Wednesday 6 May 2009

कोई तीसरा भी है जो उनके राज़ जानता है...

ऐसा बहूत कम होता है वो कहीं से गुजरे और लोग उसको पीछे मुड़ कर ना देखें... शॉप फ्लोर पर तो सभी उसे ऐसे देखते जैसे पहली बार किसी औरत को देखा हो... वो एजेन्सी से आई है और अस्थाई कर्मचारी है... पोलैंड से आये हुए उसे कुछ महीने हुए हैं और उसके हाथ में रोज़ एक नई लिस्ट होती, अंग्रेजी के नए शब्द सीखने की... हर टी ब्रेक और लंच के वक़्त वो लिस्ट उसकी आँखों के सामने होती है उस वक्त अक्सर वो भी उसके साथ होता है उसके अंग्रेजी के उच्चारण का मज़ाक उड़ाने और उससे खुले आम फ्लर्ट करने को ... तुम पर हरा रंग कितना फब रहा है, तुम आज कितनी खूबसूरत लग रही है, कभी कम्पनी के बागीचे का गुलाब लेकर तो कभी ताम्बे के पाइप को काट छल्ला बना उसकी अँगुलियों में पहनाने पहुँच जाता, कभी उसके आँखों के रंग, तो कभी उसके गले में पड़े पेंडेंट की तारीफ़ करने वो हर ब्रेक में उसके आस-पास ही नज़र आता।

कम्पनी के सारे लोग दोनों को घूर-घूर कर देखते और उन दोनों की मुस्कराहट उन्हें वो सब कुछ सोचने पर मजबूर ही नहीं करती बल्कि यकीन भी दिलाती उनके बीच वो सब कुछ चल रहा है जो एक स्त्री पुरुष के नाजायज़ और जायज़ संबंधों में चलता है... दोनों को अपने सहकर्मियों से इस खूबसूरत रिश्ते कि सफाई देने कि कभी ज़रुरत महसूस नहीं हुई क्योंकि उन दोनों के बीच वही है जो सब देखते हैं और वो क्या सोचते हैं इसकी दोनों को परवाह नहीं है।
वह दोनों बहस कर रहे हैं वो कहता है काफी मशीन सिर्फ कार्ड लेती है सिक्के नहीं लेती ... और वो कहती है वह कार्ड और सिक्के दोनों लेती है वो उसका हाथ पकड़ कर ले जाती है वो कहती है "सी..." उसके चेहरे की मुस्कराहट कहती है तुम यहाँ बरसों से काम करते हो तुम्हे इतना भी नहीं मालूम? सुराख में पैसे डालती है और एक कप निकलता है और फिर कप में काफी की धार और सबसे ऊपर कप में झाग भरे हैं झाग कि तरह दोनों के जीवन में खुशियाँ भरी हैं काफी की महक पर वो छलकती हैं, खिलखिलाती हैं, मुस्कुराती हैं, बतियाती हैं... वो दोनों सोचते हैं सिर्फ उन दोनों को ही खुशियों का राज़ मालूम है।

जाब कट हुए हैं और सभी अस्थाई वर्कर जा रहे हैं आज उसका आखरी दिन है वह भी जा रही है और अब कंपनी में रोज़ के आठ घंटे फिर से उसके लिए सज़ा बन जायेंगे...दोनों ने साथ लंच किया और उन दोनों की आँखे भर आई किन्तु और सबकी आखें आज चमक रही हैं ... हर कोई जानबूझ कर उनके आसपास से मुस्कुरा कर निकल रहा है।

वो दोनों घर पर टेलिविज़न की खबरें देख रहे है उसकी कम्पनी में हुए जाब कट की खबर वो पहली बार सुन रही है और अब समझ गई है वो जब से घर लौटा है इतना चुपचाप और उदास क्यों है ...... पिछले कितने दिनों से वह उसे खुश देख रही है इतने वर्ष साथ रहते, उम्र गुजारते अब वो उसके बारे में उससे अधिक जानती है और उसके घर में आई ख़ुशी के कारण का अंदाजा लगा चुकी है, उसे हंसी आती जब वह अपना मोबाइल उसकी आखों से छुपा कर रखता और चोरी से एस ऍम एस पढ़ कर मुस्कुराता, पासवर्ड बदल कर आजकल उसने दोनों के इमेल अकाउंट पर अकेले कब्जा कर लिया और अब वह उसके सामने मेलबाक्स भी नहीं खोलता... उसका घर में इस तरह खुश रहना, यहाँ - वहाँ चुपचाप मुस्कराहट बखेरना उसे बहुत अच्छा लगता...

वह उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहती है "तुम उससे बात करते रहना और संपर्क में रहना तुम्हारा इतना उदास होना मुझे दुःख दे रहा है" ...."नहीं वो पोलेंड वापस जा रही है और कभी लौटेगी नहीं" ...उसने यह कह कर मुह छुपाने के लिए सामने पड़ा अखबार उठा लिया, वह उसके हाथों से अखबार छीन कर नीचे जमीन पर डाल देती है दोनों बाहों में उसे समेट छोटे बच्चे कि तरह उसका चेहरा अपने सीने में छुपा लेती है...

कोई तीसरा भी है जो सिर्फ उनकी खुशियों और दर्द के राज़ ही नहीं जानता बल्कि उनकी खुशियाँ और दर्द बाँटना भी जानता है...
तस्वीर - गूगल सर्च इंजन से

18 comments:

Ashok Kumar pandey said...

कई बार लेखक वह भी कह जाता है जो वह चेतन तौर पर सोच नही रहा होता।
इस छोटी सी प्रेम और भावनाओं की कहानी में यह सच भी आ गया कि पैसे और मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था मे प्रेम भी शिकार होता है बाज़ार का…

sandeep sharma said...

bahut khoob...

Vinay said...

सुन्दर कथा

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चाँद, बादल और शाम

डॉ .अनुराग said...

इंसानी रिश्ते .अबूझ पहेली से है......ओर इंसान भी........

Udan Tashtari said...

सुन्दर कथा...बेहतरीन लेखनी!!

महेन्द्र मिश्र said...

बेहतरीन कथा..

Shikha Deepak said...

प्रेम का सुंदर पहलू...........खूबसूरत कथा।

डा० अमर कुमार said...

इन्सान को बनाया जिस खुदा ने,
उसी की फ़ितरत यूँ बदल जायेगी ?
वह खुद ही शर्मिन्दा है

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

इंसानी रिश्ते समझना इतना आसन नहीं , पर तब क्या कीजे , जब इंसानों के साथ रिश्ते भी मंदी की भेंट चढ़ रहे हों

Pushpendra Paliwal said...

बहुत अच्छी लेखनी

संगीता पुरी said...

बढिया अंदाज है ..

के सी said...

मसलहत चाहती है कि मंजिल मिले
और दिल ढूँढता है कोई कारवां !
गर्द आलूद चहरे पे हैरत न कर
दश्त दर दश्त घूमी है उम्रे-रवाँ !!

[डॉ. बशीर बद्र के अल्फाज़]

pushpendrapratap said...

likhane ke andaj shaily hi to hai jo vicharo ko shabdo ke madhyam se sab ko ru baru karti hai abhiyakti prakrati ki bhi ek bhasa hoti hai

गर्दूं-गाफिल said...

इस तरह कोई खामोश मोहब्बत करता है
उसीके दर्द को लेकर जीता है उसीकी खुशियों को मरता है
न कोई द्वेष नकोई ईर्ष्या ऐसा अक्शर भारतीय परिवारों में होता है
पर अब तो वह भी बहुत कम
बहुत खूबसूरत कथावस्तु को बड़े सलीके से उकेरा है
न्यूयार्क में हिंदी को ऐसे स्सहेजने के लिए साधुवाद बधाई

प्रकाश गोविंद said...

bahut achhi laghu katha

ye rishton ka gadit aisa hi hota hai . yahan do aur do char hi nahin hote.

varsha said...

पिछले कितने दिनों से वह उसे खुश देख रही है इतने वर्ष साथ रहते, उम्र गुजारते अब वो उसके बारे में उससे अधिक जानती है और उसके घर में आई ख़ुशी के कारण का अंदाजा लगा चुकी है, उसे हंसी आती जब वह अपना मोबाइल उसकी आखों से छुपा कर रखता और चोरी से एस ऍम एस पढ़ कर मुस्कुराता... wonderful.. kya koi stri itni udar ho sakti hei..? great & beyond my imagination..

vijay kumar sappatti said...

main pahli baar aaapke blog par aaya hoon aur aapke lekhan se bahut prabhavit hua hoon..

ise padhkar to .. I am just speechless .

Meri dil se badhai sweekar karen..

pls read my poems : http://poemsofvijay.blogspot.com

Regards,

Vijay

Ritu Raj said...

i liked it. Anything depicting love as it ought to be is always beautiful. RITU RAJ