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गंगा जल नहीं,
प्यार की आखरी बूंदें
सहेज ली हैं
धरकनो में
लोक - परलोक
तर जाने के लिए...
तुम और प्यार
मत करना
बह जायेगा
छलक कर
आंखों से ...
चार बूंद काफ़ी हैं
मुक्ति के लिए....
दो
जिंदगी भर
हर पल
तुम पर
मिटने के लिए
दो
अन्तिम साँस में
हलक और अधर पर लगा
मुस्कुराने के लिए...
पेंटिंग - लेजली एमिल
10 comments:
bahut khubsurat bhav
बहुत भावपूर्ण.
कविता पढ़ी, इस पर कुछ कहना उचित न होगा इसके सिवा कि ये बहुत बहुत पसंद आई
बहुत ख़ूबसूरत और भावः में बहुत गहराही है
बहुत ही उम्दा कविता ...बहुत सुंदर भाव !
Sundar Abhivyakti...Badhai !!
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शब्दों में बहती भावनाएं गंगा की धारा से ज्यादा तेज हैं...थाह वही लगा सकता है जो कभी उतरा हो उस धारे में....भाव अपने पूर्ण यौवन पर हैं...बेहद सुंदर कविता.
दो जिंदगी भर हर पल तुम पर मिटने के लिए
दो अन्तिम साँस में
हलक और अधर पर लगा मुस्कुराने के लिए...
yahi समर्पण तो मार डालता है औरत को। पहले मुक्ति की माँग कर इसके झूठ को पहचान चुकी औरत फिर इसी चक्र्व्यूह में ?
बूँद दर बूँद एक रिश्ते का सफर...आपका ये मूड भला सा लगा नीरा जी....
नीरा जी ,
कम शब्दों में बहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति .
बधाई.
हेमंत कुमार
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