Thursday, 5 February 2009

चार बूंद प्यार....






गंगा जल नहीं,

प्यार की आखरी बूंदें

सहेज ली हैं

धरकनो में

लोक - परलोक

तर जाने के लिए...



तुम और प्यार

मत करना

बह जायेगा

छलक कर

आंखों से ...



चार बूंद काफ़ी हैं

मुक्ति के लिए....

दो

जिंदगी भर

हर पल

तुम पर

मिटने के लिए

दो

अन्तिम साँस में

हलक और अधर पर लगा

मुस्कुराने के लिए...


पेंटिंग - लेजली एमिल

10 comments:

Anonymous said...

bahut khubsurat bhav

Udan Tashtari said...

बहुत भावपूर्ण.

के सी said...

कविता पढ़ी, इस पर कुछ कहना उचित न होगा इसके सिवा कि ये बहुत बहुत पसंद आई

Unknown said...

बहुत ख़ूबसूरत और भावः में बहुत गहराही है

रवीन्द्र प्रभात said...

बहुत ही उम्दा कविता ...बहुत सुंदर भाव !

Amit Kumar Yadav said...

Sundar Abhivyakti...Badhai !!
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प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

शब्दों में बहती भावनाएं गंगा की धारा से ज्यादा तेज हैं...थाह वही लगा सकता है जो कभी उतरा हो उस धारे में....भाव अपने पूर्ण यौवन पर हैं...बेहद सुंदर कविता.

Ashok Kumar pandey said...

दो जिंदगी भर हर पल तुम पर मिटने के लिए
दो अन्तिम साँस में
हलक और अधर पर लगा मुस्कुराने के लिए...

yahi समर्पण तो मार डालता है औरत को। पहले मुक्ति की माँग कर इसके झूठ को पहचान चुकी औरत फिर इसी चक्र्व्यूह में ?

डॉ .अनुराग said...

बूँद दर बूँद एक रिश्ते का सफर...आपका ये मूड भला सा लगा नीरा जी....

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

नीरा जी ,
कम शब्दों में बहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति .
बधाई.
हेमंत कुमार