढ़ और सूखे की तरह टल गया  ...

खबर आई है अँधेरे में बुलेट को ट्रक वाले ने पीछे से आकर हल्का सा धक्का दिया और सत्तू का सर ट्रक के पहिये के नीचे कुचला गया.. सत्तू को नौकरी तो नहीं मिली और अब जिंदगी भी नहीं रही .. एक बेटा मिला जो अब दो वर्ष का है एक और बेटा या बेटी तीन महीने में आने वाला या आने वाली है... और पिता को चार दिन शहर में उसे वेंटिलेटर पर रखने के बाद लाश के साथ डेढ़ लाख का बिल मिला ...

"भाई साहिब मुझे बहुत अफ़सोस है सत्तू के ना रहने का..मैं कुछ कर सकूँ तो आप .... " फोन पर झुकी आँखे रुक -रुक कर बोलती हैं ..
"बस लल्लन जो होना था हो गया... तू चिंता ना कर ऊपर वाला है ना... सुना है बहु के दोनों हाथ में चोट लगी  है प्लास्टर कब उतरेगा? देख तन्ने उसका ध्यान ना रखा तो मुझ से बुरा ना कोई.."

आँखे फोन पर झुकी जा रही है आठ हज़ार मील दूर उसी  सुबह को  बेटे के फूल चुग कर आई हताश चेहरे से आँखे चुरा रही है ... और फोन कुछ पलों के लिए गुंगा हो गया ...

फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Tuesday, 13 April 2010

लिली सूख गई है और केक्टस......

वो जो परिंदों के हाथ भेजते थे रोज एक नयी उड़ान, छत पर जाकर उन परिंदों को दाना डालो, वो भूखे मर रहे हैं और मेरे पंख झड़ गए हैं... अपने हाथ बगल में रखो, मेरे पेट की तितलियाँ ना जगाओ, जंगल में भवरों से फूल मांग, सुई धागा ढूंढ, बालों के लिए गजरा गुथो...... वो छाया सिर्फ रात को ही मेरी पहरन ना बने, जब- जब मौसम जिस्म को बर्फ बना दें वो धूप की रौशनी में मेरी आखों की खामोशी पढ़े ..... चांदनी- चौक की भीड़ में खोने के डर से मेरा हाथ ना थामो,  घर की दीवारें जब मैदान नज़र आयें और मैं बदहवास भागती हुई तुम्हें आवाज़ लगाऊं, तुम अपना मोबाइल फेंक... मेरे पास आओ, ज़मीन पर फूक मार, बिना कोई प्रश्न किये मेरे पास कुछ देर बैठे रहो..... मेरे तिल हो गए हैं गूंगे बहरे, उन्हे जुबान दो, आधी रात को सड़क के बीचों बीच गाड़ी रोक, चाँद को रिझाते हुए, उस किताब की कविता गुनगुनाओ जिसके हाशिये में मेरा नाम है और कविता के नीचे तुम्हारा..... नहीं जाना तुम्हारे साथ काफी हाउस और इटेलियन रेस्टोरेंट, मुझे हनुमान मंदिर वाले पहाड़ पर चढ़ना है तुमसे आगे-आगे, शायद कोई पत्थर रहम करे, मेरे मोच लगे पाँव को ना सहलाना और ना ही गोदी उठा घर लाना, पाँव ठीक होने तक मेरे साथ वहीं कुछ दिन ठहर जाना, मेरे लिखे खतों को दोबारा पढ़ना और  अपने एकांत और दर्द को डायरी में सहेज सिरहाने रख देना.... वो जादू की छड़ी तुमने कहाँ खो दी? तुम कोरे कागज़ को मुट्ठी में भींच मेरा नाम ले हवा में उड़ाते थे.... और आकाश में खिल उठता था इंद्रधनुष और वो झुक कर कानो फुसफुसाता धीरे से यू डू टू मी व्हाट स्प्रिंग डज़ टू चेरी ट्री.... याद है वो सपना जिसकी नीव चार गर्म हाथों ने बिना दस्ताने पहने स्नो मेन बनाते हुए बरफ पर रखी थी... देखो! सपनों की दीवारों से प्लास्टर झड़ रहा है कितनी बार कहा है सीमेंट और रेत लाकर पुराने प्लास्टर को खुरच, नया प्लास्टर कर दो, सूखने के बाद दीवारों पर रंग मैं कर लुंगी, मुझे याद है उस हरियाली का रंग जिसे तुम्हारी आँखों में देख मैं पागल हुई थी... क्या तुम्हें भी याद है वो चेहरा जिसके बहते काजल के इंतज़ार का हर पल तुम्हारा था..यह राज तुमने ही मेरे इंतज़ार को बताया था.... तुम जो लिली और केक्टस लाये थे मैंने टैग पर लिखी सभी हिदायते निभाई फिर भी लिली सूख गई है और केक्टस वैसे का वैसा उसे तो मैंने कभी पानी भी नहीं दिया....तुम्हारे होंठ क्यों छिल जाते हैं मुझे चुमते हुए.....

फोटो: गूगल सर्च इंजन से

Tuesday, 23 March 2010

उसकी नीलिमा पर बादलों ने लिखा था..


क्सर उसकी आँख बर्तनों के खड़कने की आवाज़ से खुलती है या फेरीवालों और भिखारियों की पुकार से, नहीं तो अखबार वाले या फिर दूधवाले की घंटी से... लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ ...पानी की कल-कल से नींद खुली... बाहर आकर देखा तो कटे पाइप से पानी बह रहा है ऐसा लगा जैसे गर्भनाल से पानी का मीटर कटा हो... छप-छप और ढूंढा-डांडी में जितनी देर पानी रोकने का जुगाड़ कर पाता.. मिनिस्पलटी वालों ने मुझसे बाजी मार् ली और पानी रोक दिया... पत्नी बेटे सहित गर्मी की छुट्टियों में अपने मायके में है वर्ना पानी के मीटर की चोरी में भी मेरा कसूर होने का कोई कारण खोज लेती... पानी बेकार होने से बचाने की जल्दी में यह भी ख्याल नहीं आया कि ज़रुरत का पानी तो भर लूँ... भला हो पड़ोसियों का... जिन्होंने पानी का मीटर चोरी हो जाने का अफ़सोस के साथ बाल्टी भर पानी नहाने को और पतीला भर पानी पकाने को दिया... अफ़सोस वाली पानी की बाल्टी में नहाते हुए मुझे इसी बात का अफसोस रहा ... इतने बड़े शहर में मेरे ही घर का मीटर चोरी क्यों हुआ? और अफ़सोस वाले पानी की चाय पीते समय इस बात का अफसोस कि दफ्तर जाने से पहले पुलिस चौकी जाना होगा .. वैसे पिछले आधे घंटे से अफ़सोस जाहिर करने के साथ-साथ पड़ोसियों ने सलाह भी दी कि मिस्त्री को भेज कर नया मीटर लगा लो आप तो पी डब्लू डी में काम करते हैं आपको पानी के मीटर की क्या कमी... नहीं मुझे पुलिस स्टेशन जाना है मैने जोर देकर कहा... सहानुभूति दर्शाने वाले सभी मुस्कुराए... शायद मेरी कायदे-कानून पर बची-खुची निष्ठा पर या उठाई गिरि की इस हरकत को इतनी गम्भीरता से लेने पर ... मैं इस शहर का कायदे- क़ानून मानने वाला सरकारी नौकर हूँ ... चोरी की रिपोर्ट लिखवाना मैंने अपना हक़ और कर्तव्य समझा ..

जून के महीने में दो किलोमीटर पैदल चल कर मैं पसीने से लथ-पथ पुलिस स्टेशन पहुंचा ...
"मुझे रिपोर्ट लिखवानी है मेरा पानी का मीटर चोरी हो गया है"... कुर्सी पर उंघते हुए पुलिसवाले के सामने बैठते हुए कहा..
"देखिये साहब आपके पानी के मीटर का चोर हमने पकड़ लिया है" उसने कोने में बैठे एक सत्रह -अठारह वर्ष के लड़के की तरह इशारा किया जो अपना मुह घुटनों में दिए बैठा था उसके फटे कपड़े और हाथो पैरों पर नील के निशाँ पुलिस के कहर की कहानी बता रहे थे.. चोर के पकड़े जाने का उत्साह ... उसकी हालत देखते ही गायब हो गया ...उसके सामने पांच-छ पानी के मीटर रखे थे...मुझे चोर से सहानुभूति हुई ...चोर से अपना ध्यान हटा मैंने मीटर से ही मतलब रखा जिसे मैं दूर से ही पहचान गया...कितनी बार उसकी चूड़ियाँ कसी थी, वाशर बदले थे, पाइप के मुह में डाला था... पर उसे भी आदत थी हर दुसरे-तीसरे सप्ताह टपकने की ओर मेरे हाथों टप-टप पुछ्वाने की....
"सुबह साढ़े चार बजे हमने पेट्रोल करते समय पकड़ा है साले को..." पुलिसवाला मुछों पर ताव देते हुए बता रहा था
"वो लम्बे पाइप वाला मीटर मेरा है... चाहे तो आप उस पर लिखा नंबर मेरे पानी के बिल पर लिखे नंबर से मिला लें..."मैंने झट अपनी जेब से पानी का बिल निकाल पुलिस वाले के हाथ में थमा दिया..मुझे मालुम था यह मीटर मेरा है यह मुझे साबित करना होगा इसलिए घर से पानी का बिल अपनी जेब में डाल कर चला था...
"इसकी तो पूरी कार्यवाही की जायेगी.. आप अपना मीटर नही ले जा सकते... यह माल खाने में पहले जमा होगा.. आप दो दिन बाद माल खाने से ले जाना... तब तक यह वहाँ पहुँच जाएगा.. " पुलिस वाला पानी के बिल से नाम, पता और नंबर नोट करते हुए बोला...
"लेकिन... यह मीटर ... "
"साहब यही कायदा है आपको यह मालखाने से ही मिलेगा..."
वो मेरी बात बीच में काटते हुए बोला...
पुलिसवाले ने पर्ची पर मालखाने का पता लिखा,रजिस्टर में मेरे हस्ताक्षर लिए...और मुझे रिपोर्ट की रसीद दी..

दो सौ रुपये बचाने को, किसी ना किसी तरह पाइप का मुह बन्द किया, दो दिन पड़ोसियों के घर से पानी लेकर काम चलाया और तीसरे दिन आधा दिन कि छुट्टी ले.. ढूंढता हुआ पहुँच गया माल-खाने में... माल खाने के मालिक को सभी जरूरी कागज पकड़ा.. मालखाने में झाँकने लगा ... शायद पानी का मीटर मुझे देखते ही मेरे पास दौड़ कर आ जाएगा ...
"यह तो केस चलेगा आप वकील लेकर आइए... " माल खाने का मालिक कागजों पर उड़ती नज़र डालते हुए बोला..
"अरे! कोई वकील पैसे बिना तो आएगा नही.. दो सौ रुपये की चीज के लिए मैं क्यों वकील के चक्कर में पडू
बहस -बंदी के बाद भी माल खाने का मालिक टस से मस नही हुआ और मुझे सारे कायदे-कानून के पाठ पढ़ा दिए ..

लौटते हुए नया मीटर खरीदा और दुकानदार को देते हुए दौ सौ बीस रूपये हाथों में कील की तरह चुभे और जब मैंने नया मीटर लगाया उससे अधिक चुभी पड़ोसियों की मुस्कराहट... 

कुछ दिन तक जब भी नए मीटर को देखता... दौ सौ बीस रूपये और मालखाने में इंतज़ार करता मीटर याद आता... फिर धीरे-धीरे मैं उसे भूलने लगा और मेरे आसपास सब कुछ बदलने लगा..घर के पीछे जो अमरुद का बाग़ था वहां इमारतें बनी.. जहां से चिड़ियों के चहकने  और ज़मीन पर कुतरे अमरुद की जगह एयर कंडिशनर से  आवाजें और गर्म हवा आने लगी... राज्य के दो टुकड़े हो गए... शहर राजधानी बन गया... अब यहाँ पानी के मीटर नहीं चोरी होते.. वो सामने लगी ए टी एम् मशीन गायब हो जाती है.. घर के सामने वाले पार्क में जहाँ कालोनी के लड़के नेटबाल और क्रिकेट खेलते थे... वहां लोग एक दुसरे कि आँख बचा कूड़ा फेंकते हैं... पार्क की घास की देख-रेख का काम मिनिस्पलटी को नहीं.. गायों का मिला हुआ है वो उसकी लम्बाई की ही देखभाल नहीं करती बल्कि गोबर से घास को पवित्र और उपजाऊ रखती हैं .. शाम को अँधेरे में पार्क की बेंचो पर अजनबी लड़के- लड़किया गले में हाथ डाले चिपक कर बैठे होते हैं जिन्हें देख कर अनदेखा करना गैरत ने सीखा दिया है... घर के पड़ोसियां ने अपने घर दुमंजिले कर लिए हैं...बढ़ते परिवार को साथ रखने के लिए नहीं... किरायेदारों को आसरा देने के लिए... सड़क के साथ जो नहर थी उसको दफना कर सड़क चौड़ी कर दी गई है... पैदल चलने के लिए फुटपाथ नहीं... पक्की सड़क है और ट्रक, गाड़ी, बसों, टेम्पो के बीच बूढ़े, बच्चे, जवान हर किसी में जान हथेली पर रख अपने कदमो के हिस्से की सड़क हथियाने की हिम्मत है... सड़क के दोनों ओर दुकाने और ब्यूटी पार्लर कुकरमुत्ते की तरह उग  आये हैं ...  
शहर के साथ वह भी बदल गया.. चेहरा बदल गया है, बालों का रंग बदल गया है, आँखों की रौशनी बदल गई है, वह ससुर और फिर दादा बन गया है ......

"आप ही सूरजभान शर्मा है? गेट पर खड़ा पुलिसवाला पूछता है..
"जी हाँ..." मैं अखबार से मुह हटा कर उसे एक तरफ रखते हुए कहता हूँ
"आपके यहाँ चोरी हुई थी?" वो गेट खोल कर बरामदे में घुस आया...  
"नहीं तो..." मैं कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया..
"आपका पानी का मीटर चोरी हुआ था?.."
"फिलहाल तो वह भी चोरी नहीं हुआ "...बाहर बरामदे में लगे मीटर को देखते हुए कहा..
"केस ख़त्म हो चुका है यह रहा आपका मीटर..." उसने प्लास्टिक के थैले से निकाल कर मेज पर रख दिया और मुझे एक कागज़ पर दस्तखत करने को कहा...
मीटर ने मुझे फ़ौरन पहचान लिया ... पुलिसवाले के जाने के बाद देर तक मीटर को घूरता रहा.. उसे उठाकर अलट-पलट कर देखा...आँखों से दूर ले जाकर देखा.. आँखों के नज़दीक लाकर देखा...उसकी सुइया वहीं रुकी हुई थी.. वह बिलकुल नहीं बदला था ... टप- टप पानी गिरता नज़र आया .... हथेली मली वह बिलकुल सूखी थी... फूंक मारकर उस पर जमी धूल साफ़ की..कुरते से उसे रगड़ा और पास पड़ी कुर्सी पर टिका दिया..  बरामदे की चार दिवारी से बाहर देखा.. पार्क की घास कुछ ज्यादा हरी लगी ... और बेंचो पर एक दुसरे से सटी बैठी छाया देखकर झल्लाया नहीं मुस्कुरा दिया .. गेट पर लगे अशोक के पेड़ से चिड़िया के चहचहाने की आवाज़ आई.. नज़रें ऊपर उठी और आसमान की तरफ गई ... वो भी मुस्कुरा रहा था और उसकी नीलिमा पर बादलों ने लिखा था.. यहाँ देर है अंधेर नहीं...

फोटो- गूगल सर्च इंजन से

Friday, 26 February 2010

"आई कैन एशियौर यू .. आई शेल नेवर नीड देम..."


पिछले तीन महीने से रीटा रात को यह सोच कर सोने जाती है सुबह को वह कभी ना उठे तो बेहतर होगा.. थोमस के आ जाने से भी सुबह को कभी ना उठने की ख्वाइश कम नहीं हुई है.. उसके जिगर का टुकड़ा उसकी ख़ुशी नहीं सिर्फ व्यस्त रहने का माध्यम बन कर रह गया है... नन्ही सी जान की मुस्कराहट में मां को ज़न्नत नसीब होती है पर यहाँ ना तो उसका दिल पसीजता है और ना ही दूध उतरता है... वो रात ग्यारह बजे उसे फार्मूला मिल्क देती है वह सुबह पांच बजे तक चुपचाप सोता है .... जब सुबह में वह दूध के लिए रोता है वह उसके रोने पर नहीं ... अपने ज़िंदा होने पर झल्लाती है... परदे सरकाने, रौशनी भीतर आने, घड़ी कि टिक-टिक, दूधवाले के ट्रक की टीम-टीम, फोन की घंटी, पोस्ट मेन की आहट, पड़ोसियों की मुस्कराहट और स्कूल जाते बच्चे सभी से वह बचती है और शुब्ध है.. और सबसे ज्यादा घबराहट और तनावग्रस्त है बंद लिफाफों से, जिन्हें वह खोलती नहीं और फाड़ती भी नहीं.... उन्हे बिना खोले ही भीतर के धुएं को सूंघ सकती है .... बंद लिफांफों का ढेर लग गया है कुछ रीटा एमरी के नाम से हैं और कुछ डेविड पोलार्ड के ....वो बंद लिफ़ाफ़े दिन भर उसे घूरते हैं, चिल्लाते हैं, धमकी देते हैं तुम बेघर हो जाओगी, बिजली और गैस कट जायेगी, तुम्हें कोर्ट में घसीटा जाएगा, सामान कुडकी हो जायेगी, तुम्हारा ए टी एम् कार्ड मशीन निगल जायेगी... तुम्हें मदद चाहिए हम मदद करेंगे ... तुम्हारे सारे क़र्ज़ चुका देंगे...तुम यहाँ साइन कर दो, अपनी हर महीने की कमाई और सुख- चैन हमेशा के लिए हमारे पास गिरवी रख दो... उसे ऐसा लगता है उसके चारों ओर अविश्वास और अनिष्चितायों का मकड़- जाल डंक फैलाए बैठा है.

डेविड और रीटा एक दोस्त के घर मिले थे ... जल्दी ही यह मुलाक़ात प्यार के रिश्ते में बदल गई .. रीटा को छत्तीस की उम्र में प्यार नसीब हुआ था और डेविड उसकी जिंदगी का पहला प्यार था .. जबकि डेविड की जिंदगी में प्यार इतनी बार आया-गया कि वो उसकी गिनती भूल चुका है लेकिन वो अक्सर रीटा से कहा करता वह औरों से एकदम अलग है उस जैसी उसके जीवन में पहले कभी नहीं आई.. उसको अब तक सिर्फ उसका इंतज़ार था ...दोनों के बीच ढाई सौ किलोमीटर की दूरी थी जिसे वह सप्ताहांत में मिटा देते... एक शुक्रवार को डेविड रीटा के शहर के लिए रवाना होता और अगले शुक्रवार को रीटा डेविड के घर ... रीटा अपने माता -पिता के पास रहती थी और डेविड को उनका आस -पास होना उतना ही नापसंद था जितना रीटा के माता -पिता को रीटा और उसका साथ...पर वो सप्ताह अंत में एक दुसरे से जरूर मिलते ...डेविड ने रीटा को अपनी कम्पनी में एडमिनिस्ट्रेटर की वेकेंसी की इतला दी ...तीन महीने बाद नौकरी उसकी थी और वह अपने माता - पिता का घर छोड़ उसके शहर में आ गई, दोनों बड़े फ्लेट में जाने के बाद उसे सजाने में व्यस्त हो गए...

पानी की तरह साफ़ साझेदारी थी दोनों के बीच .. फ्लेट का आधा-आधा किराया, गैस और पानी का बिल रीता के अकाउंट से, बिजली और कौंसल टेक्स डेविड के अकाउंट से... सुपर मार्किट की शौपिंग एक सप्ताह रीटा और अगले सप्ताह डेविड, गाड़ी की इंशोरेंस की ज़िम्मेदारी डेविड की और रोड टेक्स रीटा खरीदती, पेट्रोल एक बार रीटा तो अगली बार डेविड भरवाता ..कितने का भरवाना है वह भी निश्चित था .... इसी तरह से वो पिछले पांच वर्षों से इकट्टे रहे थे .

रीटा का बहुत मन था एक दिन डेविड शादी का प्रस्ताव रखेगा लेकिन डेविड शादी जैसे बंधन में यकीन नहीं रखता लेकिन वह उसे माँ बनने से ना रोक सका... रीटा ने जब उसे खुशखबरी दी तो वह अगले दिन उसके लिए फूलों का गुलदस्ता लेकर आया ... और जब सात महीने का थोमस रीटा के गर्भ में किक मार रहा रहा था.. तब डेविड पांच महीने पुराने प्यार के पास रहने के लिए अपना सामान समेटते हुए बेडरूम में चहल कदमी कर रहा था.. उसे उम्मीद थी फ्लेट के साथ शायद डेविड गाड़ी भी उसके पास छोड़ देगा क्योंकि गाड़ी का लोंन रीटा अदा कर रही है पर उसे खरीदने के लिए डेविड ने अच्छा खासा डिपोजिट दिया था.. लेकिन वो गाड़ी अपने साथ ले गया ... जाती हुई गाड़ी की आवाज़ उसके लिए छोड़ गया जिसे उसके कान ना जाने क्यों दिन में कई बार सुनते हैं .. यह क्या कम है टी वी और वाशिंग मशीन उसने खरीदे थे वो उन्हे नहीं ले गया.... मां का साथ देने के लिए थोमस अपनी निर्धारित तिथि से तीन सप्ताह जल्दी पैदा हो गया ... थोमस भी शायद फ्लेट के टी-वी और वाशिंग मशीन की तरह है डेविड उसे क्लेम करने और देखने नहीं आया .. उसने अपने गर्भ में थोमस की नहीं अपने जन्म की भी प्रसव -पीड़ा महसूस की....

रीटा का इस शहर में अपना कोई नहीं है दुसरे शहर में जो अपने हैं वो हर साल क्रिसमस कार्ड भेजने के लिए सिर्फ उसका पता जानते हैं .. उनके पास ना तो रीटा का फोन नम्बर है और ना ही थोमस के पैदा होने की खबर ...... दफ्तर के मित्र अक्सर फोन पर पूछते हैं वो दफ्तर कब वापस आ रही है... वो अक्सर सोचती है वह बिल्डिंग, लिफ्ट, सातवीं मंजिल, कारीडोर, मीटिंग रूम , प्रिंटर, फेक्स मशीन, केन्टीन और ओपन प्लान आफिस स्पेस, डेविड और उसकी नयी प्रेमिका, जिसको उसी ने अपोइन्ट किया था, यह सब कैसे उनके साथ रोज आठ घंटे के लिए बाँट पाएगी ? इस तनाव से छूटकारा पाने के लिए उसने एक निर्णय लिया, थोमस के सो जाने बाद एक पत्र लिखा, उसे लिफ़ाफ़े में बंद कर, उस पर दफ्तर का पता लिख, पोस्ट करने के लिए पर्स में सरका दिया...

"तुम्हारा नाम रीटा है" वोटिंग रूम में नर्स आकर पूछती है..
वो चौंक कर सर हिलाती है और नर्स के पीछे - पीछे डाक्टर के कमरे में दाखिल होती है..

आज थोमस दो महीने का हो चुका है उसे पोलियो, मीज़ल्स, वूपिंग कफ के टीके लगने हैं... टेक्सी के पैसे बचा वह दो बसें बदल कर जनवरी के बर्फीले मौसम में पंद्रह मिनट देर से क्लीनिक पहुंची है...
"ही इज डूइंग फाइन" लेडी डाक्टर ने थोमस का वजन लेते हुए गाल थपथपा कर कहा और टीका तैयार करने लगी..
"थोमस का पिता साथ नहीं आया, मैंने तुमसे पिछली बार भी कहा था...तुम दोनों से मैं फेमली प्लानिग के बारे में बात करना चाहती हूँ"
"मुझे उसकी ज़रुरत नहीं है ..." रीटा ने ज़मीन पर निगाह गड़ाए हुए कहा
"अक्सर सभी ऐसा सोचते हैं आई नीड टू डिस्कस वेरियस फेमली प्लानिग आप्शन विद यू ..." डाक्टर ने थोमस को टीका लगाते हुए कहा.. वह सुई चुभते ही जोर से चीखा और चुप हो गया... "

"आई कैन एशियौर यू .. आई शेल नेवर नीड देम डाक्टर! ... " अचानक रीटा ने बड़े आत्मविश्वास से डाक्टर की आखों में आँखे डाल कर कहा... ऐसा कहने के बाद उसने महसूस किया वह डेविड ही नहीं दुनिया के तमाम पुरुषों से मुक्त हो गई है वह बेचारी नहीं है अपने हितों, भावनाओं, संवेदनाओं की सुरक्षा करना उसके वश में है, अनेपक्षित परिस्थितियों और चुनोतियों से जूझने की क्षमता वह रखती है वह जीना चाहती है, उसे अपने -आप को पुनर्जन्म देना होगा, ... डेविड के मिलने से पहले और डेविड के जाने के बाद की रीटा..डेविड की रीटा से अधिक सम्पूर्ण और शक्तिशाली है यह उसे दुनिया को नहीं स्वयम को साबित करना है...

वो क्लीनिक से बाहर निकल दफ्तर की दोस्त को फोन लगाती है.. कोई जवाब ना आने पर वह मेसेज छोडती है
"शैरन तुम मुझे एक अच्छी चाइल्ड माइंडर का नंबर देने वाली थी... आज ही एस एम् एस कर दो प्लीज़ .. "

चलती - चलती पोस्ट बाक्स के पास रुक जाती है ... पर्स से कल रात लिखा बंद लिफाफा निकालती है उसके चार टुकड़े कर, साथ रखे कूड़ेदान के हवाले कर मुस्कुराती है.... पुश चेयर में सोते हुए थोमस का कम्बल ऊपर कर उसके ठन्डे हाथों को कम्बल से ढक, एक लम्बी सांस खींच..अपने फौलादी हाथों से पुश चेयर धकेलती हुई बस स्टॉप की तरफ बढ़ जाती है...

फोटो - गूगल सर्च इंजन से