Thursday 5 November 2009

कहीं तुम उन्हे मसीहा और दोस्त ना समझ लो....




कैसी हो? जब कोई अचानक बस इतना सा पूछ बैठे तो कई बार ऐसा क्यों होता हैं ऐसे सरल प्रश्न का उत्तर "ठीक हूँ" कहने के बाद भी वो जान लेते हैं कुछ भी ठीक नहीं है वो  सब कुछ जो तुमने नहीं कहा, उन्होंने सुन लिया .... उन्हें तुम्हारे आस-पास उड़ता धुँआ तुमसे भी अधिक साफ़ दीखता है... उस "ठीक हूँ" में उन्हें एक ही वेवलेंथ पर सिग्नल टकराने की संभावना दिखाई देती है... उनके पूछने के ढंग में ऐसा क्या है कि " कैसी हो" सुनते ही मन और आत्मा अपनी जगह से उछल कर हवा में तैरने लगते हैं और वो उन्हे बिना मुखोटे के और निर्वस्त्र देख लेते हैं .. ऐसा क्यों लगता है वह तुम्हारे साथ डिब्बे में सफ़र करना चाहते हैं, खिड़की वाली सीट तुम्हें दे तुम्हारी किताब मांग कर पढ़ना चाहते हैं,... तुम्हारे पाँव की यात्रा कि लम्बाई जानना चाहते हैं... तुम्हारे दर्द की गठरी खुलवा उसमें मुसे पड़े दर्द को इस्त्री कर, जिससे की वो दिल और आँखों को कम से कम चुभे, करीने से लगाना चाहते हैं , .... वो धरकनो के पन्ने पलट, प्यार में मिले जिंदा पलों कि खुशबू सुंघ और उसमे मिले आंसू को गिन तुम्हे पाब्लो नरूदा की कविता सुना, प्यार में खोया विशवास लौटाना चाहते हैं ...वो तुम्हारे नैन- नक्ष पर फितरे कस माथे के बलों की जगह तुम्हारे चेहरे पर हंसी की खेती करना चाहते हैं ... वो तुमसे तुम्हारे गुनाह उगलवा उन्हें तराजू में रख तुम्हारा पलड़ा अपने से हल्का बता डंडी मारना चाहते हैं... वो तुम्हारे बचपन में लगी चोट के निशाँ की कहानी कोरी किताबों के पन्नो को सुनना चाहते हैं ... वो जिन्दगी और दुनिया से मिली ठोकरों का बेंक बेलेंस जानकार तुम्हारा अकाउंट खाली करना चाहते हैं... वो गुमी खुशियों कि चाबी ढूढना छोड़ तुम्हारे अंतर्मन का ताला पतझड़ और पर्वतों से तोड़ना चाहते हैं... वो सपनो की ताबीर को नींद से बाहर निकाल तारों से उनकी सिफारिश करना चाहते हैं... वो तुम्हे घर की खिड़की से सुरज कि दस्तक और चांद की चाशनी चखाना चाहते हैं ... वो तुम्हारी जिंदगी में हवा के झोंके कि तरह आकर, शाम की घूप की तरह सिमटना चाहते हैं वो तुम्हारे खामोशी को सरगम दे तुम्हारा साज़ बनना चाहते हैं, वो तुम्हारा आकाश ढूंड, वहां पर लिखा तुम्हारा नाम  पढ़वा उसका कोना तुम्हारी अंगुली से बाँधना चाहते हैं वो दराज और सपनो में कैद कुलबुलाहट को पंखो में बदलने का नुस्खा तुमसे बाँटना चाहते हैं ...

कहीं तुम उन्हे मसीहा और दोस्त ना समझ लो, उनके दिए-लिए पर अपना हक़ ना मान लो ... वो तुम्हे ढूंढ कर तुम्हे वापस लौटा, रूमी और हाफिज़ को तुम्हारा सगा बना, वर्तमान और भविष्य को तुम्हारे हवाले कर, मुस्कुराते हुए तुमसे विदा ले, तुमसे दूर जाना चाहते हैं ...

foto - flickr.com


21 comments:

नीरज गोस्वामी said...

आप बहुत अच्छा लिखती हैं...शब्दों का ऐसा मायावी जाल रचती हैं की पाठक अटक जाता है...आपके शब्द कौशल की जितनी तारीफ़ की जाय कम है...और भाव...वाह...सुभान अल्लाह...आपको पढना एक सुखद अनुभव से गुजरने जैसा है...लिखती रहें...
नीरज

अनिल कान्त said...

नीरज जी ने बिलकुल सही लिखा है
आपकी शैली, प्रवाह, शब्द संयोजन सबकुछ बाँध लेता है

डॉ .अनुराग said...

खामोश हूं...ओर शब्दों की इस तान को सुन रहा हूं....ओर पकड़ने की कोशिश.

कुश said...

एक एक शब्द गूँज रहा हैं कानो में.. ठीक हूँ कहने पर कई लोगो को मेरे आस पास के धुए को समझते देखा है.. उम्दा क्रियेशन

Puja Upadhyay said...

दिलकश! ऐसा खूबसूरत ताना बना बुना है, उलझ कर रह गए...ऐसे पोस्ट की बार बार पढने का मन करे.

अपूर्व said...

कितने धाम घूमने का, कितनी मस्ज़िदों की इबादत, चर्च की कैंडल्स का पुण्य जरूरत पड़ता होगा शब्दों मे इतनी शिद्दत, कलम मे इतनी बेचैनी, मआनी मे इतनी पैनी धार भरने के लिये..सोच रहा हूँ
फ़िलहाल समंदर खंगाल कर नेट से परवीन शाकिर की इस नज़्म को पकड़ कर ला रहा हूँ..सिर्फ़ वही इस पोस्ट के किसी कमेंट से जस्टिस करती लगी है..

अजीब तर्ज-ए-मुलाकात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं

सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए
फिर एहतराम से मौसम का जिक्र छेड़ दिया

कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने ना हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?

पहर दिन की अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम-ए-फिराक के किस्से निशात-ए-वस्ल का जिक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....

हरकीरत ' हीर' said...

नीरा जी हर शब्द के कहे जाने पर निर्भर करता है कि उसमें कितनी आत्मीयता है ....'कैसी हो' शब्द तो वही है पर उसमें अगर प्रेम घुल जाये तो वही शब्द दुनिया का सबसे हसीं शब्द हो जाता है ....
आपने तो गज़ब ढाया है ....

ऐसा क्यों लगता है वह तुम्हारे साथ डिब्बे में सफ़र करना चाहते हैं, खिड़की वाली सीट तुम्हें दे तुम्हारी किताब मांग कर पढ़ना चाहते हैं,... तुम्हारे पाँव की यात्रा कि लम्बाई जानना चाहते हैं... तुम्हारे दर्द की गठरी खुलवा उसमें मुसे पड़े दर्द को इस्त्री कर, जिससे की वो दिल और आँखों को कम से कम चुभे, करीने से लगाना चाहते हैं , .... वो धरकनो के पन्ने पलट, प्यार में मिले जिंदा पलों कि खुशबू सुंघ और उसमे मिले आंसू को गिन तुम्हे पाब्लो नरूदा की कविता सुना, प्यार में खोया विशवास लौटाना चाहते हैं ....

आपके उस मसीहा से रश्क हो रहा है हमें तो ......!!

आगे नीरज जी पंक्तियाँ जोड़ लीजियेगा ....!!

के सी said...

कई बार पढ़ चुका हूँ
कहने को बहुत कुछ है शब्द नहीं है.

Neha Dev said...

एक जादुई लेखन पढने के लिए मुझे जो तोहफा मिला है उसका नाम है काहे को ब्याहे बिदेस, कहानिया और उनके भीतर के पात्रों को देखती हूँ अपने आस पास. सुंदर और गहरा लेखन.

गौतम राजऋषि said...

नीरज जी और अपूर्व के कह लेने के बाद, मेरा कहा क्या मायने रखेगा...

शब्दों की ये बुनावट कि गद्य भी नज़्म का गुमान दे, कोई जादूगर ही कर सकता है।

दर्द को इस्त्री करने वाली बात हो या चेहरे पर हंसी की खेती करने का जिक्र या...या फिर गुनाह को तराजु में तौलते हुये डंडी मारने वाला कथन----आह! बिम्बों की इस अनूठी जननी को सलाम मेरा!

sanjay vyas said...

कोई मसीहा होने का दावा नहीं है इन लोगों का,हमारे ही बीच के हम जैसे लोग.किसी महागाथा के नायक नहीं पर असल जीवन के नायक.हमारी ज़िन्दगी में मुस्कान देकर आम लोगों की रेलमपेल में खो जाते है.
यहाँ पूरी गरिमा के साथ खड़े,चमकते.
शुक्रिया आपका.गद्य की तारीफ के कोरस में एक स्वर मेरा भी मान लीजिये.

डिम्पल मल्होत्रा said...

pahli line hi apne aap me puri rachna hai....theek hun kah dena or dono jante hai theek hun ka matlab theek nahi...khush hun ka matlab khush nahi hun....aisa laga koee kavita padh rahi hun....

अर्कजेश said...

हर मन में है चाह ऐसे एक आदमी से मिलने की !

पता नहीं सच में भी होते हैं की नहीं !

Arshia Ali said...

आपकी शैली, आपकी शब्द योजना सब कुछ पाठक को बांध सा लेती है।
------------------
और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।

Ashok Kumar pandey said...

निखरती ही जा रही है आपकी भाषा

वैसे न जाने क्यूं उदय प्रकाश की वो पंक्तियां याद आ गईं
मैने अपने दोस्त को ख़त लिखा/यहां सब ठीकठाक है/उसने लिखा यहां भी सब ठीक है/… दोनों हैरान हैं!!

प्रदीप कांत said...

ऐसा क्यों लगता है वह तुम्हारे साथ डिब्बे में सफ़र करना चाहते हैं, खिड़की वाली सीट तुम्हें दे तुम्हारी किताब मांग कर पढ़ना चाहते हैं,... तुम्हारे पाँव की यात्रा कि लम्बाई जानना चाहते हैं... तुम्हारे दर्द की गठरी खुलवा उसमें मुसे पड़े दर्द को इस्त्री कर, जिससे की वो दिल और आँखों को कम से कम चुभे, करीने से लगाना चाहते हैं , ....

Vicharon ka kamaal...

!!अक्षय-मन!! said...

यही हकीक़त है और यही प्यार की एक कहानी कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो हर कोई नहीं समझ पाता या उनके जीवन इन शब्दों का कोई मोल ही नहीं लेकिन ये छोटा सा शब्द भी "कैसे हो" किसि३अप्ने का एहसास दिला जाता है जैसे कोई अजनबी एक दम से इतना करीब आ गया हो जितना इश्वर से वंदना,और ये वही समझ सकता है जो प्यार के महत्व को जनता हो उसे समझता हो.......आप उनमे से एक हैं./

माफ़ी चाहूंगा स्वास्थ्य ठीक ना रहने के कारण काफी समय से आपसे अलग रहा

अक्षय-मन "मन दर्पण" से

सागर said...

अच्छे राईटर की यही पहचान है, 'हुंह' पर कहानी लिख देता है... जैसे आपने 'कैसी हो' पर...

विधुल्लता said...

..नीरा जी हर शब्द सर माथे पर ,हर भाव धडकनों की नाद में, रात सोते वक़्त इन्हें दोहराउंगी मन ही मन ...ताकि अर्थों को सन्नाटे में सुन सकूं ...बधाई-बधाई

महावीर said...

भावनाओं और सुंदर शब्दों का ऐसा सामंजस्य जो गद्य होते हुए भी काव्यात्मकता का पुट लिए हुए है. अद्भुत प्रस्तुति. बधाई.
महावीर शर्मा

Unknown said...

.. ऐसा क्यों लगता है वह तुम्हारे साथ डिब्बे में सफ़र करना चाहते हैं, खिड़की वाली सीट तुम्हें दे तुम्हारी किताब मांग कर पढ़ना चाहते हैं,... तुम्हारे पाँव की यात्रा कि लम्बाई जानना चाहते हैं... तुम्हारे दर्द की गठरी खुलवा उसमें मुसे पड़े दर्द को इस्त्री कर, जिससे की वो दिल और आँखों को कम से कम चुभे, करीने से लगाना चाहते हैं , .... वो धरकनो के पन्ने पलट, प्यार में मिले जिंदा पलों कि खुशबू सुंघ और उसमे मिले आंसू को गिन तुम्हे पाब्लो नरूदा की कविता सुना, प्यार में खोया विशवास लौटाना चाहते हैं ...वो तुम्हारे नैन- नक्ष पर फितरे कस माथे के बलों की जगह तुम्हारे चेहरे पर हंसी की खेती करना चाहते हैं ... वो तुमसे तुम्हारे गुनाह उगलवा उन्हें तराजू में रख तुम्हारा पलड़ा अपने से हल्का बता डंडी मारना चाहते हैं... वो तुम्हारे बचपन में लगी चोट के निशाँ की कहानी कोरी किताबों के पन्नो को सुनना चाहते हैं
neera ji kuch nahi kahunga
nirmal verma ke baad sabdo ki behti aisi nadi mein pahli baar mein nahaya hun.....wah...aapka bhavishya aur hamare sahitya ka ujla bhavishya mein dekh reha hun...