Monday, 30 March 2009

जब वो एक साथ भागते पैबन्द लगाने....

वो दोनों पैबन्द सिल रहे थे, बिखरे आकाश पर,परों तले खिसक गई ज़मी पर, किताब के फटे पन्नो पर, आखों से गुम हुए सपनो पर, चौखट पर सिमट आई पगडण्डी पर,जागी हुई इंसानियत पर और मासूम चाहत पर...

वह इसलिए पैबन्द लगाता है क्योंकि उसे दुःख है उसे दुःख पहुंचाने का और उसे आइना दिखाने का और वह इसलिए लगाती है उसे दुःख है उससे दूर हो जाने का और सच से ना लड़ पाने का...

वह बड़े-बडे पैबन्द लगाता है जब वह चाँद का पैबन्द लगाता तो वह सिर्फ दाग देख पाती, जब वह बादल का लगाता उसमें से हवा निकल जाती,जब वह धरती का लगाता तो उसकी मुट्ठी से रेत फिसल जाती ... वह छोटे-छोटे पैबैन्द लगाती है जब वह पत्ती का पैबन्द लगाती तो वह सिर्फ मुरझाई शाख देख पाता, पुरानी यादों का लगाती तो उसे बासी महक आती, उम्मीदों का लगाती तो वह अपनी नज़रें झुका लेता ...

बारिश से पैबंद गल जाते, हवा से उधड़ जाते, बर्फ में अकड़ जाते और सूरज के लाल-पीले होने से वो उखड़ जाते... वो दोनों अनजान बने चुपचाप पैबन्दों का गलना, उधड़ना, अकड़ना, उखड़ना देखते और फिर दोनों की खामोशी की कैंची उसमें बड़े-बड़े छेद करती और फिर आंधी आती। जब उन्हें लगता आकाश के दो टुकड़े हो जायेंगे, धरती फटेगी और वो धंस जायेंगे, उनकी कोरी किताब के पन्ने स्याही भी ना सूंघ पायेंगे ...वो दोनों एक साथ भागते पैबन्द लगाने... पैबन्द लगाते - लगाते जब कभी उनकी अंगुलियाँ एक दुसरे को छु जाती तो वो थोड़ी देर के लिए एक दुसरे का हाथ थाम लेते...

उन क्षणों में उन्हें अपना आसमान साबूत, पाँव के नीचे की जमी हरी और शब्दों का सागर एक दुसरे की आँखों में उमड़ता और बहता नज़र आता ...

फोटो गूगल सर्च इंजन से

13 comments:

के सी said...

"नया चश्मा है पत्थर के शिगाफों से उबलने को, ज़माना किस कदर बेताब है करवट बदलने को" इस शेर में सरदार जाफ़री ने जिस नए वक़्त नयी आमद नयी रचना की ख्वाहिश की थी वो शायद ऐसी ही कुछ होगी. दुनिया के तर्जुबातो -हवादिस को बुनती, पैबन्दों से सांसों को गूंथती और हर ज़ख्म को समय के साथ दर्ज करती हुयी.

मोना परसाई said...

najuk ahsaason ko aapne khubsurt aur gahari abhivykti di hae.

पारुल "पुखराज" said...

ये उम्मीद! कमबख्त मरती भी नहीं ...aapko hamesha padhti huun..

डॉ .अनुराग said...

बहुत देर सोचता रहा .क्या लिखूं .ऊपर वाल चित्र भी लगा जैसे चुरा लूँ यहाँ से .पैबंद पर गुलज़ार की नज़्म को याद करने की कोशिश की....अधूरी याद आयी इसलिए यहाँ पोस्ट करना मुनासिब नहीं समझा ....सोचता रहा घर से इतनी दूर...आसमान भी नीला दीखता होगा या वहां भी पैबंद होगे...आज शाम दुबारा आयूंगा ....शायद गुलज़ार की वो नज़्म याद आ जाए .

ilesh said...

khubsurat abhivyakti...bahvnao me behate khayal....

Ashok Kumar pandey said...

वाह्… कई बार पढ गया…भाषा स्तब्ध करती है। कई बार लगता है यह भाषा कितने कथ्यों को बयान कर सकती है…उम्मीद क़ायम है।

rajkumari said...

वाह बहुत सुन्दर रचना है.

हरकीरत ' हीर' said...

behtareen...!!

sanjay vyas said...

चीज़ों को दुरुस्त करने के चक्कर में कितना कुछ बाकी रह जाता है.कुछ हमेशा तरतीबवार होने से रह जाता है.वैसे सच कहूँ तो ये सरल और सहज लगने वाले अनेक अंशों का एक काफी जटिल कोलाज है.और जहां आखिर में एक शक्ल उभरने की गुंजाइश मौजूद है.नीरा जी आपकी कलम जिंदाबाद!

Neha Dev said...

आपकी ये लघु कथा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा , आपके शब्दों की बुनावट भी नफीस है. इसलिए कई बार पढने में भी मज़ा आया, तर्र्फ़ करने को शब्द नही मिल रहे.

विधुल्लता said...

सुदर,बेहतरीन, खुबसूरत,अच्छे लाजवाब जैसे शब्द थोडा फीके हें....इस अभिव्यक्ति के लिए...पहली बार देखा आपका ब्लॉग, मीठा सा भला सा ..काश वो अँगुलियों का ही पेबंद बना थाम लें ...हथेलियों में धरती आकाश ...

varsha said...

उन क्षणों में उन्हें अपना आसमान साबूत, पाँव के नीचे की जमी हरी और शब्दों का सागर एक दुसरे की आँखों में उमड़ता और बहता नज़र आता ... wakai bhav aur bhasha stabdh karnewale hein.

Bhaiyyu said...

गहरी बात की आपने.