Tuesday 24 March 2009

उसके चहरे का संतोष लोगों को खलता है....

बात उन दिनों की है जब दिल्ली में जमुना नदी पर एक ही पुल था. उसे पढ़ाने के लिए पिता ने क़र्ज़ लिया था. वह रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर, दिल्ली में सड़कों की ख़ाक छान रहा था। एक कमरा तीमार पुर में किराए पर लिया था किन्तु एडवांस देने के बाद पिछले तीन महीने से कमरे का किराया नहीं दिया था. वह रोज़ सुबह तैयार होकर नौकरी की तलाश में निकलता, कहीं इंटरव्यू देने तो कहीं नौकरी की अर्जी लेने या नौकरी की बारे में उन सभी से मिलकर पता करने जिनके पते वो सहारनपुर से अपने साथ लेकर आया था. आज भी रोज की तरह तैयार हो रहा है और अपनी सफ़ेद टेरीकाट की कमीज़ को पहनते हुए सोचा अगली बार नील देना होगा कितनी पीली पड़ गई है उसने पतलून निकाली जिसको उसने रात तकिये की नीचे रख दिया था ताकि क्रीज़ बनी रहे. वो घिसे जूते पहन कर अपने कमरे का दरवाजा बंद कर सड़क नापता हुआ बस स्टाप की तरफ तेजी से कदम बढाता जा रहा है, वह अपने हाथ पतलून की जेब में डालता है और ढूंढता है चिर-परिचित झंकार जो उसे नहीं मिलती सिर्फ कुछ पुराने टिकट हाथ में आते हैं वह अपने कदम वापस मोड़ लेता है...कमरे में वापस आ चारपाई पर सर झूका कर बैठ जाता है और इंतज़ार करता है .... जीना चढ़ने की आवाज़ हुई है और एक लिफाफा दरवाजे के नीचे से किसी ने सरकाया है वह बिना उसे खोले जीना उतरते पांवोँ को रोककर पूछता है "सुनो मेरे नाम कुछ साइन करने को तो नहीं है..." "नहीं जनाब" कह कर पाँव जल्दी से बाकी बची सीढियां उतर जाते हैं वह अपने कमरे में आकर लिफाफे को घूरता है पते से चिरपरिचित लेख पहचान लेता है...उसे खोलते हुए डरता है उसमें मजबूरियां होंगी, बेबसी होगी, या फिर घर के हालत को छुपाने की कोई नयी तरकीब होगी, उसे हौसला देने के लिए दिलासा होगी, या फिर पैसे ना भेज सकने के कारणों की लंबी सूचि होगी। वो कोने से लिफाफा फाड़ कर अंगुली उसमें फंसा कर कनारे से खोलता है उसमें सफ़ेद कागज़ का टुकडा ना पाकर मेज़ पर उलट देता... उसमें से एक हरे रंग का छोटा सा कागज़ का टुकड़ा निकलता है उसका मटमैला रंग बता रहा है वो कई सौ हाथों से गुजरा है और मुड़ा-तुड़ा रंग रूप बता रहा है वह किसी के रुमाल या पल्ले की गाँठ से निकला है .... वह ख़ुशी से कागज़ का टुकड़ा चूमता है फाइल उठा धड़धड़ सीढियां उतर बस स्टाप की और भागता है आज का इंटरव्यू हाथों से ना निकल जाए... उस दिन उसे नौकरी मिल जाती है ...

उस हरे कागज़ की हरियाली से उसने बहन की शादी की, पिता का क़र्ज़ उतारा, माँ का दमे का इलाज करवाया, गाँव के घर की टूटी छत ठीक करवाई, जी पी फंड केश करा कर रिश्तेदारों को उधार दिया जो ना उसने वापस माँगा, ना उन्होंने लौटाया, बेटे को इंजिनीयर, बेटी को अकाउंटटेंट बनाया... कई पुल बनवाये, देश - विदेश में हजारों मील लंबी सड़कें बनवाई, आकाश चूमती दफ्तर की इमारतें खड़ी की, कई सरकारी कालोनियां बसाई, सरकारी खजाने और वर्ल्ड बैंक के करोड़ों के चेक साइन किये...

अब भी वह किराए की छत के नीचे रहता है, दिल्ली में डी टी सी की बस पकड़ता है, छत पर लगी पानी की टपकती टंकी तारकोल लगा कर ठीक करता है, बिना नील लगी कमीज़ खुद प्रेस करके पहनता है, सब्जी खरीदने के लिए हर शनिवार सब्जी मंडी जाता है, टूटी पेन में नया निब डाल कर उन्हें पेन होल्डर में रखता है, राजकमल प्रकाशक की सदस्यता लेकर हिंदी की किताबें सस्ती दरों पर खरीदता है, अखबार में से डिस्काउंट वाउचर काट कर एक की जगह दो साबुन लेकर आता है, अपने जेब से फटे कुरते को पत्नी से सिलवाता है दहेज़ में मिले निवाड़ के पलंग की ढीली पड़ गई निवाड़ हर दो तीन महीने बाद कसता है...

उसके चहरे का संतोष लोगों को खलता है क्योंकि वह आज भी पांच रूपये में दुनिया बदलने का हौसला रखता है ...

14 comments:

Pratyaksha said...

कहाँ खो गये ऐसे लोग ?

के सी said...

एक पूरी कहानी को कम शब्दों में किस तरह कहा जाये ये हुनर है आपके पास, कहानी के सभी आवश्यक तत्व मौजूद है जो इसे पूर्णता प्रदान करते हैं, इस बार आपके उन पाठको को आसानी होगी जिनको बिम्ब प्रधान रचनाएँ थोडा क्लिष्ट लगती हैं , मेरी तरफ से बधाई !

Unknown said...

आज की व्यस्त जिन्दगी में इंसान अगर डूढ्ता है तो संतुठी को ! जो लोग अपने को संतुष्ट कर लेते है उन्हें बाहार की रंगीनिया बहुत तूछ और छोटी दिख्ती है ! उम्मीद है हम भी सुब इससे कुछ शिखा ले और खदुद को इस तरह का इंसान बनाए !
आप की कहानिया वास्तिवता को दर्शाती है!
आप को बहुत बधाई!

डॉ .अनुराग said...

ओर एक दिन खामोशी से बिना शोर शराबे के इस दुनिया से चला जायेगा ..ओर कोई उसे थेंक यू भी नहीं कहेगा....ऐसे जमीर ओर ऐसे लोग अब संग्रहलय में रखने जैसी चीज हो गयी है....लेकिन सच कहूँ ये दुनिया इन्ही लोगो के दम पे टिकी है..

कंचन सिंह चौहान said...

उसके चहरे का संतोष लोगों को खलता है क्योंकि वह आज भी पांच रूपये में दुनिया बदलने का हौसला रखता है ...

hmm sahai kaha aap ne, kuchh log dukhi hi achchhe lagte hai duniya ko, vo agar apna rona na roye to akharta hai unhe...!

man ko bheetar tak chhoone vali hai ye katha

Puja Upadhyay said...

gajab likha hai. aise shaks se milkar bahut accha laga...par wakai aise log kahan chale gaye aajkal. ye aam se log, ab dheere dheere kimvadanti ban jaayenge aur ham sochenge ascharya se, ki aisa bhi hota hai.

अनिल कान्त said...

aise log ab na jaane kis duniyan mein rahne lage hain

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

सादा जीवन उच्च विचार- आज तो ये प्रजाति लुप्त होती जा रही है॥

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

नीरा जी ,
कम लेकिन वजनदार शब्द ..अलग शैली ..भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
आपके लेखन की विशेषता है .बधाई
हेमंत कुमार

sanjay vyas said...

सच कहा पूजा ने.इस विशिष्ट होती दुनिया में 'आम' भीरे धीरे हाशिए पर चला जा रहा है.भीषण विशिष्टता के दौर में आपने गायब होते सादेपन को श्रेष्ठता प्रदान की है.

योगेन्द्र मौदगिल said...

भई वाह... कहने का अंदाज़ पसंद आया. बधाई स्वीकारें..

L.Goswami said...

वाह !! उम्दा लेखन. बहुत अच्छा लिखा आपने

गर्दूं-गाफिल said...

बहुत अच्छा है अंदाजेबयां ,लिखने के बाद ,पोस्ट करने के पहले पढ़ लिया जाता ,तो शुद्ध सामने आता ।
सच कहा है -जोदुनिया बदले का हौसला रखता है उसका इत्मिनान दुनिया को खलता है ।

Vaibhav said...

Awesome