Monday, 29 December 2008

सूखता दलदल...


वो क्या चाहता है?

उसे ख़ुद नही मालूम, पर वो नही जो मैं चाहती हूँ ।

तुम क्या चाहती हो?

थोड़ी सी जगह अपने लिये, थोड़ी सी ताज़ा हवा आत्मा लिये ।

वो एक अच्छा इंसान है।

कोई शक नही, पर घर में घुसने से पहले जूतों के साथ इंसानियत भी देहलीज पर रह जाती है ।

उससे बात करके देखो?

कोई फायदा नही।

क्यों?

उसे औरत देखाई नही देती और पत्नी की तो आदत होती है दूसरो को देख बहकने की...

पर तुमने तीस साल साथ गुजारे हैं अब क्या हुआ?

आपस के अन्तर से परिचित थे पर उन्हें जीने का समय नही मिला और अब समय भी है और बच्चों के जाने के बाद उनके लिये घर में जगह भी है।

आर्थिक रूप से आत्मनीर्भर हो तुम्हारे पास चोइस है।

हाँ है तो...

क्या तुम समाज से डरती हो?

नही...

पतिव्रता के ढोंग के फायदों का नुकसान उठा सकती हो ?

हाँ...

तो फ़िर देर क्योँ ? आंसू पौछों और दलदल से निकलो।

नही कर सकती...

क्यों ?

उसका दलदल और गहरा हो जायेगा और दुनिया के समस्त कमल से उसका विश्ववास उठ जायेगा।

तो तुम उसकी कमल हो...

नही, सूखता दलदल ....

फोटो - गूगल सर्च इंजन से

Wednesday, 17 December 2008

डिजिटल एज में सिसकता सोहाल्वी सदी का प्यार...

वो मुक्त होना चाहता है, रिश्ते से, साझेदारी से, चाहत से, प्यार से, बन्धन से, उससे साथ किए वादों से, उस पर मर मिटने की कसमों से, साथ देखे सपनो से, साथ ढूंढे आकाश से, दोनों के बीच की चांदनी से, एक दुसरे की छाया से, महक से, साँसों से, धरकनो से, वर्त्तमान से, भविष्य से, साथ चली पगडण्डी से, उसके लिये लिखी कविता से, शब्दों से, उसके ख्याल से, उसके साथ जुड़े नाम से...

उसने कहा जो हमारे बीच खूबसूरत घटना था घट चुका, जितना इस रिश्ते में हम जिंदा रह सकते थे रह लिये, जो भी एक दुसरे से बाँट सकते थे बाँट लिया, जिस मुकाम पर पहुंचना था पहुँच चुके, अब आगे सब सड़ने लगा है पके सेव की तरह, रिश्ता जिन्दा पलों से रिक्त होने लगा है अब वो सब नही रहा जो पहले था हमारे बीच, अधपके पलों के लिए एक दुसरे की गुलामी करने और सलीब उठा कर चलने से क्या फ़ायदा, मुझे एक बेहतर अवसर मिल रहा है फ़िर से जिन्दा पल जीने का, में उसे खोना नही चाहता, मैं तुम्हारी आंखों में आखें डाल कर साफ़ और सच बताना चाहता हूँ, तुम समझ सकती ही ना ऐसा सच बोलना कितना मुश्किल होता है इसके लिये कितनी हिम्मत, ईमानदारी और इंसानियत की ज़रूरत होती है यह सब आसान नही है फ़िर भी मैं तुम्हारे लिए यह सब कर रहा हूँ ...अरे! तुम इतना चुप क्यों हो?

वो शरीर पर गिरी बिजली और आखों में उमड़ते सैलाब को होंठो की मुस्कराहट में छुपा कर सोचती है डिजिटल ऐज का प्यार कितना पारदर्शी और प्रगतिशील है कांट्रेक्ट ख़त्म होने वाले दिन भी , आंखों में आखें डाल, स्माल प्रिंट में लिखी शर्तें समझा रहा है ....

पेंटिंग - अमोर & साइकी

Thursday, 11 December 2008

लाइन लाइफ से गुजरती लाइफ लाइन ......


वो अक्सर जल्दी में होती है, यह उसका लंच टाइम था उसे आधे घंटे में कई काम करने थे। केमिस्ट से दवाई लेनी थी, बैंक में सेविंग से करंट अकाउंट में पैसे ट्रान्सफर करने थे, पोस्ट ऑफिस से पासपोर्ट फार्म लेना था और सुपर मार्केट से पास्ता सॉस और डबल रोटी लेनी थी। लंच टाइम में अक्सर काफ़ी शॉप हो या डेंटिस्ट का रिसेप्शन हर जगह लाइन होती है मोबाइल हो जाने से सिर्फ़ एक जगह लाइन गायब हुई है वो है टेलीफोन बूथ, वो अब एडल्ट चेट लाइन के पोस्टर लगाने के काम आते हैं या फ़िर उनमें प्रेमी पनाह लेते हैं। वैसे आम आदमी अपने जीवन के कम से कम दो- तीन साल लाइन में इंतज़ार करते निकालता है चाहे वो एअरपोर्ट पर चेक इन की लाइन हो या आफिस की लिफ्ट नीचे आने की। हाँ इसमें ट्राफिक की लाइन शामिल नही है वरना तो चार-पाँच वर्ष की लाइन लाइफ होना बड़ी बात नही है। वह दस मिनट पहले निकली कम से कम एक लाइन से तो बच जाए। वो बूट्स में घुसी ब्यूटी प्रोडक्ट के आफर पर नज़र मारे बिना फार्मेसी की तरफ़ बढ़ गई। लाइन में चार लोग थे। वह अपने नम्बर का इंतज़ार करने लगी। हर आईल में लोग भरे हुए थे मेकप और सेंडविच वाली आइल में सबसे अधिक भीड़ थी। जाहिर है मेकप की तरफ़ औरतें और सेंडविच की तरफ़ आदमी ज्यादा थे... अभी तो अक्तूबर का अंत ही है और भीड़ कितनी बढ़ गई है, क्रिसमस तक यह भीड़ बढती ही रहेगी। फार्मेसी के आलावा हर टिल पर लंबी कतारें होंगी...कल शाम को मीटिंग है घर पहुचने में देर हो जायगी, वह सुपरमार्केट से सब्जी भी उठा लेगी, वह सुपर मार्किट के टिल पर लाइन का अंदाजा लगाने लगी ...

उसका नम्बर आ गया तभी उसने अपने पीछे किसी को महसूस किया, उसकी बाजू को हल्का सा धक्का लगा और साथ ही नाक में बदबू का झोंका आया, उसके बाल बिखरे हुए थे जैसे वो अभी सो कर उठा हो, उसके गालों के गढ़े उसकी असली उमर से कहीं अधिक बता रहे थे, उसकी ट्रेक बोटम घुटनों से घीसी थी और सफेद रग़ से अब स्लेटी हो चली थी। उसने हलके रंग की टी शर्ट पहनी हुई थी जिसमें से उसकी पसलियाँ साफ़ दीख रही थी .... इससे पहले की वह लाइन में पहले होने का दावा करती...

मेथाडॉन! मेथाडॉन! काउंटर के उस तरफ़ खड़े सफेद कोट पहने व्यक्ति पर वह चिल्लाया।

"आर यू टूगेदर?" सफेद कोट वाले आदमी ने उन दोनों पर नज़र डालते हुए पूछा?

उसने उसकी तरफ़ सर घुमाया, ऊपर से नाचे तक निगाह डाली, नीली आखों में परिचित उपेक्षा चमकी जो सिर्फ़ कत्थई आखों को नजर आई।

"सर्टेनली नॉट"....वो मुह बिचका, माथे में सिलवटें डाल, ऊँची आवाज़ में बोला और गुस्से से सफेद कोट पहने व्यक्ति की तरफ़ देखा.... वो अब उसकी मेथाडॉन कंप्युटर को फीड कर रहा था ...कुछ क्षण को उसका असर उसे अपने भीतर महसूस हुआ ... जैसे हजारों निगाहें उस पर अंगुली उठा रही हों।

वह पीछे मुडी, उसकी आखें पीछे वाले से टकराई वह सर हिला रहा था... होंठो पर फीकी सी हँसी ला वह अपने नम्बर का इंतज़ार करने लगी...

Tuesday, 2 December 2008

दहशत और मातम के चेहरे ना जीए ना मरे..

यह काम आसान था

पर उन्हें मेहमानों का ख्याल था,

वो जूझ रहे थे जान से

केमरे और माइक को पड़ी थी

हर एँगल की कवरेज़ से,

चुटकी भर नफरत को दी

अरबों आंखों ने सेक,

क्यों ना हों उनके होंसले बुलंद

हर कमरे, हर लाबी, हर घड़ी मिली

उन्हें सफलता की गंध।

पी ऍम ने भी दी दुहाई,

जैसे आँगन में

घूमती बिल्ली भगाई,

हमने भी रिमोट कंट्रोल को साक्षी मान,

बहती गंगा में डूबकी ले

पुलिस और नेता के मुहँ पर चपत लगाई।

बार-बार कबूतर उड़े,

सौ साल में पहली बार,

उनके फाइव स्टार घर

धुएं से भरे,

भीतर छोड़े बच्चों की खातिर,

हर गोली के बाद

वो वापस मुड़े,

शहर में दहशत और मातम से

पुते चेहरे ना जीये- ना मरे...

Wednesday, 26 November 2008

अब तो उसे माफ़ कर दो...


मन्दिर के बाहर, जन्म अष्टमी के दिन, दर्शनों के लिये लम्बी लाइन में उस पर निगाह अटक गई, सत्रह - अठारह वर्ष का, इकहरे बदन, छोटे कद का लड़का, दोने में फूल की माला लिये था। उसका गोरा - चिट्टा रंग, छोटी- छोटी मासूम सी आंखें और पतले होंठ बहुत अपने और जाने पहचाने लगे। दिमाग पर ज़ोर डाल ही रही थी कि इसको कहाँ देखा है? साथ आई पड़ोसन ने भांप लिया, मुस्कुरा कर बोली पहचाना इसको? तुम्हारी नन्द का बेटा है। सकते में आ गई और आंखों के सामने 17 साल पहले का द्रश्य उभर आया, जब उसने पहली बार उसे देखा था। वह सवा साल का था, कितना गिड़-गिडाई थी वह पति के सामने, तुम्हारी बहिन अब दुनिया में नही रही कम से कम अब तो उसको माफ़ कर दो। सहारनपुर जैसे शहर में घर से भाग कर शादी करने वाली बहिन को भाई कैसे माफ़ कर सकता है। वह अकेली गई, जैसे ही शव अस्पताल से आया और ज़मीन पर रखा, चेहरे से सफ़ेद कपड़ा हटाया गया। वह भाग कर अपनी माँ के पास आया और ऊपर लेट गया। उसके ब्लाउज़ में मुँह डाल अपनी सप्ताह भर की भूख मिटाने का सामान उसके होंठ टटोलने लगे। वह कितना जोर से चिल्लाया था जब उसकी दादी ने उसे वहाँ से गसीटा था। यह द्रशय पिछले 17 साल से बुरे सपने की तरह उसके साथ है।

पड़ोसन बोली इसके बाप ने दूसरी शादी नही की, इसकी बुआ और बाप ने मिल कर पाला है, वह मन्दिर में दर्शन को छोड़, भीड़ में अपने बहुत पुराने किरायेदार उसके पिता को ढूँढने लगी...

Monday, 24 November 2008

बस इतना सा ख्वाब है ...




( यह कविता मुझे ऋतुराज जी ने भेजी है उन्होंने बताया है की यह १९९१ में लिखी थी। जबकि उनका बेटा-बेटी अभी चौदह और बारह वर्ष के हैं। इंतनी सुंदर कविता के लिये उन्हें शुभकामनाये देती हुं और उम्मीद करती हुं वो अपनी रचनाये और अन्य खवाब भी हम से बांटते रहेंगे... )



बस इतना सा ख्वाब है...


अंगुली पकड़ बेटा मुझे घसीटता है

मै उसकी खोजी राह पर चलना चाहता हूँ।



बे-सबब दौड़ती है, इधर-उधर मेरी बेटी

वो जहाँ जाना चाहे, जाने देना चाहता हूँ।



अच्छे नही लगते, मुझे सड़क पर लावारिस बच्चे

हर बच्चे को माँ के साथ देखना चाहता हूँ।



मै कब उस-से उसकी खुदाई चाहता हूँ,

इंसान हूँ इंसानियत देखना चाहता हूँ।


ऋतुराज

Friday, 21 November 2008

हवा के संग उड़ सकती हो...



उसने दो पत्थर घिसे

चिंगारी चमकी

तड़क उठी

दीवार पर लगी तसवीरें





देखो! कपड़े जल रहे हैं,

नही जल सकते प्रिये

बादल उढ़ा दिया है तुम्हे,





देखो! बदन पर छाले पड़ गए हैं,

अरे! वहम है तुम्हारा


दमक रही हो तुम

अपनी आभा से,






देखो! धुंआ निकल रहा है

दिल से,

प्रिये! कल्पना है तुम्हारी


वहां तो मानसून, बारिश

और नदी बहती है,



देखो! राख बन गई हूँ,

अरे! यह में नही चाहता था!

प्रिये अब तुम

हवा के संग उड़ सकती हो

आकाश छू सकती हो,

मेरे पास रहेंगे


सदा के लिए

तुम्हारी आत्मा और अतीत

Tuesday, 18 November 2008

वो चली गई तो क्या मैं हूं ना!







वो हैदराबाद में पोस्टिंग पर था और उससे मिलने हर सप्ताह अंत में दिल्ली आता। एयर फोर्स में नौकरी की शुरुआत थी और उन दिनों डोमेस्टिक फ्लाईट भी इतनी सस्ती नही थी, उसकी सारी तनखा किराए में निकल जाती। वह दोनों सप्ताह अंत का बेसब्री से इन्जार करते। वह इंडियन एयर लाइंस में एयर होस्टेस थी। वैसे एक फाइटर पायलेट का एयर होस्टेस से टकराना आसान नही होता क्योंकि न तो फाइटर प्लेन में एयर होस्टेस होती है और न ही उनके डिपारचर और अराइवल लाउंज होते हैं। उन्हें एक मित्र ने मिलवाया था और पहले ही दिन से दोनों न्यूटन के सेब और पृथ्वी की तरह आकर्षित थे। एक दिन वह फ्लाईट लेट होने पर डेढ़ घंटा देर से केफे में मिलने पंहुचा, वह मधु मक्खी की तरह भुन भुना रही थी और बिना कुछ पूछे एक चांटा उसके मुह पर रसीद दिया जिसकी गुंज लाबी में देर तक रही और आस- पास बैठे लोगो की निगाहें उन पर उससे भी ज्यादा देर तक टिकी रही। वह खिलखिला कर हँसता रहा और वो उस पर बरसती रही। बाकी सब अपने कान और आँखे गरम करते रहे।
वह दस दिन की छुट्टी लेकर दिल्ली आया हुआ था। उन दोनों ने अपने माँ बाप को मिलवाने का फैसला किया। लड़के की माँ चुप थी पर उनके चेहरे पर लिखी नाखुशी बोल रही थी। लड़की की माँ ने काफ़ी कोशिश की दोनों परिवार किसी निर्णय पर पहुच जाएँ पर नाकाम रही। विदा लेते वक्त बस इतना कहा हमारे पास दो रिश्ते हैं एक आस्ट्रेलिया में इंजिनियर और दुसरा आपका बेटा, और आपका बेटा हमारी और हमारी बेटी की पहली पसंद है।

एक सप्ताह हो चला था वह दोनों मिले नही थे। ना उन दिनों मोबाइल फ़ोन हुआ करते थे और ना ही घर में लैण्ड लाइन थी। उसने माँ से कुछ नही कहा और ना कुछ पुछा। वह अपने आप से लड़ता रहा स्वयम को समझाता रहा। हर रोज़ खा-पी कर, हर बात का हूँ हाँ में जवाब देकर वह ओंधे मुह बिस्तर में बेजान सा पड़ा रहता। ऐसे ही एक सप्ताह गुजर गया। माँ से उसका यह हाल ना देखा गया वह इतवार को उसके सर पर हाथ फिराते हुए बोली जा उन लोगों से कह दे शादी की तारीख पक्की कर लें। माँ तुम खुश तो हो ना? माँ ने सर हिलाया और मुस्कुरा दी। वह उठ खड़ा हुआ और माँ को बाहों में जकड़ लिया। फुर्ती से तैयार हुआ और अपनी मोटर साइकल निकाली और मोती बाग़ से जनक पुरी उसी तेजी से दोडाई जैसे वह रन वे पर जेगुअर दौड़ाता हुआ हवा में उड़ता है।

घर का दरवाज़ा खुला था, घर के आस- पास और घर के भीतर चहल- पहल थी। घर के आँगन में लड़की की माँ दिखी उसे देखते ही बोली "अरे बेटा तुम ! थोड़ी देर कर दी तुमने आज सुबह ही उसकी विदाई हुई है। वह आस्ट्रलिया से आया हुआ था सब कुछ बहुत जल्दी में हुआ। उसने आगे बढ़ कर माँ के पाँव छुए और फ़िर गले से लगा लिया दोनों की आखें नम थी। वह उनके कंधे पर हाथ रख, मुस्कुरा कर बोला आप फ़िक्र ना करें, वो चली गई तो क्या मैं हूँ ना!

इस बात को अरसा हो चला है। वो जब भी दिल्ली आता है जनक पुरी जाता है, उसके बच्चों की तस्वीर देखने, अपने बच्चों के किस्से सुनाने, उनका अकेलापन बांटने और अपनी नयी पोस्टिंग की जगह बताने।

अक्सर सपने में उस तमाचे की गूंज उसे नींद से जगा देती है।

Friday, 14 November 2008

बहा ले आते उसे...



आइना पूछता आखों से

वो दिखाई नही देता,

आखें मुह छुपाती चाँद से

वो कहीं रास्ता न रोक ले



जंगल कहता नदी से

ना चलो सड़क पर

छाले पड़ जायेंगे पाँव में....


अंगुलियाँ खोजती गुमी हथेली

ज़मीन पर गिरी पत्ती में,

विंड स्क्रीन पर जमी बर्फ में,

खिड़की पर छाये अंधेरे में,

प्लेटफार्म पर घटे एतिहासिक पल में,

खुली आंखों की नींद में,

रेडियो पर बजते प्रेम गीत में,

धरकनो में बसे जिन्दा पल में,


गिरने से पहले रोज़ कहते

आंसू

उसके कंधे पर गिरते तो

बहा ले आते उसे तुम्हारे कदमों में ....

Monday, 3 November 2008

काहे को दीजे दहेज...




बिदेस जाना था, ज्यादा सामान नही देना पर माँ नही मानी थी। कम-कम करने पर भी शगुन और नेग की तुर्प चाल फैंक उसकी और पापा की हर दलील को हरा देती, बर्तन और बिस्तर तो शगुन के होते हैं, जोड़े के लिये शनील की रजाई और सास- ससुर, जेठ- जेठानी, ननद-नन्दोई के लिये गर्म और ठंडे बिस्तर, दूतई और खेस तो माँ के देहेज़ के रखे थे। जब वो फ्राक पहनती थी और ऊँची हो जाने पर खींच- खींच कर लंबा करने की कोशिश में उन्हें फाड़ डालती, तबसे माँ ने उसके लिये बर्तन जोड़े थे। बाज़ार से खरीदे नही थे, अपनी जरी की रेशमी साड़ी, शनील का शाल, पापा की घिसी कमीज़, पुरानी पतलून, पुराने जूते, दादी का पुरानी गर्म चादर, मेरी बिना फटी फ्राक, भाई की घुटने से फटी नई पेंट, सब के बदले मिल जाते थे चमकते स्टील के नए बर्तन, कभी बारह थाल तो कभी छ कटोरी, कभी किनारी वाले छ ग्लास, परात, पानी का जग, छोटे बड़े सब साइज़ के कटोरदान, डोंगे और गोल चकोर छ -छ तश्तरी। हर बर्तन पर उसका नही तो पापा का नाम खुदा होता, वह बड़े ध्यान से बर्तन बेचने वाले के हाथों कील और हथोडी का कमाल देखती और भाई को चीढाती... मेरा नाम लिखा है तेरा नही... प्रेशर कूकर और स्टील की पानी की टंकी माँ ने पापा से जिद कर शादी से सप्ताह भर पहले खरीदवाई थी। सास ने कहा था घर में पहले ही मुझे इतने सारे बर्तन और बिस्तर संभालने पड़ते हैं जो जरूरत हो साथ लेजाना नहीं तो यहाँ तेरा समान ऐसे हे रखा है ट्रंक में..... बीस किलो तो साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज का वज़न हो गया था एक चम्मच की भी जगह न थी.....जब भी सास गाँव जाती, आकर बताती बिस्तर धुंप में सुखा कर फिनाइल की गोली दाल दी हैं बर्तनों को भी हवा लगा दी....


अब दस साल से जयादा हो चुके थे उन्हें धुंप और हवा लगे......वो भूल चुकी थी ट्रंक को और फिनाइल की गोलियों को ..... बड़ी भाभी ने इस बार लौट कर कहा मैं अपना सामान ले आई हुं, तुम जाओगी तो चाबी लेजाना, अपना सामान गाँव से ले आना...


माँ बड़े-बड़े बैग दो, छोटों में नही आयेगा ...देहरादून से मेरठ का सफर, सुबह जाकर शाम तक वापस लौटना था.... गाँव का घर पहचान में नही आया, पहले सड़क पर दूर से दिखाई देता था... स्टोर में अपना ट्रंक भी नही पहचान सकी...चार जन जुटे हैं गुच्छे की चाबियों को ट्रंक के तालों में फिट करने, कभी मिटटी का तेल तो कभी सरसों का तेल...कभी ईंट तो कभी हथोड़ा...बारी-बारी कर के सारे ट्रंक खुल गए .... जिनकी तली पर सिर्फ़ फिनाइल की गोलियां लुढ़क रही थी ..... उसे शर्म महसूस हुई उन लोगों से जिन्होंने अगस्त की उमस में, धूल भरे कमरे में, चार घंटे पसीना बहा सारे ट्रंक खोले ....

बीस साल पुराने बर्तनों की चमक आज भी आखों को चुन्ध्याती है जिन पर आंखों ने सिर्फ़ एक बार नाम पढा था ....

यू आर फायर्ड जानेमन...


तुम मेरी प्रेरणा हो, आखों का सबसे सुंदर ख्वाब हो, आत्मा की आवाज़ हो, हथेली पर जिंदगी की लकीर हो, मेरी धरकनो का नाद हो, नदी की तरह मेरी रगो में प्रवाहित हो, पतझड़ के पेड़ का वसंत हो, ताजी हवा का झोंका हो, घास पर ओस की बूंद हो, प्रभात की पहली किरण हो, किसी सूफी का लिखा सोल्हवी सदी का पुराना गीत हो, मेरी ना लिखी कविता हो, मेरी जलती आखों पर गिला फोहा हो, रेगिस्तान में पानी की धार हो, खिड़की पर उगता चाँद हो, मानसून की पहली बारिश हो, मिट्टी की सोंधी खुशबू हो, सुबह रेडियो में बजता आलाप हो, मेरी हर पढ़ी किताब की नायिका हो, पत्ती और सूरज की बीच होती फोटो सेन्थसिस हो, प्रार्थना से मिला वरदान हो, मेरी चाहत, मेरी जिंदगी, मेरी पहचान, मेरी धरती, मेरा आकाश हो....

सुनो! अब कोई और है वो सब कुछ जो तुम थी...

Monday, 27 October 2008

हथेली पर टाटू...


वह वो सब करती थी जिसे करने की उम्मीद लोग उससे नही रखते थे। किन्तु लोग इस बात से खुश थे की वह वो सब नही कर रही जो उसे करना चाहिए। वो अक्सर दिखाई देती यूनिवर्सिटी केम्पस में होली पार्टी का बंदोबस्त करती, एशियन बोल के टिकेट बेचती, बी बी सी एशियन रेडियो पर ब्यूटी और बोलीवुड की डीबेट में बोलती, बुगी बुगी के कम्पीटिशन में भाग लेती, कम्युनिटी सेंटर में लड़कियों को कत्थक सिखाती, हिल्टन होटल की दिवाली पार्टी में स्टेज पर आजा नाच ले के गाने पर थिरकती, ट्रेफाल्गर स्क्वायर में कल्चरल सिटी आफ द ईअर के लिए अपने शहर का प्रतिनिध्तव करते हुए कैमरे के सामने पोज़ करती, कभी लोकल अखबार की पन्नो पर केट वाक् में, तो कभी किसी छोटे परदे के सेरियल में छोटा सा रोल करती। जब वह दो महीने के लिये मुंबई गई तो सभी खुश हुए, देखा कहा था ना, वो कुछ नही कर रही वह तो बिल्कुल नही जो उसे करना चाहिए था, अब वो मुंबई से वापस आने वाली नही. वो लोग ज्यादा खुश थे जो हर शादी और बर्थ दे पार्टी की डांस फ्लोर पर उसकी वाह-वाही सुनते बोर हो चले थे और अब उससे हाय हेलो करना भी पसंद नही करते थे।

आज घर में छोटी सी दिवाली पार्टी है वह दो लड़कों का हाथ पकड़े दस साल की बच्ची के तरह फुदकती, मटकती, चहकती घूम रही है कभी उनके साथ गोल-गोल घूम कर थिरकती है तो कभी उनके गाल थपथपाती है। वह झुक कर दोनों के कानों में मुस्कुरा कर कुछ कहती है दोनों अपनी हथेली उसके सामने बढ़ा देते हैं वो बड़े प्यार से उनका हाथ पकड़, जींस की जेब में से रबर स्टेम्प निकाल उनकी नन्ही हथेली पर दबा देती है.... जहाँ उभरती ही उसकी साधारण सी पहचान...

Dr Apurva Bhardwaj
F1 A&E St Mary Hospital
Nottingham

लड़के खुश होकर अपनी माँ के पास दौड़ जाते हैं टाटू दिखाने... वह अपने दादाजी की हथेली खींच रही है और अंत में जीत जाती है। उसके दादा अपनी हथेली को देख इस बात से मुस्कुरा रहे हैं जो उन्होंने उसके जन्म के दिन ऐलान किया था, आज बाईस वर्ष बाद वह उनकी हाथों की लकीरों पर लिख रही है....

Friday, 17 October 2008

पतंग की डोर सा मिल जायेगा...







बिना बताये चला आता है
बीच का यह अंतराल,
अँगुलियों से चुक गए शब्द
आंखों से गुम चाँद की कसक,
सपनों की नींद से
वही पुरानी खटर-पटर,


आज और अभी का चाबुक
दशकों को चुटकी में मसल,
आखों के गढों पर
उम्र की परत चढ़ा,
नए - पुराने सभी जख्म भर देता है।

धरकनो से निकल
जिन्दा पलों की महक,
थके पाँव में पंख लगा देती है।

एक आस
अधखुली आखों से,
अलार्म को अनसुना कर
सपनों को दबोच,
करवट बदल पलकें मूँद लेती है।

कविता उसे लिखेगी
सूर्यास्त बुलाएगा,
कभी न कभी तो खोया आसमा
पतंग की डोर सा मिल जायेगा।

Wednesday, 15 October 2008

बार्बी सुधर रही है ....


वो मसूरी के पाँच सितारा जे पी होटल मैं ठहरे हैं। अपनी ग्यारह वर्षीय बेटी को बोर्डिंग मैं छोड़ने आए हैं। जैसे सूली पर चढ़ने से पहले मुजरिम की इच्छा पुरी की जाती है आँचल की भी हर ख्वाइश पुरी की जा रही हैं अन्तर सिर्फ़ इतना है यहाँ एक नही, हज़ारो ख्वाईशें उसकी और सभी को पुरा करने की क्षमता, सामर्थ्य और धर्ये उसके माता-पिता रखते हैं ....उसे फ़िल्म देखनी है, पीजा खाना है, चाकलेट आइसक्रीम का बोक्स खतम करना है, हर्बल मसाज करानी है, पेडी क्योर करानी है, बिस्कुट और चोकलेट का स्टाक खरीदना है, ब्राइडल बार्बी खरीदनी है, नया स्कूल का बेग लेना है क्योंकि उसके जैसा बेग क्लास की लड़की के पास है, वो अपना मोबाइल हास्टल में रख सके इसलिये हाउस कीपर को देने के लिये सोने की अंगूठी ले जानी है, बर्गर की दूकान वाले को अडवांस देना है।

वो जाने के लिये तैयार है उसका सारा समान गाड़ी में रखा जा चुका है। ड्राईवर सफारी की पिछली सीट पर बैठा है उसके पिता ड्राइव कर रहे हैं माँ के चेहरे पर उदासी है उसके हाथ में चाकलेट और आखों में आईलाइनर । माता-पिता उसे समझा रहे हैं कि वह उनसे विदाई लेते समय रोएगी नही। वो चाकलेट का रेपर खोलती है, बिना देखे पीछे बठे ड्राईवर के ऊपर फ़ेंक देती है ड्राईवर लपक कर उसे उठाता है बड़ी सहजता से आँचल को टीशू पास करता है और बाकी बचे रेपर को अपनी और फेके जाने का इंतज़ार करता है। तभी संजना केमिस्ट की दूकान देख चिल्ला पड़ती है "मुझे बुखार है थर्मामीटर चाहिए"। उसके पिता गाड़ी रोक देते हैं और ड्राईवर की और नोट बढ़ाते हैं।

आँचल मम्मी के साथ किट्टी पार्टी में जाकर और दादी के साथ टीवी सीरियल देख बिगड़ रही थी, इसलिये उसे बार्डिंग स्कूल भेजा गया। यहाँ आकर उसके सुधेरने की संभावना बढ़ गई है क्योंकि अब वह ड्राईवर को ब्लेकमेल नही कर सकती कि वह उसे टूशन ना ले जा कर, उसके दोस्त के यहाँ ले चले वरना तो वह पापा-मम्मी से कह देगी ड्राईवर ने उसके साथ बतमीजी करने की कोशिश की ...

Tuesday, 7 October 2008

खोज रही थी बर्फीली हवा की किट-कीटाहट ...

आज दो दिन बाद बरसात रुकी थी, दो दिन से बादलों में छिपा सूरज पिछली कसर निकाल रहा था। जिसे गीले कपड़े बिना हिले सोख रहे थे. चीटियाँ बिलों से बाहर निकल रही थी, केंचुए अपना खोया घर ढूढ़ रहे थे. वह घर में रह कर उकता गई थी वैसे भी जरूरी काम अब अर्जेंट हो चले थे...माँ के बहुत कहने पर भी वो ड्राईवर ले जाने को तैयार नही हुई. ड्राईवर उसे निर्भरता का अहसास दिलाता है वह ख़ुद भी ड्राइव करती है लेकिन उसे खुली सड़कों की आदत है और उस भीड़ की जहाँ सभी ट्राफिक के नियमों का पालन करते हैं वह पहले भी तो अपने बाहर के काम करती थी, तब कहाँ गाड़ी थी?

वह कीचड़ से अपने पाँव बचा-बचा कर रोड की तरफ जा रही थी, तभी उसकी नजर सड़क की ओर पीठ किए आदमी पर पड़ी, उसने लौटना चाहा पर वो इतनी नज़दीक थी कि लौटने से अब कोई फर्क नही पड़ना था. आदमी अपना काम करके जैसे ही मुड़ा उसने आदमी को घूरा,उसकी आखों में झेंप और शर्म ढूँढने की कोशिश की, वो उसकी तरफ़ देखते हुए अपनी कार की तरफ़ ऐसे घुमा जैसे अपने घर के गेट से बाहर निकला हो. चौराहे पर कुछ लड़के थे जो अब उसे घूर रहे थे, अच्छा हुआ मानसी साथ नही है वरना तो पूछती मम वाये दीज़ बोयेज़ स्टारिंग अट अस? हिन्दुस्तान में पैदा हुई हर नारी के खून मैं घूरती आखों के प्रति एंटी बाडी होती हैं और हिन्दुस्तान से बाहर पैदा होने वाली नारी वक्सीन के बावजूद भी घूरती आंखों के प्रति इम्मुनिटी नही डवलप कर पाती. वह हर निगाह कोतुहूल से गिनती है और हर बार एक ही सवाल पूछती है. वो उन लड़कों को अनदेखा कर बसस्टाप की और भागी और बस में सवार हो गई।
बाज़ार में फेशन टेलर की दूकान में घुसी। वहां बुटिक वाली आंटी दो लड़कियों से परनींदा का रस ले रही थी, उसे देखते ही बोली तुम्हारा सूट नही सिला, कारीगर रक्षाबंधन कि छुट्टी पर गावं चला गया, अगले हफ्ते ले जाना। वो अगले हफ्ते यहाँ नही होगी और यह उसने दो सप्ताह पहले सूट का नाप देते समय बता दिया था। बिना शिकायत किए उसने सूट वापस लिया और केमिस्ट की दूकान की और चल दी. वहां दो-चार आदमी उससे पहले थे, और दो-चार आदमी उसके बाद आए और वो अपने नम्बर का इंतज़ार करती रही. अंत मैं उसने भी वही किया जो सब कर रहे थे. अभी चार में से दो दवाई ही केमिस्ट ने उसके सामने ला कर रखी थी कि उसने देखा की केमिस्ट के हाथ में नए ग्राहक की पर्ची है. उसने खिसिया कर अपनी पर्ची वापस मांगी और बिना दवाई लिए दूकान से बाहर आ गई . सामने साइबर कफे नज़र आया और वह उसमें घूस गई. दस मिनट इंतज़ार के बाद उसका नम्बर आ गया उसने लाग इन किया ही था कि कोई कुर्सी खींच कर उसके पास वाले कंप्युटर और उसके बीच की जगह में बैठ गया उसकी कुर्सी इतनी नज़दीक थी की वह उसके साँसे अपनी कमर पर महसूस कर सकती थी. वो पास वाले से इंडिया और श्रीलंका के मेच की बात करने लगा. तभी दो अलग- अलग कोनो से विडियो गेम खेलते सकूल के लड़के जोर- जोर से चिल्लाये, वो एक दुसरे को हूट कर रहे थे. उसने लाचारी से साइबर कैफे के मालिक की तरफ देखा जो अपने पसंदीदा गाने किस मी.. किस मी....को सुनने के लिये मुजिक प्लेयर की आवाज़ बढ़ा रह था . वो अपनी कुर्सी से उठी और बाहर सड़क पर आ गई वह सोच ही रही थी मुन्नी बेगम की ग़ज़लों की सी डी कहाँ से ले, तभी एक मोटर साइकल गुजरी और गढे में पड़े पानी को उसकी ओर उछाल गई. वह बिना किराया पूछे स्कूटर में जा बैठी. घर पहुँच कर वह स्कूटर वाले को सत्तर रुपये दे ही रही थी तो उसके पिता बोल पड़े पचास रुपये लगते हैं शहर से घर तक, वो दोनों बहस करने लगे. माँ उसे कीचड़ और पसीने से लथ-पथ देख मुस्कुरा उठी जैसे कह रही हों कहा था ना .... पड़ोस की आंटी उससे मिलने आई हुई थी कपड़े बदल वह ड्राइंग रूम में पहुची, आंटी उसे देखते ही बोली कितनी कमज़ोर हो गई है तेरा चेहरा सूख गया है, यह कैसे कपड़े पहने हैं इस उमर में अच्छे नही लगते ... वह यह कह कर उठ आई कि वह बहुत थक गई है.
उसे अपने ऊपर झुंझलाहट आई. यह लोग तो ऐसे ही हैं जैसे वो उन्हें छोड़ कर गई थी. वह कितनी बदल गई है बड़े दंभ से कहती थी वह बिलकूल नही बदली, उसे अपने मोहल्ले और यहाँ के लोगों से आज भी उतना लगाव है, वह कबसे वापस लौटने और उनके बीच रहने का सपना देख रही है फ़िर क्यों उसे बार- बार याद आ रहे हैं दिन-रात थैंक्यू, प्लीज़, सारी का जाप करती बर्फीली हवा, खुली सड़क के दोनों तरफ़ पैदल चलने वालो का इंतज़ार करते वीरान पेड़,एक तिकोनी छत वाला घर, छोटी सी स्टडी और उसमें इंतज़ार करती खामोशी ...उसने सोने कि कोशिश की पर उसकी आँख खुल गई थी.. हमेशा के लिये ....

सिर्फ़ दस अध्याय दो सौ पेज...

घर कहता है मुझे हर वक्त सजा कर रखो, वर्क टॉप कहता है मुझ पर चाय के दाग और चम्मच न छोड़ो, अलमारी कहती है मुझे ठीक से लगाओ, पोस्ट कहती है मुझे खोलो, फाडो, जवाब दो, वाशिंग बास्केट कहती है मुझे खाली करो, धुले कपड़े कहते हैं प्रेस करो, फ्रिज कहता है बासी सामान बाहर फेंको, सुबह कहती है खाना शाम को बना लेना ऑफिस समय पर पहुँचो, लाल बत्ती कहती है शाम को दूध ले जाना मत भूलना, दिन कहता है गैस वाले को फ़ोन करना, टेलीफोन का बिल भर देना, बैंक से पैसे निकाल लेना, बच्चों को टयूशन ले जाना, बॉस कहता है देर तक काम करो, शाम कहती है खाना खाने से पहले आरती करो, पेट कहता है मुझे छोटा करो टहलने जाओ, रिमोट कंट्रोल कहता है मुझे मत छुओ रसोई का काम निपटा लो, शनिवार कहता है शाम को मेहमान आयेंगे पनीर फ्रिज में है ना? इतवार कहता है कल का दिन बेकार किया, आज खिड़कियाँ, वाश बेसिन, टाइल्स, फ्लोर चमकाओ, दोस्त कहते हैं- फ़ोन बजता है कोई जवाब नही देता, रिश्तेदार चुगली करते हैं- वो कभी घर पर नही होती, रात कहती है करवटें ना बदलो, सपनो को सपनो में ही जीने दो...... तुम कहते हो किताब लिखो...सिर्फ़ दस अध्याय दो सौ पेज वाली......