Thursday 14 June 2012

सौ साल बाद भी वो ऐसी ही होगी....


वो फोन पर मेरा नाम तीन बार लेकर इतने जोर से चिल्लाई थी कि रसोई में काम करते हाथों को भी भनक लग गई...... बिना कुछः पूछे और सुने बस बोलती गई... मुझे मालुम था तुम जरूर फोन करोगी, मेरे शहर आओ और मुझसे मिले बिना भले कैसे जा सकती थी ...मैं सभी से पूछ रही थी तुम्हारा अता -पता और ऍफ़ बी ने बैचेन कर दिया जब पता चला तुम शहर में हो... अच्छा तो बताओ कहाँ हो और मैं अभी पहुँचती हूं... ज़रा फोन पकड़ो अपने घर का पता और रास्ता बताओ...मैंने रसोई में काम करते हाथों को फोन पकड़ाते हुए कहा...
उसकी आवाज़ की उर्जा कन्टेजीयस थी कई सौ केलोरी की एनर्जी शरीर के भीतर भर गई , बालकनी में लगे बोगनविला का रंग और सुर्ख हो गया, नीचे वो स्विमिंग पूल में सूरज की किरणों की झिलमिल जैसे पानी नहीं हीरों का तालाब है..उसके आने कि खबर पंखे की आवाज़ में संगीत की भाँती कमरे की दीवारों से टकरा कर गूंजती है ...

ऐसे होने चाहिए चाहने वाले कि नाम लो और मौजूद हो जाएँ.. ना आने की मजबूरियों और व्यस्त दिन का ब्यौरा दिए बिना ... वैसे यह है कौन जो इतनी जोर-जोर से तुम्हारा नाम लेकर फोन पर चिल्ला रही थी.?.. फोन बंद करते हुए हाथो ने पूछा आती होगी मिल लेना ...शब्दों की खिलाड़ी- सचिन तेंदुलकर की टक्कर की, जीवन को बिस्कुट की तरह शब्दों में डुबो कुतर -कुतर खाने वाली , एपाइनटमेंट लेटर और रेसिग्नेशन रेटर साथ लेकर घूमने वाली एक चलती फिरती 3D फिल्म की स्क्रिप्ट है ... संक्षिप्त सा परिचय इस बात के लिए काफी था उसके साथ मुझे अकेला छोड़ दिया जाए ...

उसने बीस मिनट कहा था और मैं पंद्रह मिनट बाद नीचे उतरती हूं नज़र आती है स्कूटर पर एक छोटी सी लड़की, हलके नीले ढीले -ढाले, घुटने तक लम्बे कुरते और नीली जींस में, पढ़ाकू बच्चों वाला काले फ्रेम का मोटा चश्मा लगाए...मुझ पर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा सूरजमुखी सा खिलता है और धूप का रंग फीका नज़र आता है.. जिस घर के रास्ते मुझे खुद नहीं मालुम, इस बड़ी इमारत में बिना खोये उसे भीतर ले आती हूं....
     
वो बोलती जा रही है लगातार...वो उन सबकी बात करती है, जिनको वो पढ़ती है, जो उसको पढ़ते हैं जिनसे वो प्रभावित है, जिनसे वो मिलना चाहती है, जिनके शब्दों से प्यार करती है, उनसे वो अपनी उदासी और ख़ुशी बाँट सकती है जो उसके जीवन का अंग बन चके है.. वो अपने बारे में बात करती है घर के एक कमरे में बिस्तर को यदि अपनी वार्डरोब बना लो कितनी सुविधा होती है कपड़े ढूँढने में... घर संभालना और खाना बनाना हम नहीं सीख पाए... कोशिश कर रहे हैं... हमारा प्राईम टाइम है बालों को शेम्पू करते हुए ... लिखने के बेहतर से बेहतर ख्याल आते है बाल धोते हुए ...घर का ताला लगाते समय दिमाग में कुछः कोंधा...तो बस हमे लेपटाप के सिवा कुछः प्यारा नहीं ... गुस्सा कम आता है हमे... पर जब आया कई मोबाइल तोड़े पर अब समझदार हो गए हैं मोबाइल भी तो महगें हो गए हैं उस पर आई फोन ... इसलिय कोने में वाशिंग बास्केट रख ली है बेचारा फोन दिवार ओर फर्श की मार से बच जाए... पता नहीं क्यों कुछः लोग जो उससे पहली बार मिलते हैं सबसे पहले यही पूछते हैं क्या तुम सिगरेट पीती हो?

वो फोन घुमाती है जानना चाहोगे किस के पास बैठी हूं... बात करोगे? शायद फोन के दूसरी तरफ वाली आवाज़ मेरी असहजता को भांप लेती है और ना कर देती है फोन बंद करते हुए उसकी मुस्कराहट में छुपी हेरानगी को नज़रंदाज़ करते हुए मैं राहत की सांस लेती हूँ ...

अपनी गर्दन घुमाए, उसके साथ राईट एंगल पर बैठी... हूँ! ...हाँ!...अच्छा!...के झांसे में फंसाए मैं उसे सुनती कम और उसके बारे में सोचती ज्यादा हूं...मेरा पुराना घिसा हुआ दीमाग अपने ढर्रे पर लगा है और उसके आने वाले पलों में झाँकने की कोशिश कर रहा है उसकी सनसनीखेज़, खूबसूरत बातों पर कम, चश्मे के पीछे पुतलियों में नाचती जिंदगी की अनोखी मुद्राओं पर फोकस करने में लगा है, मैं अभी तक बलि पर चढ़ने वाली बकरियों से वाकिफ रही हूँ और आज यह कहाँ से जंगल की शेरनी मेट्रो सिटी में... वो किस कदर जीवित है वो कितनी स्वतंत्र है, उन्मुख है निडर है... उसके भीतर की लेखिका और लड़की पर अभी पत्नी और गृहणी ने अपना साम्राज्य स्थापित नहीं किया है दफ्तर और घर के काम के तनाव ने जिसके बालों की जड़ों पर धावा नहीं बोला है, किचन की वर्क टाप और घर के फर्नीचर ने उसके हाथ-पाँव को अभी कठपुतली नहीं बनाया है, नापी बदलने और दूध नापने जैसे सुकर्मो से जो अभी अछूती है प्यार को कितनी लापरवाही से अपने आसपास खरपतवार की तरह उगा रखा है और दुनिया को बांटती उसे रोबिन हुड की तरह है .. एक समय में कई लोगों को प्यार किया जा सकता है यह तो मालुम है पर उन्हे खुश भी रखा जा सकता है यह रहस्य बस उसी को मालुम है ... एक समय में इतने लोगों को इतनी शिद्दत से प्यार करना और फिर जिसके साथ जीवन भर का नाता है उसे सूरज बना उसकी प्रथ्वी बने रहना, यह सब इतनी सहजता और सोम्यता से करना कि संवेदनाएं और शब्दों के लिए नए रास्ते मुकम्मल होते रहें और अजनबी से इतनी इमानदारी की इमानदारी खुद से लज्जित हो जाए...ऐसी बात नहीं अँधेरा उसकी जिंदगी में नहीं आता पर अंधेरों में रौशनी चिराग कैसे जलाते हैं यह कला उसने पेंटेंट कर ली है कई अन्घेरों को एक साथ घिसो कि वो बिजली घर बन जाए ...

क्या वह दस वर्ष बाद भी ऐसी होगी? मैं अपने आप से बार-बार यही सवाल करती हूं अनुभव कहता है नहीं और मेरी अंतरात्मा बार - बार क्योँ नहीं!...तीन घंटे बिना टी ब्रेक के उसे सुनने के बाद मुझे यकीन आ ही गया वो सौ साल बाद भी ऐसी ही होगी!!
 
(उससे क्षमा मांगते हुए जिसकी निजी मुलाक़ात की गुफ्तगू को इजाज़त लिए बिना अपनी बैठक की दिवार पर चिपका दिया  ... )

21 comments:

sanjay vyas said...

आमीन. वो ऐसी ही रहे.आने वाले सौ साल बाद भी.

और इतना खूबसूरत लिखने वाले की कलम का इकबाल भी बुलंद रहे.हमेशा.

"उसकी आवाज़ की उर्जा कन्टेजीयस थी कई सौ केलोरी की एनर्जी शरीर के भीतर भर गई , बालकनी में लगे बोगनविला का रंग और सुर्ख हो गया, नीचे वो स्विमिंग पूल में सूरज की किरणों की झिलमिल जैसे पानी नहीं हीरों का तालाब है..उसके आने कि खबर पंखे की आवाज़ में संगीत की भाँती कमरे की दीवारों से टकरा कर गूंजती है ..."

शब्दातीत है इस लिखे को पढ़ने का अहसास..

Puja Upadhyay said...

अच्छी, प्यारी नीरा...समझ नहीं आ रहा इस पोस्ट पर क्या लिखूँ...कितनी बार पढ़ चुकी हूँ. वाकई कोई ऐसा भी होता है क्या कि जैसा आपने लिखा है!

बस...आपकी दुआ के लिए आमीन...कि वो वाकई ऐसी ही रहे...अगर वो ऐसी है तो.

Love you.
hugs :)

Astrologer Sidharth said...

प्यार को कितनी लापरवाही से अपने आसपास खरपतवार की तरह उगा रखा है और दुनिया को बांटती उसे रोबिन हुड की तरह है


पोस्‍ट की पहली लाइन से आखिरी लाइन के बीच कई जगह घूमकर आ गया...

vandana gupta said...

कुछ हवायें हमेशा वासन्तिक ही रहती हैं।

rashmi ravija said...

हाँ, वो सौ साल बाद भी ऐसी ही रहेगी...उसे लम्हों को जीना जो आता है..

रंजू भाटिया said...

उम्र ..सोच यह सब हम पर निर्भर है ..सामने कुछ भी नजर आये पर कुछ है जिंदगियां ऐसी भी जो बदलना नहीं चाहती खुद को ..जीती है वह खुद के साथ ....यह भी नहीं बदलेगी ...बर्शते दुनिया के कहने में उम्र के हिसाब किताब न करे तो :)

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

बेहतरीन रचना
मिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से रामगढ में
जहाँ रचा गया महाकाव्य मेघदूत।

Unknown said...

मुलाकात जो मुक्कमल न हो सकी...

रीनू तलवाड़ said...

"प्यार को कितनी लापरवाही से अपने आसपास खरपतवार की तरह उगा रखा है और दुनिया को बांटती उसे रोबिन हुड की तरह है .. एक समय में कई लोगों को प्यार किया जा सकता है यह तो मालुम है पर उन्हे खुश भी रखा जा सकता है यह रहस्य बस उसी को मालुम है"...बहुत सुन्दर :-)

Pawan Kumar said...

भावनाओं और परिस्थितियों को बड़ी खूबसूरती से बयान किया है आपने..... आभार एक मार्मिक रचना पढ़ाने के लिए

डॉ .अनुराग said...

जाने क्या है इन .लकड़ी के फर्नीचर ओर दूध के नापो में ,आस पास के लोगो की लिस्ट कमतर होती जाती है . एक जानिब बेस्ट बनने के लिए दूसरी जानिब अपने आप को "कम" करना पड़ता है .ऐसे इंसुलेटेड वायर खुदा से यूँ फुर्सत से नहीं बनते की वक़्त अपना असर न छोड़ पाए .
but to sketch these people like this....
जीवन को बिस्कुट की तरह शब्दों में डुबो कुतर -कुतर खाने वाली , एपाइनटमेंट लेटर और रेसिग्नेशन रेटर साथ लेकर घूमने वाली एक चलती फिरती 3D फिल्म की स्क्रिप्ट

हाँ!...अच्छा!...के झांसे में फंसाए मैं उसे सुनती कम और उसके बारे में सोचती ज्यादा हूं...मेरा पुराना घिसा हुआ दीमाग अपने ढर्रे पर लगा है और उसके आने वाले पलों में झाँकने की कोशिश कर रहा है उसकी सनसनीखेज़, खूबसूरत बातों पर कम, चश्मे के पीछे पुतलियों में नाचती जिंदगी की अनोखी मुद्राओं पर फोकस करने में लगा है, मैं अभी तक बलि पर चढ़ने वाली बकरियों से वाकिफ रही हूँ और आज यह कहाँ से जंगल की शेरनी मेट्रो सिटी में...

esp this line " वो किस कदर जीवित है "

and this one

ऐसी बात नहीं अँधेरा उसकी जिंदगी में नहीं आता पर अंधेरों में रौशनी चिराग कैसे जलाते हैं यह कला उसने पेंटेंट कर ली है.


आपको पढना जैसे अपनी सोचो से गुजरना है जो इतनी दूर से स्क्रीन पर उभरती है .जादू है न

Alpana Verma said...

बहुत अच्छा लिखती हैं आप.
.....
वक्त के साथ बदलते हैं लोग/ बदलती हैं जिन्दगियाँ..पर उम्मीद करती हूँ कि वह न बदले/ न उसकी मासूमियत बदले ..कई बार हम बदलते तो हैं पर औरों के लिए ... पुराने दोस्तों के मिलने पर फिर वैसे ही हो जाते हैं जैसे कभी पहले थे!

M VERMA said...

तीन घंटे बिना टी ब्रेक के उसे सुनने के बाद मुझे यकीन आ ही गया वो सौ साल बाद भी ऐसी ही होगी!!

यकीनन सौ साल बाद भी ऐसी ही रहेगी.
अद्भुत अंदाज़ की रचना .. बहुत सुन्दर

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत सुन्दर..............
प्यार हो गया आपकी लेखन शैली से...........

अनु

sourabh sharma said...

मुझे तो यह किसी कहानी की स्क्रिप्ट की तरह खूबसूरत लग रहा था और आखिरी तक खूबसूरत ही रहा।

sourabh sharma said...

मुझे तो यह किसी कहानी की स्क्रिप्ट की तरह खूबसूरत लग रहा था और आखिरी तक खूबसूरत ही रहा।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

badhiya......

विधुल्लता said...

प्रिय नीरा जी
बहुत दिनों से आपको पढ़ा नहीं ...होता यही है कि जब हम लिखतें हेँ तो कमेट्स भी देखते हेँ बस ऐसे ही जब आपको देखा तो आपकी नई पोस्ट भी देखी ..लाजवाब कोई सौ साल तक ऐसा ही रहे ..आमीन
छोटे वाक्य ओर कुछ चित्र द्रश्य मन में जम जातें हेँ ...एक सच जो बाहें फैलाकर आपको बाँध लेता है बस यहाँ वही सब कुछ है लगता है सारी कल्पनाएँ मेरे भीतर से आप तक पहुँच रही हेँ ..हम एक दूसरे को पढ़ लेतें हेँ तो कुछ उदासियाँ ..थोड़े वक्त के लिए सही ..थोड़ा दूर हो जाती हेँ ...ख़ुश रहें दुआ है यही

Sanju said...

Very nice post.....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.

Pooja Priyamvada said...

waah ! I came here just browsing aimlessly but what a pleasure indeed !

AVINASH GAURAV said...

सोचता हूँ कि वह सचमुच की है भी की नहीं .
संभव है वो लड़की आप के भीतर ही छुपी हो
जिसे आपके कलम ने आजाद कर दिया हो

जो भी हो वो हमेशा जिंदा रहेगी
आपके पन्नों मे......