उम्मीद चली आती है दरारों में उग आए पीपल की तरह और बैठ जाती आँखों में धूनी रमा कर .. उम्मीद आठ से अस्सी बरस की आँखों में सप्तऋषि तारों की तरह टिमटिमाती है. न कोई भेद, न कोई पक्षपात, न फर्क..उम्मीद हर किसी की है और हर किसी को..उम्मीद के तिनके पर टिका हुआ जंगल होता है और दूज के कुतरे हुए चांद पर सलमा-सितारों के साथ पूरा अंतरिक्ष.. प्यास की उम्मीद में वक्त और प्रदूषण से पहले की नदी है.. उम्मीद की हथेली पर सपने अपनी पगडंडी बनाते हैं. वो समय कितना खूबसूरत होता है जिस रात उम्मीद यकीन दिला देती है ... प्यार पूर्णिमा के चाँद जैसा साबुत वर्ताकार सिर्फ मेरा और अगले दिन बिना पूछे वो संशयों को न्यौता देगी...देखते -देखते उन्हे चाँद की फांक काट -काट कर खिला देगी....और सामने रख देगी चुक गए प्यार की खाली तश्तरी -- अमावस्या की रात....
जिंदगी के पाँव जब भी पथरीली पगडण्डी से ज़ख्मी हुए ... उम्मीद मखमली घास का दिलासा लेकर आई जैसे हल्के-से फाहा रख दिया हो खूंरेज चोट पर. जिंदगी जब भी मायूस होकर अंधेरों में गुमनाम होने लगी ...उम्मीद खिड़की के शीशे से छनी धूप लिए हाथ सहलाती ... जब भी जिंदगी पतझड़ के संग डोलती और बसंत से कटने लगती... उम्मीद रास्तों में फूलों की कतार और तितलियों के झुण्ड बुलवा भेजती ... जब जिंदगी दोस्तों को कोसने और उनसे दूर रहने की साजिशें करती उम्मीद इनबाक्स में जादू की तरह आकर होठों पर खिलने लगती... जीवन में जब भी उम्मीद आती हैं जीवन की गाड़ी नीले पंछी की उड़ान सी जाती है जो दिन भर सारा आकाश अपनी कमर पर उठाये उड़ता है उम्मीद जब चली जाती है भाग्य, करम, हताशा, विवषता सगी बहनों से भी सगी हो जाती हैं ..दिल से भी ज्यादा नाज़ुक और स्वाभिमानी है उम्मीद, अकेले ही टूटती और जीती- मरती है अपने टूटने और बिखरने का स्वयम के अलावा वो किसी को दोष नहीं देती उम्मीद ने शौक भी तो कैसा पाला, हमेशा जवान रहने का, वो उन्ही आँखों में, उसी रंग- रूप, उन्ही गुण-दोष के साथ बार - बार जन्म लेने से नहीं थकती।
रिश्तों की घनिष्टता के बीच उम्मीद सुख के धागे से आखों में सपनों के जाल बुनती...जिस रोज इंतज़ार के समक्ष वो अपने घुटने टेक देती है और वो उसकी सारी नमी सोख यूकिलिप्टस के पेड़ की तरह बढ़ता नज़र आता है ... जिस रोज जीर्ण-शीर्ण उम्मीद उस पेड़ पर लटक कर आत्महत्या करती है उस दिन की तो पूछो मत...एक चलती- फिरती जीवित आत्मा बर्फ की सिल्ली पर रखी लाश से भी बदतर ... फिर भी उम्मीद तुझ में कितनी ताकत है यह किसी गुमशुदा के घरवालों से पूछो... तुझ में ताकत है युद्ध और विनाश के बाद शान्ति और अमन की, खून के सफ़ेद कतरों को लाल करने की, वेंटिलेटर पर मुर्दा देह में प्राण फूंकने की, बोतल में बंद प्रेम पत्र को समुद्र के रास्ते सही पते पर पंहुचाने की, माता -पिता के खाली घर में परदेस से लौटकर खिलखिलाहटों से भर जाने की , नितांत अकेले पल बांटने के लिए ज़मी के किसी कोने में दो कानों के होने की, गरीब माता-पिता के सपनों को औलाद की जिंदगी में हकीकत में बदलने की, कांच के टुकड़े हुए दिलों में प्यार के बीज बचाए रखने की, सर्दी में सूख गई तुलसी के बरसात में फिर से हरी होने की... उम्मीद के कन्धों पर सर टिका आजीवन किसी के इंतज़ार में गुज़ार देने की...
जो उम्मीदें पूरी हुई इनका लेखा - जोखा जिन्दगी कहीं रख कर अक्सर भूल गई... जो पूरी नहीं होती उन्हें भूलने नहीं देती... ना आया कर जिंदगी में उम्मीद.. कितना गहरा गड्ढा दिल पर खुद जाता है जिस रोज़ तू बिना बताये चली जाती है ...अँधेरा...अँधेरा...अँधेरा... फिर किसी रोज मैं आत्मा के दरवाजे खोल, बाहर निकल दूब पर नंगे पाँव रखती हूं...अनायास ही नज़र आकाश की ओर उठ जाती है फिर से उम्मीद पुतलियों में लौट कर, धमनियों में कुलमुलाती है और कंधे फड़फड़ाने लगते है उन पर पिछली बार के घावों का एक भी निशाँ मौजूद नहीं होता...
चित्र - गूगल सर्च इंजन से
18 comments:
जो उम्मीदें पूरी हुई इनका लेखा - जोखा जिन्दगी कहीं रख कर अक्सर भूल गई... जो पूरी नहीं होती उन्हें भूलने नहीं देती... ना आया कर जिंदगी में उम्मीद.. कितना गहरा गड्ढा दिल पर खुद जाता है जिस रोज़ तू बिना बताये चली जाती है ...अँधेरा...अँधेरा...अँधेरा...नीरा जी ..क्या कह जाती है आप ..पढ़ते हुए ही सांस अटक गयी ....एक साँस में पढ़ा है इसको ..उम्मीद .वाकई जो ठेंगा दिखा कर गायन हो जाती है ..पर फिर भी जागी रहती है .....बेहतरीन ...
सिर्फ और सिर्फ बेहतरीन कहूँगा.... निश्चित तौर पर कई दफा पढ़ने का इरादा है.......
जितनी बड़ी उम्मीद उतना गहरा गढ्ढा, उतना घना अँधेरा..
बहुत दिनों के बाद आपको पढ़ना हुआ...लेकिन पढ़ना सार्थक सिद्ध हुआ। आप बेशक कम लिखती हैं,लेकिन जो लिखती हैं,वह बहुत ही उत्तम कोटि का होता है। इस बार आपने उम्मीद पर लेखनी चलाई और देखिए उम्मीद से जुड़े कितने सवाल और प्रतिउम्मीदें खड़ी हो गई?
उम्दा लेखन!!! निशब्द!!!
उम्मीद हमारे साथ आँख-मिचौली खेलती रहती है, हम उसके साथ...बस इसी धूप छाँव में निकल जाता है जीवन...मरते-मरते भी आखिरी चीज़ आँख की पुतली में जो पथरा जाती है वो होती है अभी और जीने की उम्मीद...
such a sweet story . Look like real like my story .
Good efforts. All the best for future posts. I have bookmarked you. Well done. I read and like this post. Thanks.
उम्मीद पसरे दिन ही जीवन के अपने हैं ...
खूबसूरत कवितानमा गद्य बार बार पढने को दिल करता है !
हमेशा की तरह मेरे लिए प्रेरणा दायी....
आदरणीय नीरा जी....
आप का हर लेख मेरे लिए प्रेरणास्त्रोत है..
pravinydv.blogspot.com
आपके बिंब बहुत खूबसूरत होते हैं पहले कहीं आपने दूरदर्शन के दिनों के बारे में लिखा था, मुझे भी याद आते हैं दूरदर्शन में महाभारत देखने के लिए अपने मनपसंद सोफे पर बैठने के लिए दोस्त से होने वाले झगड़े। उस सोफे पर महाभारत देखना ऐसा होता था, जैसे महाभारत युद्ध का लाइव प्रसारण देख रहे हों। अब वो सोफा है और चैनलों की संख्या अनलिमिटेड है फिर भी वैसा सुख नहीं है और यह उम्मीद भी नहीं कि वो दिन दोबारा आएं।
http://vyakhyaa.blogspot.in/2012/10/11.html
वाह..
बेहतरीन लेखन.....
अनु
उमीदे एक अजनबी तहरीर की तरह है जिसके नीचे किसी एप्लिकेंट का नाम नहीं होता
एक छोटी सी उम्मीद और उसके इतने आयाम ....वाह
उम्मीद तो बस उम्मीद पर ही टिकी रहती ... खूबसूरत भावों का अनूठा संगम ...
आभार
पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
बहुत खूब। आज ही श्री अशोक कुमार पांडे की वाल से आपके ब्लॉग के बारे मे जाना। बहुत अच्छा लिखती है आप।जिंदगी और उम्मीद तो एक दूसरे के पूरक हैं।न कामना कर न कल्पना कर।
बहुत खूब। आज ही श्री अशोक कुमार पांडे की वाल से आपके ब्लॉग के बारे मे जाना। बहुत अच्छा लिखती है आप।जिंदगी और उम्मीद तो एक दूसरे के पूरक हैं।न कामना कर न कल्पना कर।
Post a Comment